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भगवई
सासय- असासय-पदं
४४०. से नूणं भंते ! अथिरे पलोट्टई, नो थिरे पलोदृइ ? अथिरे भज्जइ, नो थिरे भन्नइ ? सासए बालए, बालियत्तं असासयं? सासए पंडिए, पंडियत्तं असासयं ?
हंता गोयमा ! अथिरे पलोट्टइ, नो थिरे पलोट्टइ । अथिरे भज्जइ, नो थिरे भज्जइ । सासए बालए, बालियत्तं असासयं । सासए पंडिए, पंडियत्तं असासयं ॥
४४१. सेवं भंते ! सेवं भंते! त्ति जाव विहरइ ॥
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शाश्वत अशाश्वत-पदम्
अथ नूनं भदन्त ! अस्थिरः प्रत्यागच्छति, नो स्थिरः प्रत्यागच्छति ? अस्थिरः भज्यते, नो स्थिरः भज्यते ? शाश्वतः बालकः, बालकत्वम् अशाश्वतम् ? शाश्वतः पण्डितः, पण्डितत्वम् अशाश्वतम् ?
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हन्त गौतम ! अस्थिरः प्रत्यागच्छति, नो स्थिरः प्रत्यागच्छति । अस्थिरः भज्यते, नो स्थिरः । भज्यते ? शाश्वतः बालकः, बालकत्वम् अशाश्वतम् । शाश्वतः पण्डितः पण्डितत्वम् अशाश्वतम् ।
१. सूत्र ४४०
वाचक मुख्य उमास्वाति के अनुसार सत् त्रयात्मक होता है। वे तीन हैं— उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य । ध्रौव्य स्थिर होता है, उत्पाद और व्यय अस्थिर होते हैं । द्रव्य स्थिर और अस्थिर दोनों का समवाय होता है। प्रस्तुत सूत्र में नित्यानित्यवाद की व्याख्या की गई है। द्रव्य का स्थिर अंश नहीं बदलता, इसीलिए वह नित्य है । उसका अस्थिर अंश बदलता है, इसीलिए वह अनित्य है। स्थिर अंश अभग्न होता है। अस्थिर अंश भग्न होता है। भगवान् महावीर ने एकान्त नित्य और एकान्त अनित्य दोनों पक्षों को अमान्य किया था। सूत्रकार ने स्थिर और अस्थिर का उदाहरण भी प्रस्तुत किया है। बालत्व और पण्डितत्व ये दोनों पर्याय हैं। इन दोनों अवस्थाओं का आधारभूत द्रव्य जीव है। वह बाल - पर्याय में भी रहता है और पंडित - पर्याय में भी रहता है । बाल-पर्याय का उदय हुआ, पंडित- पर्याय का व्यय हो गया। पंडित पर्याय का उदय हुआ, बाल-पर्याय
भाष्य
१. त. सू. ५ । ३० – उत्पादव्ययध्रौव्यात्मकं सत् ।
२. भ. वृ. १ । ४४० - ' अथिरे' त्ति अस्थासु द्रव्यं लोप्टादि 'प्रलोटति' परिवर्तते । अध्यात्मचिन्तायामस्थिरं कर्म तस्य जीवप्रदेशेभ्यः प्रतिसमयचलनेनास्थिरत्वात्
श.१: उ.६ः सू.४३८-४४०
शाश्वत अशाश्वत-पद
४४० 'भन्ते ! क्या अस्थिर द्रव्य परिवर्तित होता है, स्थिर द्रव्य परिवर्तित नहीं होता ? क्या अस्थिर द्रव्य भग्न होता है, स्थिर द्रव्य भग्न नहीं होता ? क्या बालक शाश्वत है, वालकत्व अशाश्वत है? क्या पण्डित शाश्वत है, पण्डितत्व अशाश्वत है ?
हां, गौतम ! अस्थिर द्रव्य परिवर्तित होता है, स्थिर द्रव्य परिवर्तित नहीं होता । अस्थिर द्रव्य भग्न होता है, स्थिर द्रव्य भग्न नहीं होता। बालक शाश्वत है, बालकत्व अशाश्वत है। पण्डित शाश्वत है, पण्डितत्व अशाश्वत है।
का व्यय हो गया। जीव इन दोनों पर्यायों में स्थिर रहा।
प्रस्तुत सूत्र से सत् या द्रव्य की परिभाषा फलित होती है — स्थिरास्थिरात्मकं सत् अथवा स्थिरास्थिरात्मकं द्रव्यम् । वृत्तिकार ने स्थिर और अस्थिर की व्याख्या द्रव्य और अध्यात्म दो नयों से की है। उनके अनुसार शिला स्थिर होती है और ढेला अस्थिर होता है । जीव स्थिर होता है और अजीव अस्थिर होता है । ' शब्द-विमर्श
बाल व्यवहार नय की दृष्टि से शिशु । आध्यात्मिक दृष्टि से असंयत जीव । पण्डित-व्यवहार नय की दृष्टि से शास्त्रज्ञ । आध्यात्मिक दृष्टि से संयत जीव ।
तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति यावत् ४४१. भन्ते ! वह ऐसा ही है, भन्ते ! वह ऐसा ही विहरति । है । इस प्रकार भगवान् गौतम यावत् संयम और तप से अपने आपको भावित करते हुए विहरण कर रहे हैं।
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'प्रलोटयति' बंधोदयनिर्जरादिपरिणामैः परिवर्त्तते । 'स्थिर' शिलादि न प्रलोटयति, अध्यात्मचिन्तायां तु स्थिरो जीवः, कर्मक्षयेऽपि तस्यावस्थित्वात्, नासौ 'प्रलोटयति' उपयोगलक्षणस्वभावान्न परिवर्तते ।
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