SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 144
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १०१ सत् पाक है और 'धौव्य' यह वाक्यांश II ने पञ्चास्तिकाय तथा भगवई सत् या सत्य है।' इस सूत्र में उत्पाद और व्यय' यह वाक्यांश सापेक्ष सत्य का प्रतिपादक है और 'ध्रौव्य' यह वाक्यांश निरपेक्ष सत्य का। अस्तिकाय के प्रकरण में पांच अस्तिकायों की त्रैकालिकता का प्रतिपादन किया गया है। प्रस्तुत आलापक में केवल जीव और पुद्गल इन दो द्रव्यों की त्रैकालिकता का प्रतिपादन है। धर्म, अधर्म और आकाश इन तीनों द्रव्यों का अस्तित्व है, पर स्थूल सृष्टि से इनका संबन्ध नहीं है। जीव और पुद्गल इन दो द्रव्यों का सृष्टिगत परिवर्तन के साथ सीधा सम्बन्ध है। ये दोनों सृष्टि के मूल घटक माने जा सकते हैं; इसलिए इन दो का ही उल्लेख किया गया है। अनुसन्धान की दृष्टि से प्रश्न कर लिया गया हो । श.१: उ.४: सू.१६१-२०१ उपस्थित किया जा सकता है-जीव और पुद्गल इन दो द्रव्यों को मानने की कोई प्राचीन परम्परा रही हो, उसके पश्चात् भगवान् महावीर ने पञ्चास्तिकाय तथा छह द्रव्यों का प्रतिपादन किया हो। प्रस्तुत आगम में उन दोनों परम्पराओं का समावेश कर लिया गया हो । शब्द-विमर्श पुद्गल -परमाणु स्कन्ध परमाणु-समूह शाश्वत -सदा विद्यमान समय-काल मोक्ख-पदं २००. छउमत्येणं मंते ! मणूसे तीतं अणंतं सासयं समयं केवलेणं संजमेणं, केवलेणं संवरेणं, केवलेणं बंभचेरवासेणं, केवलाहिं पवयणमायाहिं सिझिंसु ? बुझिंसु ? मुचिंसु ? परिनिबाइंसु ? सव्वदुक्खाणं अतं करिंसु ? गोयमा ! णो इणद्वे समढे ॥ मोक्ष-पदम् मोक्ष-पद छदमस्थः भदन्त ! मनुष्यः अतीतम् अनन्तं २००. 'भन्ते ! क्या छद्मस्थ मनुष्य इस अनन्त शाश्वतं समयं केवलेन संयमेन, केवलेन अतीत शाश्वत काल में केवल संयम, केवल संवरेण, केवलेन ब्रह्मचर्यवासेन, केवलाभिः संवर, केवल ब्रह्मचर्यवास और केवल प्रवचनमाता प्रवचनमातृभिः असिधत् ? 'बुझिंसु' ? अमु- के द्वारा सिद्ध, प्रशान्त, मुक्त, परिनिर्वृत हुआ था, चत् ? परिनिरवासीत् ? सर्वदुःखानाम् अन्तम् उसने सब दुःखों का अन्त किया था ? अकार्षीत् ? गौतम ! नो अयमर्थः समर्थः। गौतम ! यह अर्थ संगत नहीं है। २०१. से केणटेणं भंते ! एवं बुधइ- तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-छद्मस्थः २०१. भन्ते ! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा छउमत्थे णं मणुस्से तीतं अणंतं सासयं मनुष्यः अतीतम् अनन्तं शाश्वतं समयं- है-छद्मस्थ मनुष्य अनन्त अतीत शाश्वत काल समयं केवलेणं संजमेणं, केवलेणं संव- केवलेन संयमेन, केवलेन संवरेण, केवलेन में केवल संयम, केवल संवर, केवल ब्रह्मचर्यवास रेणं, केवलेणं बंभचेरवासेणं, केवलाहिं पव- ब्रह्मचर्यवासेन, केवलाभिः प्रवचनमातृभिः नो और केवल प्रवचन-माता के द्वारा सिद्ध, प्रशान्त, यणमायाहिं नो सिज्झिंसु ? नो बुझिंसु? असिधत् ? नो 'बुझिंसु' ? नो अमुचत् ? मुक्त, परिनिर्वृत नहीं हुआ था, उसने सब दुःखों नो मुचिंसु ? नो परिनिव्वाइंस? नो सब्ब- नो परिनिरवासीत् ? नो सर्वदुःखानाम् अन्तम् का अन्त नहीं किया था ? दुक्खाणं अंतं करिसु? अकार्षीत् ? गोयमा ! जे केइ अंतकरा वा अंतिम- गौतम ! ये केचिद् अन्तकराः वा अन्तिम- गौतम ! जो भी अन्तकर अथवा अन्तिमशरीरी सरीरिया वा-सव्वदुक्खाणं अंतं करेंसुवा, शरीरिकाः वा–सर्वदुःखानाम् अन्तम् अका- हैं, जिन्होंने सब दुःखों का अन्त किया था, करते करेंति वा, करिस्संति वा-सवे ते उप्प- र्षुः वा, कुर्वन्ति वा, करिष्यन्ति वा सर्वे ते हैं और करेंगे वे सब उत्पन्नज्ञानदर्शनधर अर्हत्, ण्णणाणदसणधरा अरहा जिणा केवली उत्पत्रज्ञानदर्शनधराः अर्हाः जिनाः केवलिनः जिन और केवली होकर उसके पश्चात् सिद्ध, भवित्ता तओ पच्छा सिझंति, बुझंति, भूत्वा, ततः पश्चात् सिध्यन्ति, 'बुझंति', प्रशान्त, मुक्त, परिनिवृत्त हुए, उन्होंने सब दुःखों मुचंति, परिनिव्वायंति, सब्बदुक्खाणं अंतं मुञ्चन्ति, परिनिर्वान्ति, सर्वदुःखानाम् अन्तम् का अन्त किया, करते हैं और करेंगे। गौतम ! करेंसु वा, करेंति वा, करिस्संति वा। से अकार्षुः वा, कुर्वन्ति वा, करिष्यन्ति वा। इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है-छद्मस्थ तेणद्वेणं गोयमा ! एवं युचइ-छउमत्थे णं तत् तेनार्थेन गौतम ! एवमुच्यते-छद्मस्थः मनुष्य अनन्त अतीत शाश्वत काल में केवल मणुस्से तीतं अणं सासयं समयं- मनुष्यः अतीतम् अनन्तं शाश्वतं समय- संयम, केवल संवर, केवल ब्रह्मचर्यवास, केवल केवलेणं संजमेणं, केवलेणं संवरेणं, केवलेणं केवलेन संयमेन, केवलेन संवरेण, केवलेन प्रवचन-माता के द्वारा सिद्ध, प्रशान्त, मुक्त, बंभचेरवासेणं, केवलाहिं पवयणमायाहि नो ब्रह्मचर्यवासेन, केवलाभिः प्रवचनमातृभिः नो परिनिर्वत नहीं हुए थे,उन्होंने सब दुःखों का अंत सिझिंसु, नो बुझिंसु, नो मुचिंसु, नो असिधत्, नो 'बुझिंसु', नो अमुचत्, नो परि- नहीं किया था। परिनिव्वाइंसु, नो सबदुक्खाणं अंतं करि- निरवासीत्, नो सर्वदुःखानाम् अन्तम् अका सु॥ र्षीत् । ३. भ.वृ.११६१-परमाणुरुत्तरत्रस्कन्धग्रहणात् । १. त.सू.५.३०-उत्पादव्ययध्रौव्यात्मकं सत् । २. भ.२/१२४-१२) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003593
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages458
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy