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________________ श.१: उ.४: सू.२०२-२०८ १०२ भगवई २०२. पड़प्पण्णे वि एवं चेव, नवरं-सिझं- ति भाणियब्वं ॥ प्रत्युत्पन्नेऽपि एवं चैव, नवरं-सिध्यति २०२. वर्तमान काल में भी इसी प्रकार ज्ञातव्य है। भणितव्यम्। केवल सिद्ध होता है-यह वर्तमानकालीन क्रिया-पद वक्तव्य है। २०३. अणागए वि एवं चेव, नवरंसिज्झिस्संति भाणियत्वं ॥ अनागतेपि एवं चैव, नवरं-सेत्स्यति २०३. भविष्यकाल में भी इसी प्रकार ज्ञातव्य है । भणितव्यम्। केवल सिद्ध होगा—यह भविष्यकालीन क्रिया-पद वक्तव्य है। २०४. जहा छउमत्थो तहा आहोहिओ वि, यथा छद्मस्थः तथा आधोऽवधिकः अपि, २०४. छद्मस्थ मनुष्य की भांति आधोवधिक (देशातहा परमाहोहिओ वि। तिण्णि तिण्णि तथा परमाधोवधिकोऽपि । त्रयस्त्रयः आला- वधि-युक्त) और परमाधोवधिक (सर्व-अवधिआलावगा भाणियव्वा ॥ पकाः भणितव्याः। -युक्त) के भी तीन-तीन आलापक वक्तव्य हैं। २०५. केवली णं भंते ! मणसे तीतं अणंतं केवली भदन्त ! मनुष्यः अतीतम् अनन्तं २०५. भन्ते ! क्या केवली मनुष्य इस अनन्त अतीत सासयं समयं सिझिंसु ? बुजिंसु ? मुचिं- शाश्वतं समयम् असिधत् ? 'बुझिंसु' ? शाश्वत काल में सिद्ध, प्रशान्त, मुक्त, परिनिर्वृत सु? परिनिव्वाइंसु ? सब्बदुक्खाणं अंतं अमुचत् ? परिनिरवासीत् ? सर्वदुःखानाम् हुआ था, उसने सब दुःखों का अन्त किया था? करिंसु? अन्तम् अकार्षीत् ? हंता गोयमा ! केवली णं मणूसे तीतं अणंतं हन्त गौतम ! केवली मनुष्यः अतीतम् अनन्तं हां, गौतम ! केवली मनुष्य अनन्त अतीत शाश्वत सासयं समयं सिज्झिंसु, बुझिंसु, मुचिंसु, शाश्वतं समयम् असिधत्, 'बुझिंसु' अमुचत्, काल में सिद्ध, प्रशान्त, मुक्त, परिनिर्वृत हुआ था, परिनिव्वाइंसु, सबदुक्खाणं अंतं करिसु॥ परिनिरवासीत्, सर्वदुःखानाम् अन्तम् अका- उसने सब दुःखों का अन्त किया था। र्षीत्। २०६. केवली णं भंते ! मणूसे पडुप्पण्णं केवली भदन्त ! मनुष्यः प्रत्युत्पन्नं शाश्वतं २०६. भन्ते ! क्या केवली मनुष्य वर्तमान शाश्वत सासयं समयं सिझंति ? बुझंति ? मुचं- समयं सिध्यति ? 'बुझंति' ? मुञ्चति ? काल में सिद्ध, प्रशान्त, मुक्त, परिनिर्वृत होता है, ति ? परिनिव्वायंति ? सब्बदुक्खाणं अंतं परिनिर्वाति ? सर्व दुःखानाम् अन्तं करोति? सब दुःखों का अन्त करता है ? करेंति ? हंता गोयमा ! केवली णं मणूसे पडुप्पण्णं हन्त गौतम ! केवली मनुष्यः प्रत्युत्पन्नं शाश्वतं सासयं समयं सिझंति, बुझंति, मुचंति, समयं सिध्यति, 'बुझंति', मुञ्चति, परि- परिनिव्वायंति, सबदुक्खाणं अंतं करेति ॥ निर्वाति, सर्वदुःखानाम् अन्तं करोति। हां, गौतम ! केवली मनुष्य वर्तमान शाश्वत काल में सिद्ध, प्रशान्त, मुक्त, परिनिर्वृत होता है, सब दुःखों का अन्त करता है। २०७. केवली णं भंते ! मणूसे अणागयं केवली भदन्त ! मनुष्यः अनागतम् अनन्तं २०७. भन्ते ! क्या केवली मनुष्य अनन्त अनागत अणंतं सासयं समयं सिज्झिस्संति ? बुज्झि- शाश्वतं समयं सेत्स्यति ? 'बुझिस्संति' ? शाश्वत काल में सिद्ध, प्रशान्त, मुक्त, परिनिर्वृत स्सति? मुचिस्सति ? परिनिव्वाइस्संति? मोक्ष्यति ? परिनिर्वास्यति ? सर्वदुःखानाम् होगा, सब दुःखों का अन्त करेगा ! सबदुक्खाणं अंतं करिस्संति ? अन्तं करिष्यति ? हंता गोयमा ! केवली णं मणूसे अणागयं हन्त गौतम ! केवली मनुष्यः अनागतम् हां, गौतम ! केवली मनुष्य अनन्त अनागत अणंतं सासयं समयं सिज्झिस्संति, अनन्तं शाश्वतं समयं सेत्स्यति, 'बुज्झिस्संति', शाश्वत काल में सिद्ध, प्रशान्त, मुक्त, परिनिर्वृत बुझिस्संति, मुचिस्संति, परिनिव्वाइस्संति, मोक्ष्यति, परिनिर्वास्यति, सर्वदुःखानाम् अन्तं होगा, सब दुःखों का अन्त करेगा। सबदुक्खाणं अंतं करिस्संति ॥ करिष्यति । २०८. से नूणं भंते ! तीतं अणंतं सासयं अथ नूनं भदन्त ! अतीतम् अनन्तं शाश्वतं २०८. भन्ते ! इस अनन्त अतीत शाश्वत काल में, समयं, पडुप्पण्णं वा सासयं समयं, अणागयं समय, प्रत्युत्पन्नं वा शाश्वतं समय, अनागतम् वर्तमान शाश्वत काल में और अनन्त अनागत अणंतं वा सासयं समयं जे केइ अंतकरा अनन्तं वा शाश्वतं समयं ये केचिद् अन्तकराः शाश्वत काल में जो भी अन्तकर अथवा अन्तिमवा अंतिमसरीरिया वा सबदुक्खाणं अंतं वा अन्तिमशरीरिकाः वा सर्वदुःखानाम् अन्तम् शरीरी हैं, जिन्होंने सब दुःखों का अन्त किया करेंसु वा, करेंति वा, करिस्संति वा, सब्वे अकार्षः वा, कुर्वन्ति वा, करिष्यन्ति वा, सर्वे था, करते हैं अथवा करेंगे, क्या वे सब ते उप्पण्णणाणदंसणधरा अरहा जिणा ते उत्पन्नज्ञानदर्शनधराः अर्हाः जिनाः केवलि- उत्पन्नज्ञानदर्शन के धारक अर्हत्, जिन और केवली भक्त्तिा तओ पच्छा सिझंति ? नः भूत्वा ततः पश्चात् सिध्यन्ति? 'बुझंति'? केवली होकर उसके पश्चात् सिद्ध, प्रशान्त, मुक्त, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003593
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages458
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size12 MB
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