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________________ मूल अत्थिकाय-पदं १२४. कति णं भंते ! अत्थिकाया पण्णत्ता? गोयमा ! पंच अत्थिकाया पण्णत्ता, तं जहा — धम्मत्थिकाए, अधम्मत्थिकाए, आगासत्यिकाए, जीवत्थिकाए, पोग्गलत्थि काए ॥ १२५. धम्मत्थिकाए णं भंते ! कतिवण्णे ? कतिगंधे ? कतिरसे ? कतिफासे ? गोयमा ! अवण्णे, अगंधे, अरसे, अफासे; अरूवी, अजीवे, सासए, अवट्ठिए लोगदव्वे । से समासओ पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा---- दव्वओ, खेत्तओ, कालओ, भावओ, ओ दव्वओ णं धम्मत्थिकाए एगे दव्वे । खेत्तओ लोगप्पमाणमेत्ते । कालओ न कयाइ न आसि, न कयाइ नत्थि, न कयाइ न भविस्सइ — भविंसु य, भवति य, भविस्सइ य— धुवे, गियए, सासए, अक्खए, अब्बए, अवट्टिए, णिच्चे । भावओ अवणे, अगंधे, अरसे, अफासे । गणगुणे ॥ १२६. अधम्मत्थिकाए णं भंते ! कतिवण्णे? कतिगंधे ? कतिरसे ? कतिफासे ? लोग गोयमा ! अवण्णे, अगंधे, अरसे, अफासे; अरूबी, अजीवे, सासए, अवट्ठिए, दव्वे | Jain Education International दसमो उद्देसो : दसवां उद्देशक संस्कृत छाया अस्तिकाय-पदम् कति भदन्त ! अस्तिकायाः प्रज्ञप्ताः ? गौतम ! पञ्च अस्तिकायाः प्रज्ञप्ताः, तद् यथा -- धर्मास्तिकायः, अधर्मास्तिकायः, आकाशास्तिकायः, जीवास्तिकायः, पुद्गलास्तिकायः । धर्मास्तिकायः भदन्त ! कतिवर्णः ? कति गन्धः ? कतिरसः ? कतिस्पर्शः ? गौतम ! अवर्णः, अगन्धः, अरसः, अस्पर्शः अरूपी, अजीवः शाश्वतः अवस्थितः, लोकद्रव्यम् । सः समासतः पञ्चविधः प्रज्ञप्तः, तद् यथाद्रव्यतः, क्षेत्रतः, कालतः, भावतः, गुणतः । द्रव्यतः धर्मास्तिकायः एकम् द्रव्यम् । क्षेत्रतः लोकप्रमाणमात्रः । कालतः न कदाचिन् नासीत्, न कदाचिन् नास्ति, न कदाचिन् न भविष्यति — अभवच् च, भवति च, भविष्यति च ध्रुवः, नियतः, शाश्वतः अक्षयः, अव्ययः, अवस्थितः, नित्यः । भावतः अवर्णः, अगन्धः, अरसः, अस्पर्शः । गुणतः गमनगुणः । अधर्मास्तिकायः भदन्त ! कतिवर्णः ? कति गन्धः ? कतिरसः ? कतिस्पर्शः ? गौतम ! अवर्णः, अगन्धः, अरसः, अस्पर्शः; अरूपी, अजीवः शाश्वतः अवस्थितः, लोकद्रव्यम् । For Private & Personal Use Only हिन्दी अनुवाद अस्तिकाय-पद १२४. 'भन्ते ! अस्तिकाय कितने प्रज्ञप्त हैं ? गौतम ! अस्तिकाय पांच प्रज्ञप्त हैं, जैसे— धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, जीवास्तिकाय और पुद्गलास्तिकाय । १२५. भन्ते ! धर्मास्तिकाय में कितने वर्ण हैं ? कितने गन्ध हैं ? कितने रस हैं ? कितने स्पर्श हैं ? गीतम ! वह अवर्ण, अगन्ध, अरस, अस्पर्श; अरूपी, अजीव, शाश्वत, अवस्थित तथा लोक का एक अंशभूत द्रव्य है। वह संक्षेप में पांच प्रकार का प्रज्ञप्त है, जैसे—द्रव्य की अपेक्षा से, क्षेत्र की अपेक्षा से, काल की अपेक्षा से, भाव की अपेक्षा से और गुण की अपेक्षा से । द्रव्य की अपेक्षा से धर्मास्तिकाय एक द्रव्य है । क्षेत्र की अपेक्षा से लोकप्रमाण मात्र है। काल की अपेक्षा से कभी नहीं था—ऐसा नहीं है, कभी नहीं है—ऐसा नहीं है, कभी नहीं होगा—ऐसा नहीं है वह अतीत में था, वर्तमान में है और भविष्य में रहेगा - अतः वह ध्रुव, नियत, शाश्वत, अक्षय, अव्यय, अवस्थित और नित्य है । भाव की अपेक्षा से अवर्ण, अगन्ध, अरस और अस्पर्श है। गुण की अपेक्षा से गमनगुण गति में उदासीन सहायक है। १२६. भन्ते ! अधर्मास्तिकाय में कितने वर्ण हैं ? कितने गन्ध हैं ? कितने रस हैं ? कितने स्पर्श हैं ? गौतम ! वह अवर्ण, अगन्ध, अरस, अस्पर्श; अरूपी, अजीव, शाश्वत, अवस्थित तथा लोक का एक अंशभूत द्रव्य है। www.jainelibrary.org
SR No.003593
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages458
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size12 MB
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