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भगवई
श.२: उ.१०. सू.१२६-१२८
२८८ से समासओ पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा- सः समासतः पञ्चविधः प्रज्ञप्तः, तद् यथा- वह संक्षेप में पांच प्रकार का प्रज्ञप्त है, जैसे-द्रव्य दबओ, खेत्तओ, कालओ, भावओ गुण- द्रव्यतः, क्षेत्रतः, कालतः, भावतः, गुणतः। की अपेक्षा से, क्षेत्र की अपेक्षा से, काल की ओ।
अपेक्षा से, भाव की अपेक्षा से और गुण की
अपेक्षा से। दबओ णं अधम्मत्थिकाए एगे दब्बे। द्रव्यतः अधर्मास्तिकायः एकम् द्रव्यम् । द्रव्य की अपेक्षा से अधर्मास्तिकाय एक द्रव्य है। खेत्तओ लोगप्पमाणमेत्ते। क्षेत्रतः लोकप्रमाणमात्रः।
क्षेत्र की अपेक्षा से लोकप्रमाण मात्र है। कालओ न कयाइ न आसि, न कयाइ कालतः न कदाचिन् नासीत्, न कदाचिन् । काल की अपेक्षा कभी नहीं था--ऐसा नहीं है, नत्थि, न कयाइ न भविस्सइ-भविंसु य, नास्ति, न कदाचिन् न भविष्यिति-अभवच् कभी नहीं है-ऐसा नहीं है, कभी नहीं भवति य, भविस्सइ य-धुवे, णियए, च, भवति च, भविष्यति च–ध्रुवः, नियतः, होगा ऐसा नहीं है—वह अतीत में था, वर्तमान सासए, अक्खए, अब्बए, अवदिए, शाश्वतः, अक्षयः, अव्ययः, अवस्थितः, में है और भविष्य में रहेगा-अतः वह ध्रुव, णिचे। नित्यः।
नियत, शाश्वत, अक्षय, अव्यय, अवस्थित और
नित्य है। भावओ अवण्णे, अगंधे, अरसे, अफासे। भावतः अवर्णः, अगन्धः, अरसः, अस्पर्शः। भाव की अपेक्षा से अवर्ण, अगन्ध, अरस और
अस्पर्श है। गुणओ ठाणगुणे॥ गुणतः स्थानगुणः।
गुण की अपेक्षा से स्थानगुण---स्थिति में उदासीन सहायक है।
१२७. आगासत्थिकाए णं भंते ! कतिवण्णे?
कतिगंधे ? कतिरसे ? कतिफासे?
आकाशास्तिकायः भदन्त ! कतिवर्णः ? १२७. भन्ते ! आकाशास्तिकाय में कितने वर्ण हैं? कतिगन्धः ? कतिरसः ? कतिस्पर्शः ? कितने गन्ध हैं ? कितने रस हैं ? कितने स्पर्श
गोयमा ! अवण्णे, अगंधे, अरसे, अफासे; अरूवी, अजीवे, सासए, अवदिए, लोगा- लोगदब्वे । से समासओ पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा- दवओ, खेत्तओ, कालओ, भावओ, गुण- ओ।
गौतम ! अवर्णः, अगन्धः, अरसः, अस्पर्शः अरूपी, अजीवः, शाश्वतः, अवस्थितः, लोकालोकद्रव्यम् । सः समासतः पञ्चविधः प्रज्ञप्तः, तद् यथाद्रव्यतः, क्षेत्रतः, कालतः, भावतः, गुणतः।
गौतम ! वह अवर्ण, अगन्ध, अरस, अस्पर्श; अरूपी, अजीव, शाश्वत, अवस्थित तथा लोकालोक का एक अंशभूत द्रव्य है। वह संक्षेप में पांच प्रकार का प्रज्ञप्त है, जैसे-द्रव्य की अपेक्षा से, क्षेत्र की अपेक्षा से, काल की अपेक्षा से, भाव की अपेक्षा से और गुण की अपेक्षा से। द्रव्य की अपेक्षा से आकाशास्तिकाय एक द्रव्य
दबओ णं आगासत्थिकाए एगे दब्बे।
द्रव्यतः आकाशास्तिकायः एकम् द्रव्यम् ।
खेत्तओ लोयालोयप्पमाणमेक्ते-अणंते।
क्षेत्रतः लोकालोकप्रमाणमात्रः-अनन्तः ।
कालओ न कयाइ न आसि, न कयाइ कालतः न कदाचिन् नासीत्, न कदाचिन् नत्थि, न कयाइ न भविस्सइ-भविंसु य, नास्ति, न कदाचिन् न भविष्यति अभवच् भवति य, भविस्सइ य-धुवे, णियए, च, भवति च, भविष्यति च–ध्रुवः, नियतः, सासए, अक्खए, अबए, अवट्ठिए, शाश्वतः, अक्षयः, अव्ययः, अवस्थितः, णिचे।
नित्यः।
क्षेत्र की अपेक्षा से लोक- तथा अलोकप्रमाण-अनन्त है। काल की अपेक्षा से कभी नहीं था—ऐसा नहीं है, कभी नहीं है-ऐसा नहीं है, कभी नहीं होगा
—ऐसा नहीं है-वह अतीत में था, वर्तमान में है और भविष्य में रहेगा-अतः वह ध्रुव, नियत, शाश्वत, अक्षय, अव्यय, अवस्थित और नित्य
भावओ अवण्णे, अगंधे, अरसे, अफासे।
भावतः अवर्णः, अगन्धः, अरसः, अस्पर्शः।
भाव की अपेक्षा से अवर्ण, अगन्ध, अरस और अस्पर्श है। गुण की अपेक्षा से अवगाहनगुण वाला है।
गुणओ अवगाहणागुणे॥
गुणतः अवगाहनागुणः।
१२८. जीवत्थिकाए णं भंते ! कतिवण्णे ?
कतिगंधे ? कतिरसे ? कतिफासे?
जीवास्तिकायः भदन्त ! कतिवर्णः ? कति- १२८. भन्ते ! जीवास्तिकाय में कितने वर्ण हैं ? गन्धः ? कतिरसः ? कतिस्पर्शः ? कितने गन्ध हैं ? कितने रस हैं ? कितने स्पर्श
गोयमा ! अवण्णे, अगंधे, अरसे, अफासे; गौतम ! अवर्णः, अगन्धः, अरसः, अस्पर्शः;
गौतम ! वह अवर्ण, अगन्ध, अरस, अस्पर्श;
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