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________________ श.२: उ.१: सू.७१-७३ भगवई २५१ लोभे मिउमद्दवसंपण्णे अल्लीणे विणीए, से प्रतनुक्रोधमानमायालोभः मृदुमार्दवसम्पन्नः णं मए अन्भणुण्णाए समाणे सयमेव पंच आलीनः विनीतः, सः मया अभ्यनुज्ञातः सन् महब्बयाई आरुहेत्ता जाव मासियाए स्वयमेव पंच महाव्रतानि आरुह्य यावन् संलेहणाए अत्ताणं झूसित्ता, सद्धिं भत्ताई मासिक्यां संलेखनायाम् आत्मानं जोषित्वा षष्टिं अणसणाए छेदेत्ता आलोइय-पडिक्कते भक्तानि अनशनेन छित्त्वा आलोचित-प्रति- समाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा अचुए क्रान्तः समाधिप्राप्तः कालमासे कालं कृत्वा कप्पे देवत्ताए उववण्णे॥ अच्युते कल्पे देवत्वेन उपपन्नः। था, जिसकी प्रकृति में क्रोध-मान-माया-लोभ प्रतनु थे, जो मृदु-मार्दव से सम्पन्न, आत्मलीन और विनीत था, उसने मेरी आज्ञा पाकर स्वयं ही पांच महाव्रतों की आरोहणा की यावत् एक महीने की संलेखना से अपने आप को कृश बनाया, अनशन के द्वारा साठ भक्तों का छेदन किया । वह आलोचना और प्रतिक्रमण कर, समाधिपूर्ण दशा में कालमास में काल को प्राप्त कर अच्युत कल्प में देवरूप में उपपन्न हुआ है। ७२. तत्थ णं अत्येगइयाणं देवाणं बाबीसं सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता। तत्थ णं खंदयस्स वि देवस्स बावीसं सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता॥ तत्र अस्त्येककानां देवानां द्वाविंशति ७२. वहां कुछ देवों की स्थिति बाईस सागरोपम की सागरोपमानि स्थितिः प्रज्ञप्ता। तत्र स्कन्दक- प्रज्ञप्त है। वहां स्कन्दक देव की स्थिति भी बाईस स्यापि देवस्य द्वाविंशतिं सागरोपमानि स्थितिः सागरोपम है। प्रज्ञप्ता। ७३. से णं भंते ! खंदए देवे ताओ देवलोयाओ सः भदन्त ! स्कन्दकः देवः तस्माद् देवलोकाद् ७३. भन्ते ! वह स्कन्दक देव आयु-क्षय, भव-क्षय आउक्खएणं भवक्खएणं ठिइक्खएणं आयुःक्षयेण भवक्षयेण स्थितिक्षयेण अनन्तरं और स्थिति-क्षय' के अनन्तर उस देवलोक से अणंतरं चयं चइत्ता कहिं गच्छिहिति ? कहिं च्यवं च्युत्वा कुत्र गमिष्यति ? कुत्र उप- च्यवन कर कहां जाएगा? कहां उपपन्न होगा? उववजिहिति? पत्स्यते? गोयमा ! महाविदेहे वासे सिज्झिहिति गौतम ! महाविदेहे वर्षे सेत्स्यति, 'बुज्झिहिति' गौतम ! वह महाविदेह क्षेत्र में सिद्ध, प्रशान्त, बज्झिहिति मुचिहिति परिणिवाहिति मोक्ष्यति परिनिर्वास्यति सर्वदुःखानाम् अन्तं मुक्त और परिनिर्वृत होगा, सब दुःखों का अन्त सबदुक्खाणं अंतं करेहिति ॥ करिष्यति । करेगा। भाष्य १. आयु-क्षय, भव-क्षय और स्थिति-क्षय ठाणं में आयबन्ध के छह प्रकार बतलाए गए हैं-जाति. गति, स्थिति, अवगाहना, प्रदेश और अनुभाग।' आयुष्य के प्रदेश (परमाणु-स्कन्ध) क्षीण हो जाते हैं, उस अवस्था का नाम आयुक्षय है। ठाणं की भाषा में इसे 'प्रदेश-आयु का क्षय' कहा जा सकता इनका बन्ध होता है और आयुष्य के प्रदेशों की समाप्ति के साथ ये सब समाप्त हो जाते हैं।' २. च्यवन कर वृत्तिकार ने चय शब्द का अर्थ शरीर किया है। उसका वैकल्पिक अर्थ च्यवन किया है। चइत्ता का मूल अर्थ त्याग कर और वैकल्पिक अर्थ 'च्यव कर' किया है।' 'भवक्षय' का अर्थ है किसी एक गति या जाति के अनुबन्ध की समाप्ति। 'भव' शब्द में गति और जाति दोनों का समावेश किया जा सकता है। "स्थिति' का अर्थ है काल-मर्यादा। आयुष्य के बन्ध के साथ १. ठाणं,६।११६। २. भ.वृ.२ १७३---'आउक्खएणं'ति आयुष्ककर्मदलिकनिर्जरणेन, 'भवक्खएणं' ति देवभवनिबन्धनभूतकर्मणां गत्यादीनां निर्जरणेन 'ठितिक्खएणं'ति आयुष्ककर्मणः स्थितेर्वेदनेन । ३. वही, २/७३--'चयन्ति शरीरं 'चइत्त'त्ति त्यक्त्वा , अथवा 'चयं' ति व्यवं –च्यवनं 'चइत्त'त्ति च्युत्वा कृत्वा । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003593
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages458
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size12 MB
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