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श.१: उ.६: सू.४३८,४३६ १८६
भगवई फासु-एसणिज-पदं प्रासु-एषणीय-पदम्
प्रासु-एषणीय-पद ४३८. फासु-एसणिणं णं भंते ! भुंजमाणे प्रासु-एषणीयं भदन्त ! भुजानः श्रमणः ४३८. 'भन्ते ! प्रासुक और एषणीय भोजन करता
समणे निग्गंथे किं बंघइ ? किं पकरेइ ? निर्ग्रन्थः किं बध्नाति ? किं प्रकरोति? किं हुआश्रमण-निर्ग्रन्थ क्या बांधता है? क्या करता है? किं चिणाइ ? किं उवचिणाइ ? चिनोति ? किम् उपचिनोति ?
क्या चय करता है? क्या उपचय करता है ? गोयमा ! फासु-एसणिजंणं भुंजमाणे आउ- गौतम ! प्रासु-एषणीयं भुञ्जानः आयुर्वर्जाः गौतम ! प्रासुक और एषणीय भोजन करता हुआ यवजाओ सत्त कम्मपयडीओ घणिय- सप्तकर्मप्रकृतीः 'धणिय'बन्धनबद्धाः शिथिल- श्रमण निर्ग्रन्थ आयुष्य कर्म को छोड़कर शेष सात
सिढिलबंधणबद्धाओ पकरेइ, बन्धनबद्धाः प्रकरोति, दीर्घकालस्थितिकाः कर्मों की गाढ बन्धनबद्ध प्रकृतियों को शिथिल दीहकालद्विइयाओ हस्सकालहिइयाओ ह्रस्वकालस्थितिकाः प्रकरोति, तीव्रानुभावाः । बन्धनबद्ध करता है, दीर्घकालिक स्थिति वाली पकरेइ, तिव्वाणुभावाओ मंदाणुभावाओ मन्दानुभावाः प्रकरोति, बहुप्रदेशाग्राः अल्प- प्रकृतियों को अल्पकालिक स्थिति वाली करता है, पकरेइ, बहुप्पएसग्गाओ अप्पपएसग्गाओ प्रदेशाग्राः प्रकरोति, आयुश्च कर्म स्याद् तीव्र अनुभाव वाली प्रकृतियों को मन्द अनुभाव पकरेइ, आउयं च णं कम्मं सिय बंधइ, बध्नाति, स्यान् नो बध्नाति असातवेदनीयञ्च वाली करता है, बहुप्रदेश-परिमाण वाली प्रकृतियों सिय नो बंधइ, अस्सायावेयणिजं च णं कर्म नो भूयो-भूयः उपचिनोति, अनादिकम् को अल्प प्रदेश-परिमाण वाली करता है; आयुष्य कम्मं नो भुजो-भुजो उवचिणाइ, अणादीयं 'अणवदग्गं' दीर्घाध्यानं चतुरन्तं संसारकान्तरं । कर्म का बन्ध कदाचित् करता है और कदाचित् नहीं च णं अणवदग्गं दीहमद्धं चाउरंतं संसार- व्यतिव्रजति ।
करता, वह असातवेदनीय कर्म का बहुत-बहुत कंतारं वीईवयइ॥
उपचय नहीं करता और आदि-अन्तहीन दीर्घ पथ वाले चतुर्गत्यात्मक संसार-कान्तार का व्यतिक्रमण करता है।
कर्म नो भवान् नो बध्नाति अकम स्याद्र
वषिणाइ, अण
या अणवदा
४३६. से केणद्वेणं भंते ! एवं बुचइ-फासु- तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-प्रासु- ४३६. भन्ते ! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा
एसणिचं णं भुंजमाणे आउयवजाओ सत्त -एषणीयं भुजानः आयुर्वर्जाः सप्तकर्म- है—प्रासुक और एषणीय भोजन करता हुआ कम्मपयडीओ धणियबंधणबद्धाओ सिढिल- प्रकृतीः 'धणिय'बन्धनबद्धाः शिथिलबन्धन- श्रमण निर्ग्रन्थ आयुष्य कर्म को छोड़कर शेष सात बंधणबद्धाओ पकरेड जाव चाउरंतं संसार- बद्धाः प्रकरोति यावच चतरन्तं संसारकान्तारं कर्मों की गाढ़ बन्धनबद्ध प्रकृतियों को शिथिल कतारं वीईवयइ ? व्यतिव्रजति?
बन्धनबद्ध करता है यावत् चतुर्गत्यात्मक संसार
-कान्तार का व्यतिक्रमण करता है ? गोयमा ! फासु-एसणिणं णं भुंजमाणे समणे गौतम ! प्रासु-एषणीयं भुञ्जानः श्रमणाः गौतम ! प्रासुक और एषणीय भोजन करता हुआ निग्गंथे आयाए धर्म नाइक्कमइ, आयाए निर्ग्रन्थः आत्माना धर्म नातिक्रामति, आत्मना । श्रमण निर्ग्रन्थ आत्मा से धर्म का अतिक्रमण नहीं धम्म अणइक्कममाणे पुढविकायं अवकंखइ धर्मम् अनतिक्रामन् पृथ्वीकायम् अवकांक्षति करता, आत्मा से धर्म का अतिक्रमण नहीं करता जाव तसकायं अवकंखइ, जेसि पि य णं यावत् त्रसकायम् अवकांक्षति, येषामपि च हुआ वह पृथ्वीकायिक यावत् त्रसकायिक जीवों जीवाणं सरीराइं (आहारं ?) आहारेइ ते जीवानां शरीराणि (आहार) आहरति, तानपि के प्रति अपेक्षावान होता है (निरपेक्ष नहीं होता)। वि जीवे अवकंखइ । से तेणद्वेणं गोयमा! जीवान् अवकांक्षति । तत् तेनार्थेन गौतम! वह जिन जीवों के शरीरों का भोजन करता है, एवं बुच्चइ-फासु-एसणिजं णं भुंजमाणे एवमुच्यते-प्रासु-एषणीयं भुजानः आयु- उन जीवों के प्रति भी अपेक्षावान होता है। आउयवजाओ सत्त कम्मपयडीओ धणिय- वर्जाः सप्त कर्मप्रकृतीः 'धणिय'बन्धनबद्धाः गौतम! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा बंधणबद्धाओ सिढिलबंधणवद्धाओ पकरेइ शिथिल-बन्धनबद्धाः प्रकरोति यावच् चतुरन्तं है-प्रासुक और एषणीय भोजन करता हुआ जाव चाउरंतं संसारकतारं बीईवयइ ।। संसारकान्तारम् व्यतिव्रजति ॥
श्रमण निर्ग्रन्थ आयुष्य कर्म को छोड़कर शेष सात कर्मों की गाढ़ बन्धनबद्ध प्रकृतियों को शिथिलवन्धनबद्ध करता है यावत् चतुर्गत्यात्मक संसार-कान्तार का व्यतिक्रमण करता है।
भाष्य
१. सूत्र ४३८,४३६
प्रासुक, एषणीय--प्रासुक का अर्थ 'जीव-रहित' किया गया है।' एषणीय का अर्थ है एषणा के दोष से रहित । डा. लायमान (Leumanm) ने प्रासुक का संस्कृत-रूप 'स्पर्शक' किया है।'
१. मूलाचार,४८५-पगदा असओ जम्हा तम्हादो दव्वदात्ति तं दव्वं पासुगमिदि।
२. Doctrine of the Jainas, p.271,lootnote 3.
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