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________________ श.२: उ.१: सू.७०,७१ २५० भगवई ७०. तए णं ते थेरा भगवंतो खंदयं अणगारं ततः ते स्थविराः भगवन्तः स्कन्दकम् अनगारं ७०. वे स्थविर भगवान् स्कन्दक अनगार को दिवंगत कालगयं जाणित्ता परिनिव्वाणवत्तियं कालगतं ज्ञात्वा परिनिर्वाणप्रत्ययं कायोत्सर्ग जानकर परिनिर्वाणहेतुक कायोत्सर्ग करते हैं, काउसगं करेंति, करेत्ता पत्त-चीवराणि कुर्वन्ति, कृत्वा पात्र-चीवराणि गृह्णन्ति, कायोत्सर्ग कर उसके पात्र और चीवरों को लेते गेहंति, गेण्हित्ता विपुलाओ पव्वयाओ गृहीत्वा विपुलात् पर्वतात् शनैः-शनैः हैं, लेकर धीमे-धीमे विपुल पर्वत से नीचे उतरते सणिय-सणिय पचोरुहति, पचोरुहित्ता प्रत्यारोहन्ति, प्रत्यारुह्य यत्रैव श्रमणः भगवान हैं, नीचे उतर कर जहां श्रमण भगवान महावीर जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव महावीरः तत्रैव उपागच्छन्ति, उपागम्य श्रमणं हैं वहां आते हैं, आकर श्रमण भगवान महावीर उवागळंति, उवागच्छित्ता समणं भगवं भगवन्तं महावीरं वन्दन्ते नमस्यन्ति, वन्दित्वा को वन्दन-नमस्कार करते हैं, वन्दन-नमस्कार कर महावार वदात नमसात, पादत्ता नमासत्ता नमस्थित्वा एचमवादिष:-एवं खल देवा- वे इस प्रकार कहते हैं-देवानप्रिय का अन्तवासी एवं वयासी एवं खलु देवाणुप्पियाणं नुप्रियाणां अन्तेवासी स्कन्दकः नाम अनगारः स्कन्दक नाम का अनगार, जो प्रकृति से भद्र और अंतेवासी खंदए नामं अणगारे पगइभद्दए प्रकृतिभद्रकः प्रकृतिउपशान्तः प्रकृतिप्रतनु- प्रकृति से उपशान्त था, जिसकी प्रकृति में क्रोध, पगइउवसंते पगइपयणुकोहमाणमायालोभे क्रोधमानमायालोभः मृदुमार्दवसम्पन्नः आलीनः मान, माया, लोभ प्रतनु (पतले) थे, जो मृदु-मार्दव मिउमद्दवसंपने अल्लीणे विणीए। से णं विनीतः। स देवानुप्रियैः अभ्यनुज्ञातः सन् से सम्पन्न, आत्मलीन और विनीत था, उसने देवाणुप्पिएहिं अब्भणुण्णाए समाणे सयमेव स्वयमेव पंच महाव्रतानि आरुह्य, श्रमणाः च देवानुप्रिय की आज्ञा पाकर स्वयं ही पांच महाव्रतों पंच महब्वयाणि आरुहेत्ता, समणा य समणीओ य खामेत्ता, अम्हेहिं सद्धिं विपुलं श्रमणीः च क्षमयित्वा, अस्माभिः सार्धं विपुलं की आरोहणा की, श्रमण-श्रमणियों से क्षमायाचना पव्वयं सणियं-सणियं द्रहित्ता जाव पर्वतं शनैः-शनैः आरुह्य यावत् मासिक्यां की, हमारे साथ धीरे-धीरे विपुल पर्वत पर चढ़ा मासियाए संलेहणाए अत्ताणं झूसित्ता, सर्डिं संलेखनायाम् आत्मानं जोषित्वा षष्टिं भक्तानि यावत् एक मास की संलेखना से अपने आप को भत्ताइं अणसणाए छेदेता आलोइय अनशनेन छित्त्वा आलोचित-प्रतिक्रान्तः कृश बनाया, अनशन के द्वारा साठ भक्तों का पडिकंते समाहिपत्ते आणुपुबीए कालगए। समाधिप्राप्तः आनुपूर्व्या कालगतः । इमानि च छेदन किया, वह आलोचना और प्रतिक्रमण कर इमे य से आयारभंडए॥ तस्य आचारभाण्डकानि। समाधिपूर्ण दशा में क्रमशः दिवंगत हो गया। ये प्रस्तुत हैं उसके साधु-जीवन के उपकरण। भाष्य १. परिनिर्वाणहेतुक परिनिर्वाण का अर्थ है- मरण। मुनि का परिनिर्वाण होने उल्लेख नहीं है। कप्पो (बृहत्कल्प) में दिवंगत मुनि के शरीर-व्युत्सर्ग पर कायोत्सर्ग करने का विधान है।' की विधि निर्दिष्ट है।' भाष्य में इसकी विस्तृत चर्चा मिलती है।' परिनिर्वाण के समय अन्य मुनियों को हर्ष और शोक दोनों तुलना के लिए देखें, भगवती आराधना, गा.१८७६-२००० । अवस्थाओं से अतीत रहकर उदासीन भाव में रहना चाहिए। २. आचार-भाण्ड प्रस्तुत प्रकरण में कायोत्सर्ग का उल्लेख है, किन्तु स्कन्दक साध्वाचार का उपकरण। मुनि के शव का व्युत्सर्ग किस विधि से किया गया इसका कोई ७१. भंतेति ! भगवं गोयमे समणं भगवं भदन्त ! अयि ! भगवान् गौतमः श्रमणं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं भगवन्तं महावीरं वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा वयासी–एवं खलु देवाणुप्पियाणं अंते- नमस्थित्वा एवमवादीद्-एवं खलु देवानुवासी खंदए नामं अणगारे कालमासे कालं । प्रियाणाम् अन्तेवासी स्कन्दकः नाम अनगारः किचा कहिं गए ? कहिं उववण्णे ? कालमासे कालं कृत्वा कुत्र गतः ? कुत्र उपपन्नः ? गोयमाइ ! समणे भगवं महावीरे भगवं गौतम ! अयि ! श्रमणः भगवान् महावीरः गोयमं एवं वदासी-एवं खलु गोयमा ! भगवन्तं गौतमम् एवमवादीत्-एवं खलु मम अंतेवासी खंदए नामं अणगारे पगइभ- गौतम ! मम अन्तेवासी स्कन्दकः नाम अनइए पगइउवसंते पगइपयणकोहमाणमाया- गारः प्रकृतिभद्रकः प्रकृतिउपशान्तः प्रकृति- ७१. 'भन्ते !' इस सम्बोधन से संबोधित कर भगवान् गौतम श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन-नमस्कार करते हैं, वन्दन-नमस्कार कर इस प्रकार कहते हैं-देवानुप्रिय का शिष्य स्कन्दक नाम का अनगार कालमास में काल (मृत्यु) को प्राप्त कर कहां गया है ? कहां उपपन्न हुआ है? गौतम !' इस सम्बोधन से सम्बोधित कर श्रमण भगवान् महावीर भगवान् गौतम से इस प्रकार कहते हैं-'गौतम ! मेरा अन्तेवासी स्कन्दक अनगार, जो प्रकृति से भद्र और प्रकृति से उपशान्त १. भ.व.२१७-'परिणिव्वाणवत्तियंति परिनिर्वाणं--मरणं, तत्र यच्छरीरस्य परिष्ठापनं तदपि परिनिर्वाणमेव तदेव प्रत्ययो-हेतुर्यस्य स परिनिर्वाण- प्रत्ययोऽतस्तम्। २.कप्पो,४।२५। ३.७.क.भा.गा.५४६७५५६५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003593
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages458
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size12 MB
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