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श. २ः उ.१: सू.६८
रेहिं कडाईहिं सद्धिं विपुलं पव्वयं सणियं-सणियं द्रुहइ, हित्ता मेहघण - सन्निगासं देवसन्निवातं पुढविसिलापट्टयं पडिलेहेइ, पडिलेहेत्ता उच्चारपासवणभूमिं पडिलेहेइ, पडिलेहेत्ता दब्भसंधारगं संथर, संघरिता पुरत्याभिमु संपलियंकनिसणे करयलपरिग्गहियं दसनहं सिरसावत्तं मत्यए अंजलि कट्टु एवं वयासी—
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विरैः कृतयोग्यैः सार्द्धं विपुलं पर्वतं शनैः-शनैः आरोहति आरुह्य मेघनसन्निकाश देवसन्निपातं पृथिवीशिलापट्टकं प्रतिलिखति, प्रतिलिख्य उच्चारप्रस्त्रवण भूमिं प्रतिलिखति, प्रतिलिख्य दर्भसंस्तारकं संस्तृणाति, संस्तृत्य पौरस्त्याभिमुखः सम्पर्यङ्कनिषण्णः करतलपरिगृहीतं दशनखं शिरसावर्त्त मस्तके अञ्जलिं कृत्वा एवमवादीत्
नमोत्थु णं अरहंताणं भगवंताणं जाव नमोऽस्तु अर्हद्भ्यः भगवद्भ्यः यावत् सिद्धिसिद्धिगतिनामधेयं ठाणं संपत्ताणं । गतिनामधेयं स्थानं संप्राप्तेभ्यः ।
नमोत्थु णं समणस्स भगवओ महावीरस्स जाव सिद्धिगतिनामधेयं ठाणं संपाविउकामस्स ।
वंदामि णं भगवंतं तत्थगयं इहगए, पासउ मे भगवं तत्थगए इहगयं ति कट्टु वंदइ नमंसइ, वंदित्ता नमसित्ता एवं वयासीपुपि मए समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए सव्वे पाणाइवाए पच्च- क्खाए जावज्जीवाए जाव मिच्छादंसणसल्ले पच्चक्खाए जावज्जीवाए। इयाणिं पि य णं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए सव्वं पाणाइवायं पच्चक्खामि जावजीवाए जाव मिच्छादंसणसल्लं पच्चक्खामि जावजीवाए । सव्वं असण- पाण- खाइम - साइमं चउव्विपि आहारं पच्चक्खामि जावजीवाए। जंपि य इमं सरीरं इट्ठ कंतं पियं जाव मा णं वाइय-पित्तिय-सेंभिय-सन्निवाइय विविहा रोगायका परीसहोवसग्गा फुसंतु त्ति कट्टु एवं पिणं चरिमेहिं उस्सास - नीसासेहि वोसिरामि त्ति कट्टु संलेहणानूसणानूसिए भत्तपाणपडियाइक्खिए पाओवगए कालं अणवखमाणे विहरइ |
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नमोऽस्तु श्रमणाय भगवते महावीराय यावत् सिद्धिगतिनामधेयं स्थानं संप्राप्तुकामाय ।
मे
वन्दे भगवन्तं तत्रगतं इहगतः पश्यतु भगवान् तत्रगतः इहगतं इति कृत्वा वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा एवमवादीत् पूर्वमपि मया श्रमणस्य भगवतः महावीरस्य अन्तिके सर्वः प्राणातिपातः प्रत्याख्यातः यावज्जीवं यावन् मिथ्यादर्शनशल्यः प्रत्याख्यातः यावज्जीवम् । इदानीमपि च श्रमणस्य भगवतः महावीरस्य अन्तिके सर्वं प्राणातिपातं प्रत्याख्यामि यावज्जीवं यावन् मिथ्यादर्शनशल्यं प्रत्याख्यामि यावज्जीवम् । सर्वम् अशन-पानखाद्य-स्वाद्यं चतुर्विधमपि आहारं प्रत्याख्यामि यावज्जीवम् । यदपि च इदं शरीरम् इष्टं कान्तं प्रियं यावन् मा वातिक-पैत्तिक- श्लैष्मिकसान्निपातिकाः विविधाः रोगातङ्काः परीषहो - पसर्गाः स्पृशन्तु इति कृत्वा एतदपि चरमैः उच्छ्वास-निःस्वासैः व्युत्सृजामि इति कृत्वा संलेखनाजोषणाजुष्टः प्रत्याख्यातभक्तपाः प्रायोपगतः कालमनवकांक्षमाणः विहरति ।
भाष्य
१. सूत्र ६८
प्रस्तुत सूत्र में एक स्थान पर पांच महाव्रत की आरोपणा का उल्लेख है और दूसरे स्थान पर 'मैंने श्रमण भगवान् महावीर के पास प्राणातिपात यावत् मिथ्यादर्शनशल्य का प्रत्याख्यान किया थाइसका उल्लेख है। इन दोनों पाठों से एक प्रश्न उपस्थित होता है कि स्कन्दक ने प्राणातिपात यावत् मिथ्यादर्शनशल्य के प्रत्याख्यानपूर्वक
भगवई
श्रमण- श्रमणियों से क्षमायाचना करता है, क्षमायाचना कर तथारूप कृतयोग्य स्थविरों के साथ धीमे-धीमे विपुल पर्वत पर चढ़ता है, चढ़कर सघन मेघ के समान श्यामवर्ण वाले देवों के समागम-स्थल पृथ्वी शिलापट्ट का प्रतिलेखन करता है, प्रतिलेखन कर उच्चार - प्रश्रवण- भूमि का प्रतिलेखन करता है, प्रतिलेखन कर डाभ का बिछौना बिछाता है, बिछा कर पूर्व दिशा की ओर मुंह कर पर्यंक- आसन में बैठ दोनों हथेलियों से निष्पन्न सम्पुट वाली दसनखात्मक अंजलि को सिर के सम्मुख घुमाकर, मस्तकर पर टिकाकर इस प्रकार बोलता हैनमस्कार हो अर्हत् भगवान् को यावत् जो सिद्धिगति नामक स्थान को प्राप्त हो चुके हैं। नमस्कार हो श्रमण भगवान् महावीर को यावत् जो सिद्धिगति नामक स्थान को प्राप्त करने के इच्छुक हैं।
'यहां बैठा हुआ मैं वहां विराजित भगवान् को चन्दन करता हूँ । वहां विराजित भगवान् यहां स्थित मुझे देखें' ऐसा सोचकर वह बन्दन - नमस्कार करता है, वन्दन - नमस्कार कर वह इस प्रकार बोलता है— मैंने पहले भी श्रमण भगवान् महावीर के पास जीवनभर के लिए सर्व प्राणातिपात यावत् मिथ्यादर्शनशल्य का प्रत्याख्यान किया था। इस समय भी मैं श्रमण भगवान महावीर के पास जीवन भर के लिए सर्व प्राणातिपात यावत् मिथ्यादर्शनशल्य का प्रत्याख्यान करता हूँ। मैं जीवन भर के लिए सर्व अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य - इस चार प्रकार के आहार का प्रत्याख्यान करता हूँ । यद्यपि मेरा यह शरीर मुझे इष्ट, कान्त, प्रिय यावत् बात, पित्त, श्लेष्म और सन्निपातजनित विविध प्रकार के रोग और आतंक तथा परीषह और उपसर्ग इसका स्पर्श न करें, इसलिए इसको भी मैं अन्तिम उच्छ्वास- निःश्वास तक छोड़ता हूँ। ऐसा कर वह संलेखना की आराधना में लीन होकर भक्तपान का प्रत्याख्यान कर प्रायोपगमन अनशन की अवस्था मृत्यु की आकांक्षा नहीं करता हुआ रह रहा है।
दीक्षा का व्रत स्वीकार किया था और अनशन के समय पांच महाव्रतों की आरोपणा की, इसका तात्पर्य क्या है?
भगवान् पार्श्व के शासन में केवल सामायिक चारित्र था और भगवान् महावीर के शासन में सामायिक चारित्र तथा छेदोपस्थापनीय चारित्र दोनों थे। दीक्षा सामायिक चारित्र के संकल्प के साथ की
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