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________________ भगवई १०३ श.१: उ.४: सू.२००-२०६ बुझंति ? मुचंति ? परिनिव्वायंति ? सव्व- मुञ्चन्ति ? परिनिर्वान्ति ? सर्वदुःखानाम् परिनिर्वृत होते हैं ? उन्होंने सब दुःखों का अन्त दुक्खाणं अंतं करेंसु वा, करेंति वा, करि- अन्तम् अकार्षुः वा ? कुर्वन्ति वा ? करि- किया था, करते हैं अथवा करेंगे? स्संति वा ? ष्यन्ति वा? हंता गोयमा ! तीतं अणंतं सासयं समयं, हन्त गौतम ! अतीतम् अनन्तं शाश्वतं समयं, हां, गौतम ! इस अनन्त अतीत शाश्वत काल में, पडुप्पण्णं वा सासयं समयं, अणागयं अणंतं प्रत्युत्पन्न वा शाश्वतं समयं, अनागतम् अनन्तं वर्तमान शाश्वत काल में और अनन्त अनागत वा सासयं समयं जे केइ अंतकरा वा वा शाश्वतं समयं ये केचिद् अन्तकराः वा शाश्वत काल में जो भी अन्तकर अथवा अन्तिमअंतिमसरीरिया वा सब्बदुक्खाणं अंतं करेंसु अन्तिमशरीरिकाः वा सर्वदुःखानाम् अन्तम् शरीरी हैं, जिन्होंने सब दुःखों का अन्त किया वा, करेंति वा, करिस्संति वा, सब्बे ते अकार्षः वा, कुर्वन्ति वा, करिष्यन्ति वा, सर्वे था, करते हैं अथवा करेंगे, वे सब उत्पन्नज्ञानउप्पण्णणाणदंसणधरा अरहा जिणा केवली ते उत्पन्नज्ञानदर्शनधराः अर्हाः जिनाः केव- दर्शन के धारक अर्हत्, जिन और केवली होकर भवित्ता तओ पच्छा सिझंति, बुझंति, लिनः भूत्वा ततः पश्चात् सिध्यन्ति, 'बुज्झंति', उसके पश्चात् सिद्ध, प्रशान्त, मुक्त, परिनिर्वृत होते मुचंति, परिनिव्वायंति, सबदुक्खाणं अंतं मुञ्चन्ति, परिनिर्वान्ति, सर्वदुःखानाम् अन्तम् । हैं, उन्होंने सब दुःखों का अन्त किया था, करते करेंसु वा, करेंति वा, करिस्संति वा ॥ अकार्षः वा, कुर्वन्ति वा, करिष्यन्ति वा। हैं अथवा करेंगे। २०६. से नूणं भंते ! उप्पण्णणाणदंसणधरे अरहा जिणे केवली, अलमत्यु त्ति क्त्तव्यं सिया? हंता गोयमा ! उप्पण्णणाणसणघरे अरहा जिणे केवली, अलमत्थुत्ति वत्तव्वं सिया ॥ अथ नूनं ! भदन्त ! उत्पत्रज्ञानदर्शनधराः २०६. भन्ते ! उत्पन्नज्ञानदर्शन के धारक अर्हत्, अर्हाः जिनाः केवलिनः, अलमस्तु इति वक्तव्यं जिन और केवली को 'अलमस्तु' ऐसा कहा जा स्यात् ? सकता है ? हन्त गौतम ! उत्पन्नज्ञानदर्शनधराः अर्हाः हां, गौतम ! उत्पन्नज्ञानदर्शन के धारक अर्हत्, जिनाः केवलिनः, अलमस्तु इति वक्तव्यं जिन और केवली को 'अलमस्तु' ऐसा कहा जा स्यात्। सकता है। भाष्य १. सूत्र २००-२०६ प्रस्तुत आलापक में मुक्त होने की अर्हता पर विचार किया गया है। मनुष्य दो प्रकार के होते हैं-छद्मस्थ और केवली। जिसके ज्ञान का आवरण विद्यमान रहता है, वह छद्मस्थ है और जिसके ज्ञान का आवरण क्षीण हो जाता है, वह केवली है। छद्मस्थ मुक्त नहीं हो सकता, केवली ही मुक्त हो सकता है—यह भगवान् महावीर का सिद्धान्त है। सांख्य दर्शन' और बौद्ध दर्शन में मुक्त होने के लिए ज्ञान की अर्हता का नियम नहीं है। जिसके क्लेश या आसव क्षीण हो जाते हैं, वह केवली हुए बिना भी मुक्त हो सकता है। इस दार्शनिक अवधारणा के सन्दर्भ में गौतम ने प्रश्न पूछा और महावीर ने उसका उत्तर दिया। भगवान् महावीर के अनुसार आस्रव या क्लेश के क्षीण हो जाने पर व्यक्ति वीतराग हो सकता है, मुक्त नहीं हो सकता। संयम, संवर, ब्रह्मचर्यवास और प्रवचन-माता की आराधना ये मुक्त होने के परम्पर कारण हैं, किन्तु कोई भी जीव केवली हुए बिना मुक्त नहीं हो सकता। सामान्य ज्ञानी की बात ही क्या, परम अवधिज्ञान वाला व्यक्ति भी मुक्त नहीं हो सकता। शब्द-विमर्श केवल-वृत्तिकार ने यहां 'केवल' शब्द के चार अर्थों की सम्भावना की है-असहाय, शुद्ध, परिपूर्ण, असाधारण । 'विशेषावश्यक भाष्य में इसका पांचवां अर्थ मिलता है-अनन्त । १. (क) पा.यो.द.४ ॥३२-विज्ञानभिक्षुविरचित योगवार्त्तिकम् - इदमत्रावधे- यम्-यदेताभ्यां सूत्राभ्यां ज्ञानस्यानन्यात् सार्वझ्याख्यान् मोक्ष उच्यत इदं मुख्यकल्पाभिप्रायेणोक्तम्, वैराग्यादेव सुखेन मोक्षसिद्धेः, न तु सार्वझ्यादिकं विना मोक्षो न भवतीत्याशयेन, यतः सत्वपुरुषयोः शुद्धिसाम्ये कैवल्यमिति सूत्रे भाष्यकृता-ईश्वरस्यानीश्वरस्य प्राप्तविवेकज्ञानस्येतरस्य वेत्यनेनासर्वज्ञस्याप्यभिमाननिवृत्तिमात्रादेव मोक्ष उक्त इति। संसारबीजं ह्यनात्मन्यात्म- रूपाऽविद्या, रागद्वेषधर्माधर्मतद्विपाकादिहेतुत्वात्, सा चेद्विवेकख्यात्या नाशिता तर्हि तत एव संसारोच्छेदे सार्वइयाद्यपेक्षा नास्तीति । (ख) सूत्र.चू.प.२६-तच्चण्णियाणं उवासगा वि सिझंति, आरोप्यगा वि अणागमणधम्मिणो य देवा ततो चेव णिव्वंति। सांख्यानामपि गृहस्थाः अप- वर्गमाप्नुवन्ति। २. अभिधर्मकोश, प्रथम कोशस्थान १ का वसुबन्धुकृत स्वोपज्ञभाष्य, पृ.१ अज्ञानं हि भूतार्थदर्शनप्रतिबन्धादन्धकारम् । तच्च भगवतो बुद्धस्य प्रतिपक्षलाभेनात्यन्तं सर्वथा सर्वत्र ज्ञेये पुनरनुत्पत्तिधर्मत्वाद्धतम् । अतोऽसौ सर्वथा सर्वहतान्धकारः। प्रत्येकबुद्धश्रावका अपि कामं सर्वत्र हतान्धकाराः। क्लिष्टसम्मोहात्यन्तविगमात् । न तु सर्वथा। तथा ह्येषां बुद्धधर्मेष्वतिविप्रकृष्ट देशकालेषु अर्थेषु चानन्तप्रभेदेषु च भवत्येवक्लिष्टमज्ञानम् । ३. भ.वृ.१।२००–'केवलेणं' ति असहायेन शुद्धेन वा परिपूर्णेन वाऽसाधारणेन वा। ४. वि.भा.ज्ञानपंचकम्,गा.८४(भा.१,पृ.२२)- केवलमेगं सुद्धं सगलमसाहारणं अणंतं च । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003593
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages458
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size12 MB
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