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________________ भगवई २. खामणा-जिन साधु-साध्वियों के साथ जीवन बिताया, उनके प्रति कोई कटु व्यवहार हुआ हो अथवा मन में उच्चावच भाव आया हो, उसके लिए क्षमायाचना करना । ३. अनशन की विधि सम्पन्न कराने वाले स्थविरों के साथ अनशन - भूमि पर पहुंच जाना । ४. अनशन - भूमि के उपयुक्त स्थल पर बिछौना कर अनशन को स्वीकार करना । २४७ ६८ वें सूत्र में यह भी प्राप्त है कि अनशन करते समय मुनि का मुंह पूर्व दिशा की ओर तथा अञ्जलि मस्तक का स्पर्श करती हुई होनी चाहिए। विशेष जानकारी के लिए आयारो, ८।१०५ से आगे पूरा अध्ययन द्रष्टव्य है । ८. कृतयोग्य जो स्थविर अनशन की विधि सम्पन्न कराने में कुशल होते, वे 'कृतयोग्य' कहलाते थे। योग्या का अर्थ है अभ्यास । चरक में 'कृतयोग्य' वैद्य का एक विशेषण है।' ६७. खंदाइ ! समणे भगवं महावीरे खंदयं अणगारं एवं वयासी से नूणं तव खंदया! पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि धम्मजागरियं जागरमाणस्स इमेयारूवे अज्झत्थिए चिंतिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुपखित्थाएवं खलु अहं इमेणं एयारूवेणं तवेणं ओरालेणं विउलेणं तं चैव जाव कालं अणवखमाणस्स विहरित्तए त्ति कट्टु एवं संपेहेसि, संपेहेत्ता कल्लं पाउप्पभाषाए रयणीए जाव उट्ठियम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि दिणयरे तेयसा जलते जेणेव ममं अंतिए तेणेव हव्वमागए । से नूणं खंदया ! अट्टे समट्टे ? हंता अत्थि । अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंधं ।। ३. Jain Education International श. २: उ.१: सू. ६६-६८ वृत्तिकार के अनुसार कडाई शब्द कृतयोग्य का संक्षिप्त रूप है । इसका वैकल्पिक रूप कृतयोगिन् भी दिया गया है । ' ६८. तए णं से खंदए अणगारे समणेणं भगवया महावीरेणं अब्भणुण्णाए समाणे चित्तमादिए दिए पीइमणे परमसोमणस्सिए हरिसवसविसप्पमाणहियए उट्ठाए उट्ठेइ, उट्ठेत्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो याहिण -पयाहिणं करेइ, करेत्ता चंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता सयमेव पंच महव्वयाइं आरुहेइ, आरुहेत्ता समणा य समणीओ यखामेइ, खामेत्ता तहारूवेहिं थे१. चरक, चिकित्सास्थान, ८ – योग्या कर्माभ्यासः । २. भ. बृ. २ | ६६ – 'कडाईहिं 'ति इह पदैकदेशात्पदसमुदायो दृश्यस्ततः कृतयोग्यादिभिरिति स्यात्, तत्र कृता योगाः - प्रत्युपेक्षणादिव्यापारा येषां सन्ति ते कृतयोगिनः । नि.भा.चू.उ.१०,गा.२६६६-३००१, भा. ३, पृ. ६६ – 'श्रुतार्थप्रत्युच्चारणा निशीवचूर्णि में 'कृतयोगी' का अर्थ 'श्रुत और अर्थ के प्रत्युच्चारण में असमर्थ मुनि' किया गया है।' व्यवहारभाष्य की वृत्ति में 'कृतयोगी' के दो अर्थ प्राप्त हैं जो पहले श्रुत और अर्थ का धारण करने वाला होता है, वर्तमान में नहीं होता, वह कृतयोगी होता है। इसका दूसरा अर्थ - 'सूत्र और अर्थ की दृष्टि से छेद -ग्रन्थों को धारण करने वाला स्थविर' किया गया है। ६. संलेखना की आराधना में लीन संलेखना का अर्थ है— कषाय और आहार का अल्पीकरण । संलेखना की विस्तृत जानकारी के लिए उत्तरज्झयणाणि ३६ । २५१-२५५ तथा आचारांगभाष्य, अध्ययन ८, गाथा ३ द्रष्टव्य है । १०. प्रायोपगमन अनशन की अवस्था में 'प्रायोपगमन' अनशन का एक प्रकार है। देखें, भ.२ ।४६ का भाष्य । स्कन्दक ! अयि ! श्रमणः भगवान् महावीरः स्कन्दकम् अनगारम् एवमवादीत् तत् नूनं तब स्कन्दक ! पूर्वरात्रापरात्रकालसमये धर्मजागरिकां जाग्रतः अयमेतद्रूपः आध्यात्मिकः चिन्तितः प्रार्थितः मनोगतः संकल्पः समुदपादि — एवं खलु अहम् अनेन एतद्रूपेण तपसा 'ओरालेणं' विपुलेन तच्चैव यावत् कालम् अनवकांक्षमाणस्य विहर्तुम् इति कृत्वा एवं संप्रेक्षसे, संप्रेक्ष्य कल्ये प्रादुप्रभातायां रजन्यां यावद् उत्थिते सूरे सहस्ररश्मी दिनकरे तेजसा ज्वलति यत्रैव ममान्तिकः तत्रैव 'हव्वं' आगतः । सः नूनं स्कन्दक ! अर्थः समर्थः ? हन्त अस्ति । यथासुखं देवानुप्रिय ! मा प्रतिबन्धम् । ततः सः स्कन्दकः अनगारः श्रमणेन भगवता महावीरेण अभ्यनुज्ञातः सन् हृष्टतुष्टचित्तः आनन्दितः नन्दितः प्रीतिमनाः परमसौमनस्थितः हर्षवशविसर्पद्ह्रदयः उत्थया उत्तिष्ठति, उत्थाय श्रमणं भगवन्तं महावीरं त्रिः आदक्षिण- प्रदक्षिणां करोति, कृत्वा वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्थित्वा स्वयमेव पंचमहाव्रतानि आरोहति, आरुह्य श्रमणान् च श्रमणीः च क्षमयति, क्षमयित्वा तथारूपैः स्थ ६७. स्कन्दक ! इस सम्बोधन से संबोधित कर श्रमण भगवान् महावीर ने स्कन्दक अनगार से इस प्रकार कहा— स्कन्दक ! मध्यरात्रि में धर्म- जागरिका करते हुए तुम्हारे मन में यह इस प्रकार का आध्यात्मिक, स्मृत्यात्मक, अभिलाषात्मक, मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ— मैं इस विशिष्ट रूपवाले प्रधान, विपुल तप से कृश हो गया हूँ यावत् मृत्यु की आकांक्षा नहीं करता हुआ रहूं-ऐसी संप्रेक्षा करते हो, संप्रेक्षा कर दूसरे दिन उषाकाल में पौ फटने पर यावत् सहस्ररश्मि दिनकर सूर्य के उदित और तेज से देदीप्यमान होने पर तुम जहां मैं हूँ, वहां मेरे पास आए हो । स्कन्दक ! क्या यह अर्थ संगत है ?" For Private & Personal Use Only हां, यह संगत है। देवानुप्रिय ! जैसे तुम्हें सुख हो, प्रतिबंध मत करो । ६८. 'वह स्कन्दक अनगार श्रमण भगवान् महावीर की अनुज्ञा प्राप्तकर हृष्ट-तुष्ट चित्त वाला, आनन्दित, नन्दित, प्रीतिपूर्ण मनवाला, परम सौमनस्ययुक्त और हर्ष से विकस्वर हृदय वाला हो गया। वह उठने की मुद्रा में उठता है, उठकर श्रमण भगवान् महावीर को दायीं ओर से प्रारंभ कर तीन बार प्रदक्षिणा करता है, वन्दन - नमस्कर करता है, वन्दन - नमस्कार कर वह स्वयं ही पांच महाव्रतों की आरोहणा करता है, आरोहणा कर समर्थः कृतयोगी' । ४. व्य.भा.उ.५,वृ.प. ६—कृतयोगी नाम यः पूर्वमुभयधर आसीत, नेदानीम् । ५. वही, उ. ५, वृ. प. १६ - यः कृतयोगी सूत्रतोऽर्थतश्चच्छेदग्रन्थधरः स्थविरः । ६. भ. वृ. २ । ६६ संलिख्यते— कृशीक्रियतेऽनयेति संलेखना –तपस्तस्या जोषणा सेवा तया जुष्टः सेवितो जूषितो वा क्षपितो यः स तथा तस्य । www.jainelibrary.org
SR No.003593
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages458
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size12 MB
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