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________________ श.१: उ.४ः सू.२००-२१० १०४ भगवई संयम-इन्द्रियमनोनिग्रह अथवा सतरह प्रकार का संयम ।' मन के माध्यम से होते हैं। इसलिए उन्हें परोक्ष ज्ञान, सहायसापेक्ष ज्ञान, संवर-इन्द्रिय और कषाय का निरोध ।' अविशदज्ञान और व्यवहित ज्ञान कहा जाता है। अवधि, मनःपर्यव और केवल ये तीनों प्रत्यक्ष ज्ञान हैं। ये सहायनिरपेक्ष होते हैं। इसलिए ब्रह्मचर्यवास-इसका एक अर्थ है गुरुकुलवास अथवा प्रव्रजित इन्हें विशद, अव्यवहित और आत्मसमुत्थ कहा जाता है। ठाणं में जीवन में रहना। ठाणं में मुनि-प्रव्रज्या के पश्चात् ब्रह्मचर्यवास का उल्लेख अवधिज्ञानी, मनःपर्यवज्ञानी और केवलज्ञानी इन तीनों को जिन, केवली मिलता है। इससे इसका अर्थ मुनि-जीवन की साधना फलित होता है।" और अर्हत् बतलाया गया है। ये तीनों ही उत्पन्नज्ञानदर्शनधर होते दस प्रकार के यतिधर्म में भी ब्रह्मचर्यवास का उल्लेख है। इसका अर्थ हैं, किन्तु यहां 'केवली' 'छद्मस्थ' का प्रतिपक्ष है तथा अवधिज्ञानी का 'कामभोगविरति, कामोद्दीपक वस्तुओं तथा दृश्यों का वर्जन और गुरु छमस्थ की भांति वर्णन भी किया गया है; इसलिए केवलज्ञानी ही की आज्ञा का पालन' किया गया है।' विवक्षित है। प्रवचनमाता-पांच समितियां और तीन गुप्तियां, इन्हें प्रवचनमाता आपोवधिक दैशिक अवधिज्ञानी, परिमित क्षेत्र-विषयक कहा जाता है। अवधिज्ञान-सम्पन्न ।" अन्तकर-जन्म-मरण की परम्परा का अन्त करने वाला। परमापोवधिक उत्कृष्ट अवधिज्ञानी. सर्व रूपी द्रव्यों को जानने अंतिमशरीरी जिस शरीर से जीव मुक्त होता है अथवा जिसके । वाला अवधिज्ञानी।" पश्चात् अन्य शरीर का निर्माण नहीं होता, उस शरीर को अंतिम शरीर' ___ अलमस्तु-जो ज्ञान की परमकोटि तक पहुंच चुका है, जिसके और उस शरीरधारी को 'अन्तिमशरीरी' कहा जाता है।' लिए कोई ज्ञान पाना शेष न हो, उसे अलमस्तु कहा जाता है। प्रस्तुत उत्पन्नज्ञानदर्शनघर–'उत्पन्न' का अर्थ 'आत्मसमुत्थ है । मतिज्ञान आलापक भ.५।११५ तथा ७।१५६,१५७ में भी उपलब्ध है। और श्रुतज्ञान का सम्बन्ध सीधा आत्मा से नहीं होता, वे इन्द्रिय और २१०. सेवं मंते ! सेवं भंते ! तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! २१०.भन्ते! वह ऐसा ही है, भन्ते! वह ऐसा ही है। १. सम.१७/२। २. ठाणं,५११३७,६१५८1११% १०1१०। ३. (क) सूय.१११४११___ गंथं विहाय इह सिक्खमाणो उहाय सुबंभचेर बसेज्जा । (ख) सूय.२।१।५४ एतेसिं चेव णिस्साए बंभचेरवासं वसिस्सामो। ४. ठाणं,२।४३, ४४। ५. द्रष्टव्य, ठाणं,१०1१६ का टिप्पण; त.रा.वा.६/६,पृ.६००। ६. उत्तर.अ.२४। ७. भ.वृ.१।२०१–'अन्तकरे'ति भवान्तकारिणः । १. वही,१।२०१–'अंतिमसरीरिया वत्ति अन्तिमं शरीरं येषामस्ति तेऽन्तिम शरीरिकाः चरमदेहा इत्यर्थः। ६. आव.चू.पृ.२२१-पच्चक्खनाणाणि आयसमुत्थाणि पसत्थेहिं अज्झवसाणेहि लेस्साहिं विसुज्झमाणाहिं उप्पजन्ति। १०. ठाणं,३।१२५१४। ११. भ.बृ.१।२०४-तत्राधः-परमावधेरधस्ताद् योऽवधिः सोऽधोऽवधिस्तेन यो व्यवहरत्यसी आधोऽवधिकः परिमितक्षेत्रविषयावधिकः । १२. वही,१।२०४परम आधोऽवधिकाद् यः स परमाधोऽवधिकः, प्राकृतत्वाम्च व्यत्ययनिर्देशः । 'परमोहिओ'त्ति क्वचित्पाठो व्यक्तश्च । स च समस्तरूपिद्रव्यासंख्यातलोकमात्रा लोकखण्डासंख्यातावसर्पिणीविषयावधिज्ञानः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003593
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages458
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size12 MB
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