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भगवई
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श.२ः उ.१: सू.६८,६६ जाती और एक सप्ताह, चार मास अथवा छह मास के पश्चात् दोनों एकार्थक हैं। छेदोपस्थापनीय चारित्र स्वीकृत किया जाता था। सामायिक चारित्र
मेघधनसंनिकासकाला। में केवल सर्व सावधयोग का प्रत्याख्यान होता था। भगवान् महावीर ने दीक्षा के समय "सव्वं मे अकरणिलं पावकम्म" इस संकल्प के
देवसंनिपात–जहां देव आते हैं।' साथ सामायिक चारित्र स्वीकार किया था।' छेदोपस्थापनीय चारित्र पृथ्वीशिलापट्ट शिला का आसन।' में सावधयोग का प्रत्याख्यान विस्तार के साथ किया जाता था।
संपल्यंकासन–पर्यंकासन। वृत्तिकार ने इसका अर्थ पद्मासन विस्तार की दो परम्पराएं प्रस्तुत सूत्र में विद्यमान हैं
किया है। आचार्य हेमचन्द्र ने पर्यंकासन और पद्मासन को १. पांच महाव्रतों का स्वीकार ।
पृथक्-पृथक् माना है। ' द्रष्टव्य भ.२१६२ का भाष्य । २. अठारह प्रकार की सावध प्रवृतियों का प्रत्याख्यान । २. दोनों हथेलियों से निष्पन्न सम्पुट वाली....अंजलि को प्रस्तुत सूत्र में दोनों का उल्लेख हुआ है। इन दोनों में पहले
प्रस्तुत पाठ में अंजलि के तीन विशेषण हैं। वृत्तिकार ने कौन-सी परम्परा प्रचलित हुई——यह निश्चयपूर्वक कहना कठिन है।
सीमा संभावना की जा सकती है कि पहले अठारह प्रकार की सावध
अस्पृष्ट अथवा सिर की और आवर्तन या परिभ्रमण करने वाले। प्रवृतियों के प्रत्याख्यान की परम्परा रही हो और उसके पश्चात् आचार्य मलयगिरी ने अंजलि तथा उसके तीनों विशेषणों की व्याख्या उसका संक्षिप्त रूप पांच महाव्रतों के रूप में हुआ हो। सूत्र-संकलन की है। के काल में दोनों परम्पराओं का एक साथ उल्लेख हुआ है-यह
३. प्राणातिपात यावत मिथ्यादर्शनशल्य संभावना की जा सकती है।
द्रष्टव्य, भ.११२७६-२८६ का भाष्य शब्द-विमर्श
आरुहेइ-आरोहणा करना। 'आरोहणा' और 'आरोपणा'
६६. तए णं से खंदए अणगारे समणस्स ततः सः स्कन्दकः अनगारः श्रमणस्य भगवतः ६६. वह स्कन्दक अनगार श्रमण भगवान् महावीर के भगवओ महावीरस्स तहारूवाणं थेराणं महावीरस्य तथारूपाणां स्थविराणाम् अन्तिके तथारूप स्थविरों के पास सामायिक आदि ग्यारह अंतिए सामाइयमाइयाइं एकारस अंगाई सामायिकादीनि एकादश अङ्गानि अधीय अंगो का अध्ययन कर प्रायः परिपूर्ण बारह वर्ष अहिन्जित्ता, बहुपडिपुण्णाई दुवालसवासाई बहुप्रतिपूर्णानि द्वादशवर्षाणि श्रामण्यपर्यायं के श्रामण्य-पर्याय का पालन कर एक मास की सामण्णपरियागं पाउणित्ता मासियाए प्राप्य मासिक्या संलेखनया आत्मानं जोषित्वा संलेखना से अपने आप (शरीर) को कृश बना, संलेहणाए अत्ताणं झूसित्ता, सट्ठिं भत्ताई षष्टिं भक्तानि अनशनेन छित्त्वा आलोचित- अनशन के द्वारा साठ भक्त' (भोजन के समय) अणसणाए छेदेता आलोइय-पडिक्कंते प्रतिक्रान्तः समाधिप्राप्तः आनुपूर्व्या काल- का छेदन कर आलोचना और प्रतिक्रमण कर' समाहिपत्ते आणुपुबीए कालगए ॥ गतः।
समाधिपूर्ण दशा में क्रमशः दिवंगत हो गया।
भाष्य १. साठ भक्त
एक दिन में भोजन के दो भक्त होते हैं। तीस दिन के अनशन आलोचना का अर्थ है-अपनी भूलों का प्रकट उच्चारण या में साठ भक्त त्यक्त हो जाते हैं।
निवेदन । प्रतिक्रमण का अर्थ है----अकरणीय को पुनः न करने का २. आलोचना और प्रतिक्रमण कर
संकल्प अथवा अतीत की भूलों के लिए मिथ्या दुष्कृत का प्रयोग।"
१. आ.चूला,१५/३२-"सव्वं मे अकरणिज्जं पावकम्म" ति कटु सामाइयं
चरितं पडिवाइ। २. भ.वृ.२१६६ घनमेघसदृशंसान्द्रजलदसमानं कालकमित्यर्थः । ३. वही,२१६६-'देवसंनिवार्य'ति देवानां संनिपातः--समागमो रमणीयत्वाद् यत्र
स तथा त। ४. वही,१६६-पृथ्वीशिलारूपः पट्टकः:-आसनविशेषः पृथिवीशिलापट्टकः
काष्ठशिलाऽपि शिला स्यादतस्तद्व्यवच्छेदाय पृथिवीग्रहणं । ५. वही,२१६५–'संपलियंकनिसण्णे'त्ति पद्मासनोपविष्टः । ६. योगशास्त्र,४।१२५,१२६
स्याज्जंघयोरधोभागे पादोपरिकृते सति । पर्यो नाभिगोत्तान-दक्षिणोत्तरपाणिकः ।। जंघाया मध्यभागे तु संश्लेषो यत्र जंघया। पद्मासनमिति प्रोक्तं तदासनविचक्षणैः ।।
७. भ.वृ.२१६८-'सिरसावतंति शिरसाऽप्राप्तम्-अस्पृष्टम्, अथवा शिरसि __ आवर्त आवृत्तिरावर्तनं--परिभ्रमणं यस्यासी सप्तम्यलोपाच्छिरस्यावर्तस्तम् । ८. राज.वृ.पृ.५६-द्वयोर्हस्तयोरन्योऽन्यान्तरित्ताङ्गुलिकयोः सम्पुटरूपतया यदे
कत्र मीलनं सा अञ्जलिः ताम् । करतलाभ्यां परिगृहीता-निष्पादिता करतलपरिगृहीता ताम् । दश नखा यस्यां एकैकस्मिन् हस्ते नखपञ्चकसंभवात् दशनखा ताम् तया। आवर्तनमावर्तः शिरस्यावर्तो यस्याः सा शिरस्यविर्ता ---'कण्ठेकालः', "उरसिलोमा' इत्यादिवत् अलुक्समासः--ताम् । ६. भ.व.२।६६-'सढि भत्ताई'ति प्रतिदिनं भोजनद्वयस्य त्यागास्त्रिंशता दिनैः
षष्टिर्भक्तानि त्यक्तानि भवन्ति। १०. वही, २।६९-आलोचितं-गुरूणां निवेदितं यदतिचारजातं तत्, प्रति
क्रान्तम्-अकरणविषयीकृतं येनासावालोचितप्रतिक्रान्तः अथवाऽऽलोचितश्चासावालोचनादानात् प्रतिक्रान्तश्च मिथ्यादुष्कृतदानादालोचितप्रतिक्रान्तः।
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