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________________ श.१: उ.६:४२३-४३७ १८४ भगवई अपचक्खाणकिरिया-पदं ४३४. भंते ! ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वदासी–से नूणं भंते ! सेडियस्स य तणुयस्स य किवणस्स य खत्तियस्स य समा चेव अपचक्खाणकिरिया कजइ ? हंता गोयमा ! सेट्ठियस्स य तणुयस्स य किवणस्स य खत्तियस्स य समा चेव अपच्चक्खाणकिरिया कज्जइ॥ अप्रत्याख्यानक्रिया-पदम् अप्रत्याख्यानक्रिया-पद भदन्त ! अयि ! भगवान् गौतमः श्रमणं भग- ४३४. भन्ते ! इस सम्बोधन के साथ भगवान् गौतम वन्तं महावीरं वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नम- श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन-नमस्कार करते स्थित्वा एवमवादीत् अथ नूनं भदन्त ! हैं। वन्दन-नमस्कार कर उन्होंने इस प्रकार कहा श्रेष्ठिकस्य च तनुकस्य च कृपणस्य च क्षत्रिय- –भन्ते ! श्रेष्ठी, निर्धन, रंक और राजा के क्या स्य च समा चैव अप्रत्याख्यानक्रिया क्रियते? अप्रत्याख्यानक्रिया समान होती है ? हन्त गौतम ! श्रेष्ठिकस्य च तनुकस्य च कृपण- हां, गौतम ! श्रेष्ठी, निर्धन, रंक और राजा के स्य च क्षत्रियस्य च समा चैव अप्रत्याख्यान- अप्रत्याख्यानक्रिया समान होती है। क्रिया क्रियते। ४३५. से केणद्वेणं भंते ! एवं वुच्चइ-सेटि- यस्स य तणुयस्स य किवणस्स य खत्तियस्स य समा चेव अपचक्खाणकिरिया कज्जइ? गोयमा ! अविरतिं पुडुच्च। से तेणटेणं गोयमा ! एवं बुचइ–सेट्ठियस्स य तणु- यस्स य किवणस्स य खत्तियरस य समा चेव अपचक्खाणकिरिया कज्जइ। तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते--श्रेष्ठिकस्य ४३५. भन्ते ! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है च तनुकस्य च कृपणस्य च क्षत्रियस्य च समा –श्रेष्टी, निर्धन, रंक और राजा के अप्रत्याख्यानचैव अप्रत्याख्यानक्रिया क्रियते ? क्रि या समान होती है ? गौतम ! अविरतिं प्रतीत्य । तत् तेनार्थेन गौतम ! अविरति की अपेक्षा से। गौतम ! इस गौतम ! एवमुच्यते-श्रेष्ठिकस्य च तनुकस्य । अपेक्षा से यह कहा जा रहा है-श्रेष्ठी, निर्धन, च कृपणस्य च क्षत्रियस्य च समा चैव रंक और राजा के अप्रत्याख्यानक्रिया समान होती अप्रत्याख्यानक्रिया क्रियते । आहाकम्म-पदं आधाकर्म-पदम् आधाकर्म-पद ४३६. आहाकम्मं णं भुजमाणे समणे निग्गंथे आधाकर्म भुजानः श्रमणः निर्गन्थः किं ४३६.'आधाकर्म भोजन करता हुआ श्रमण निग्रन्थ किं बंधइ ? किं पकरेइ ? किं चिणाइ ? बध्नाति ? किं प्रकरोति ? किं चिनोते ? क्या बांधता है ? क्या करता है ? क्या चय किं उवचिणाइ ? किम् उपचिनोते ? करता है ? क्या उपचय करता है ? गोयमा ! आहाकम्मं णं भुंजमाणे आउय- गौतम ! आधाकर्म भुजानः आयुर्वर्जाः सप्त गौतम ! आधाकर्म भोजन करता हुआ श्रमण वजाओ सत्त कम्मप्पगडीओ सिढिलबंधण- कर्मप्रकृतीः शिथिलबन्धनबद्धाः 'धणिय'- निर्ग्रन्थ आयुष्य कर्म को छोड़कर शेष सात कर्मों बद्धाओ धणियबंधणबद्धाओ पकरेइ, हस्स- बन्धनबद्धाः प्रकरोति, ह्रस्वकालस्थितिकाः की शिथिल बन्धनबद्ध प्रकृतियों को गाढ़ कालठिइयाओ दीहकालठिइयाओ पकरेइ, दीर्घकालस्थितिकाः प्रकरोति, मंदानुभावाः बंधनबद्ध करता है, अल्पकालिक स्थिति वाली मंदाणुभावाओ तिव्वाणुभावाओ पकरेइ, तीव्रानुभावाः प्रकरोति, अल्पप्रदेशाग्राः बहु- प्रकृतियों को दीर्घकालिक स्थिति वाली करता है, अप्पएसग्गाओ बहुप्पएसग्गाओ पकरेइ, प्रदेशाग्राः प्रकरोति, आयुः च कर्म स्याद् मन्द अनुभाव वाली प्रकृतियों को तीव्र अनुभाव आउयं च णं कम्मं सिय बंधइ, सिय नो बनाति, स्थान् नो बध्नाति, असातवेदनीयं बाली करता है, अल्प प्रदेश परिमाण वाली बंधइ, अस्सायावेयणिज्जं च णं कम्मं कर्म भूयो भूयः उपचिनुते, अनादिकम् 'अण- प्रकृतियों को बहुप्रदेश-परिमाण वाली करता है; भुजो-भुजो उवचिणाइ, अणाइयं च णं बदग्गं' दीर्घाध्वानं चतुरन्तं संसारकान्तारम् आयुष्य कर्म का वन्ध कदाचित् करता है और अणवदग्गं दीहमद्धं चाउरंतं संसारकंतारं अनुपरिवर्तते । कदाचित् नहीं करता, वह असातवेदनीय कर्म का अणुपरियट्टइ॥ बहुत-बहुत उपचय करता है और आदि-अन्तहीन दीर्घ पथ वाले चतुर्गत्यात्मक संसार-कान्तार में अनुपरिवर्तन करता है। ४३७. से केणटेणं भंते ! एवं बुचइ-आहा- कम्मंणं भुंजमाणे आउयवजाओ सत्तकम्म- प्पगडीओ सिढिलबंधणबद्धाओ धणियबंधणबद्धाओ पकरेइ जाव चाउरतं संसारकतारं अणुपरियट्टइ ? ४३७. तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते- ४३७, भन्ते ! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा आधाकर्म भुजानः आयुर्वर्जाः सप्त कर्म- है—आधाकर्म भोजन करता हुआ श्रमण निर्ग्रन्थ प्रकृतीः शिथिलबन्धनबद्धाः 'धणिय'बन्धन- आयुष्य कर्म को छोड़कर शेष सात कर्मों की बद्धाः प्रकरोति यावच् चतुरन्तं संसारकान्तारं । शिथिल बन्धनबद्ध प्रकृतियों को गाढ़ बंधनबद्ध अनुपरिवर्तते ? करता है यावत् चतुर्गत्यात्मक संसार-कान्तार में अनुपरिवर्तन करता है? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003593
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages458
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size12 MB
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