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भगवई
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श.१: उ.६: सू.४३६,४३७
गोयमा ! आहाकम्मं णं भुंजमाणे आयाए गौतम ! आधाकर्म भुञ्जानः आत्मना धर्मम् 'धम्म अइक्कमइ, आयाए धम्म अइक्कममाणे अतिक्रामति, आत्मना धर्मम् अतिक्रामन् पुढविकायं णावकंखइ, आउकायं णाव- पृथ्वीकायं नावकांक्षति, अप्कायं नावकांक्षति, कंखइ, तेउकायं णावकंखइ, वाउकायं तेजस्कायं नावकांक्षति, वायुकायं नाव- णावकंखइ, वणस्सइकायं णावकंखइ, कांक्षति, वनस्पतिकायं नावकांक्षति, त्रसकायं तसकायं णावकंखइ, जेसि पि यणं जीवाणं नायकांक्षति, येषामपि च जीवानां शरीराणि सरीराइं आहारमाहारेइ ते वि जीवे आहारम् आहरति, तानपि जीवान् नाव- णावकंखइ। से तेणगुणं गोयमा ! एवं कांक्षति । तत् तेनार्थेन गौतम ! एवमुच्यते- बुचइ-आहाकम् णं मुंजमाणे आउय- आधाकर्म भुजानः आयुर्वर्जाः सप्त कर्मबजाओ सत्त कम्मपगडीओ सिढिल- प्रकृतीः शिथिलबन्धनबद्धाः 'धणिय'बन्धबंधणबद्धाओ धणियबंधणबद्धाओ पकरेइ नबद्धाः प्रकरोति यावच् चतुरन्तं संसारजाव चाउरंतं संसारकंतारं अणुपरियट्टइ॥ कान्तारम् अनुपरिवर्तते ।
गौतम ! आधाकर्म भोजन करता हुआ श्रमण निर्ग्रन्थ आत्मा से धर्म का अतिक्रमण करता है। आत्मा से धर्म का अतिक्रमण करता हुआ वह पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक और त्रसकायिक जीवों के प्रति निरपेक्ष हो जाता है। वह जिन जीवों के शरीरों का भोजन करता है, उन जीवों के प्रति भी निरपेक्ष हो जाता है। गौतम ! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है-आधाकर्म भोजन करता हुआ श्रमण निर्ग्रन्थ आयुष्य कर्म को छोड़कर शेष सात कर्मों की शिथिल बन्धनबद्ध प्रकृतियों को गाढ़ बन्धनबद्ध करता है यावत् चतुर्गत्यात्मक संसार कान्तार में अनुपरिवर्तन करता है।
भाष्य
१. सूत्र ४३६,४३७
प्रस्तुत प्रकरण में आधाकर्म आहार से होने वाले दोषों का निरूपण किया गया है। आधाकर्म का अर्थ साधु को मन में रखकर । उसके निमित्त किया जाने वाला आहार है। यह अर्थ आगम के अनेक व्याख्याकरों ने किया है। अभयदेवसूरि ने भी यही अर्थ । किया है।
औद्देशिक का अर्थ है-श्रमण, माहण, अतिथि, कृपण आदि सभी भिक्षाचरों के लिए किया गया भोजन।' प्रवचनसारोद्धार में
औद्देशिक के ओघ और विभाग—ये दो प्रकार निर्दिष्ट हैं। जो समुच्चय-रूप में देने के लिए बनाया जाता है, वह ओघ-औद्देशिक कहलाता है। जो श्रमण, ब्राह्मण, अतिथि आदि का विभाग करके भोजन पकाया जाता है, वह विभाग-औद्देशिक है। उसके तीन विभाग हैं उद्दिष्ट, कृत और कर्म। इसके चार अवान्तर प्रकार होते हैं१. उद्देश २. समुद्देश ३. आदेश ४. समादेश। विस्तृत जानकारी के लिए प्रवचनसारोद्धार गा.५६५,७.प.१३७,१३८ द्रष्टव्य हैं। 'मूलाचार' तथा 'भगवती आराधना' में भी इस विषय की विशद चर्चा उपलब्ध है। सूयगडो २1५1८ में केवल 'आहाकम्माणि' शब्द मिलता है। आयारचूला ११२६ तथा उद्गम के सोलह दोषों में 'आहाकम्मियं' और 'उद्देसियं' का एक साथ प्रयोग मिलता है। मूलाचार में भी इन दोनों का प्रयोग एक साथ उपलब्ध है।
जर्मन विद्वान डा. लायमान (Leumann) ने आहाकम्म का अर्थ याथाकाम्य किया है। यह अर्थ उपेक्षणीय नहीं है। याथाकाम्य का अर्थ है-व्यक्ति की अपनी इच्छाके अनुसार करना अथवा कराना। प्रस्तुत प्रकरण के अनुसार याथाकाम्य आहार खाने वाला पृथ्वीकाय आदि सभी जीव निकायों के प्रति निरनुकम्प होता है। इससे यह फलित होता है कि याथाकाम्य आहार का अर्थ है-गृहस्थ अपनी इच्छा के अनुसार मुनि के लिए कोई वस्तु बनाना चाहता है और मुनि उसके लिए अपनी स्वीकृति दे देता है अथवा मुनि अपने इच्छानुकूल भोजन के लिए गृहस्थ को प्रेरित करता है।
औद्देशिक का पाठ इस पाठ से भिन्न है। वहां गृहस्थ प्राण, भूत, जीव, सत्त्व का वध करता है। 'मुनि षड्जीवनिकाय के प्रति निरनुकम्प होता है' यह औद्देशिक के प्रकरण में नहीं है। शब्द-विमर्श
णावकंखइ-निरपेक्ष हो जाता है। वृत्तिकार ने णावकंखइ पद का अर्थ 'अपेक्षा न रखना, अनुकम्पा न करना' किया है।
शिथिलबन्धनबद्ध आदि के लिए देखें, भ.११४४-४७ का भाष्य।
१. प्र.सारो.प.१३७-आधानमाधा-साधुनिमित्तं चेतसः प्रणिधानं यथा अमुक- स्य साधोः कारणेन मया भक्तादि पचनीयमिति आधया कर्मपाकादिक्रिया आधाकर्म तद्योगाभक्ताद्ययाधाकर्म, इह दोषाभिधानप्रक्रमेऽपि यद्दोषवतो भक्तादेरभिधानं तद्दोषदोषवतोरभेदविवक्षया द्रष्टव्यं, एवमन्यत्राऽपि. यद्वा आधाय साधुं चेतसि प्रणिधाय यत् क्रियते भक्तादि तदाधाकर्म, पृषोदरादि- त्वाद्यलोपः, साधुनिमित्तं सचित्तस्याचित्तीकरणमचित्तस्य वा पाक इति भावः । २. भ.वृ.१।४३६-आधया साधुप्रणिधानेन यत् सचेतनमचेतनं क्रियते, अचे
तनं वा पच्यते, चीयते वा गृहादिकं, व्यूयते वा वस्त्रादिकं तदाधाकर्म । ३. आ.चूला,
११६,१७)
v
४. (क) मूलाचार, ४२२ ।
(ख) भगवती आराधना, ४२१ । ५. प्र.सारो.गा.५६५–आहाकम्मुद्देसिय पूईकम्मे । ६. मूलाचार,४२२–आधाकम्मुदेसियं । . . () Zetischrift der Deutschen Morgenlandischen Gesellshaft, Leipzig, Wiesbaden, 37/495;
(a) Doctrine of the Jainas, p. 272. ८. आ.चूला१1१६,१७। ६. भ.वृ.११४३६--'नावकंखइति नापेक्षते, नानुकम्पत इत्यर्थः ।
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