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भगवई
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श.२: उ.१: सू.२५-२७ बारहवें शतक (सूत्र ३०) में 'बेसालियसावयाणं अरहंताणं' पाठ मिलता प्रकरण में वैशालिकश्रावक निर्ग्रन्थ का विशेषण है और वहां है। वृत्तिकार के अनुसार वह भी मुनि का विशेषण है।' प्रस्तुत 'वैशालिकश्रावक' आहेत का विशेषण है । २६. तए णं से पिंगलए नामं नियंठे ततः सः पिंगलकः नाम निर्ग्रन्थः वैशालिक- २६. 'वह वैशालिकश्रावक पिंगल नाम का निर्ग्रन्थ
वेसालियसावए अण्णया कयाइ जेणेव श्रावकः अन्यदा कदाचिद् यत्रैव स्कन्दकः किसी दिन जहां कात्यायनसगोत्र स्कन्दक है, वहां खंदए कचायणसगोत्ते तेणेव उवागच्छइ, कात्यायनसगोत्रः तत्रैव उपागच्छति, उपागम्य ___आता है, आकर कात्यायनसगोत्र स्कन्दक से यह उवागच्छित्ता खंदगं कचायणसगोत्तं स्कन्दकं कात्यायनसगोत्रम् इममाक्षेपं प्रश्न पूछता है—मागध ! इणमक्खेवं पुच्छे-मागहा!
पृच्छति-मागध ! १. किं सअंते लोए? अणंते लोए? २.स- १. किं सान्तः लोकः ? अनन्तः लोकः ? १. क्या लोक सान्त है अथवा अनन्त है ? २.जीव अंते जीवे? अणंते जीवे? ३. सअंता २. सान्तः जीवः ? अनन्तः जीवः ? सान्त है अथवा अनन्त है ? ३. सिद्धि सान्त है सिद्धी? अणंता सिद्धी? ४. सअंते सिद्धे? ३. सान्ता सिद्धिः? अनन्ता सिद्धिः? अथवा अनन्त है ? ४. सिद्ध सान्त है अथवा अणंते सिद्धे? ५. केण वा मरणेणं मरमाणे ४. सान्तः सिद्धः ? अनन्तः सिद्धः? ५.केन अनन्त है ? ५. किस मरण से मरता हुआ जीव जीवे बढति वा, हायति वा?–एता- वा मरणेन नियमाणः जीवः वर्धते वा, हीयते बढ़ता है अथवा घटता है ? इस प्रकार मेरे वताव आइक्खाहि बुचमाणे एवं॥ वा?–एतावत् तावद् आख्याहि उच्यमानः द्वारा पूछे गए इतने प्रश्नों का तुम उत्तर दो।
एवम्।
२७. तए णं से खंदए कचायणसगोते ततः स स्कन्दकः कात्यायनसगोत्रः पिंगलकेन २७. वैशालिकश्रावक पिंगल निर्ग्रन्थ के द्वारा ये पिंगलएणं नियंठेणं वेसालियसावएणं निर्ग्रन्थेन वैशालिकश्रावकेण इममाक्षेपं पृष्टः प्रश्न पूछे जाने पर कात्यायनसगोत्र स्कन्दक इणमक्खेवं पुच्छिए समाणे संकिए कंखिए सन् शङ्कितः काङ्क्षितः विचिकित्सितः शंकित, कांक्षित, विचिकित्सित, भेदसमापन्न और वितिगिच्छिए भेदसमावन्ने कलुससमावन्ने भेदसमापन्नः कलुषसमापनः नो संशक्नोति कलुषसमापन हो जाता है। वह वैशालिकश्रावक णो संचाएइ पिंगलयस्स नियंठस्स पिंगलस्य निर्ग्रन्थस्य वैशालिकश्रावकस्य पिंगल निर्ग्रन्थ को कुछ भी उत्तर देने में अपने वेसालियसावयस्स किचि वि पमक्खि- किंचिदपि प्रमोक्षमाख्यातम तष्णीकः सन्ति- आपको समर्थ नहीं पाता है, मौन हो जाता है। मक्खाइउं, तुसिणीए संचिदुइ ॥
छते।
भाष्य १. सूत्र २६,२७ आक्षेप वृत्तिकार ने इसका अर्थ 'प्रश्न' किया है। संस्कृत
अनुसार अर्थ-परिवर्तन हुआ है। स्कन्दक पिगंल के प्रश्नों का उत्तर शब्दकोश में इसका एक अर्थ 'संदेह' भी मिलता है।' आक्षेप शब्द
देने में अपने आपको असमर्थ पाता है। उस समय उसकी जो मनोदशा क्षिपंप्रेरणे धातु से निष्पन्न हुआ है। प्रश्न करने वाला समाधान
बनी, उसका चित्रण इन पांच पदों के द्वारा किया गया है। देने वाले व्यक्ति को प्रेरित करता है। इससे प्रस्तुत अर्थ के साथ
शंकित-इसका उत्तर 'यह होगा अथवा यह होगा ?' इस इस शब्द की संगति हो जाती है।
प्रकार वह संदिग्ध हो गया । प्रमोक्ष-वृत्तिकार ने इसका अर्थ 'उत्तर' किया है।' प्रश्नकर्ता कांक्षित-'यह उत्तर ठीक होगा अथवा नहीं । इसका उत्तर स्वतंत्र होता है। उत्तरदाता उसके प्रश्न से बंधा होता है। वह उत्तर मुझे कैसे मिलेगा ?'-इस प्रकार वह उत्तर की आकांक्षा से कांक्षित देकर उस बंधन से मुक्त होता है; इसलिए इसका नाम प्रमोक्ष है।
हो गया । उत्तरज्झयणाणि में प्रश्न और उत्तर के अर्थ में आक्षेप और प्रमोक्ष का विचिकित्सित-'मैं जो उत्तर दूंगा उसे पिंगल निर्ग्रन्थ मान्य प्रयोग मिलता है। संस्कृत शब्दकोश में प्रमुच् धातु का अर्थ बोलना करेगा या नहीं ?'-वह इस विचिकित्सा से समापन्न हो गया ।
भेदसमापन–मतिभंग किकर्तव्यविमूढता से व्याकुल हो शंकित, कांक्षित, विचिकित्सित, भेदसमापन्न, कलुषसमापन-इन गया। पांचों पदों का प्रयोग प्रथम शतक में दो बार हुआ है। सूत्र १३०
कलुषसमापन–'मैं इस विषय में कुछ नहीं जानता' इस में इस पर भाष्य भी लिखा गया है। संदर्भ के साथ शब्दों के अर्थ
प्रकार की निराशा से भर गया। बदल जाते हैं । प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त इन शब्दों का संदर्भ के १. भ.वृ.११३०वैशालिको भगवान् महावीरस्तस्य वचनं शण्वन्ति श्रावयन्ति ६. आप्टे. प्रमु-Toulter. वा तद्रसिकत्वादिति वैशालिकश्रावकास्तेषां आर्हतानां अर्हद्दवतानां साधू
७. भ.१।१३०, १७०।
८.भ.वृ.२१२७–'संकिए' इत्यादि किमिदमिहोत्तरमिदं वा ? इति संजातशङ्कः । नामिति गम्यम्।
इदमिहोत्तरं साधु इदं च न साधु अतः कथमत्रोत्तरं लप्स्ये ? इत्युत्तरलाभा२. भ.वृ.२।२६-'आक्षेपं' प्रश्नं 'पुच्छे' त्ति पृष्टवान् ।
काङ्क्षावान् काक्षितः । अस्मिन्नुत्तरे दत्ते किमस्य प्रतीतिरुत्पत्स्यते न वा ? ३. आप्रे.-आक्षेप-An objection or doubt.
इत्येवं विविकित्सितः। 'भेदसमावन्ने' मतेभंग-किंकर्तव्यताव्याकुलता४. भ.वृ.२१२७--प्रमुच्यते पर्यनुयोगबंधनादनेनेति प्रमोक्षम्-उत्तरम् ।
लक्षणमापनः । 'कलुषसमापन्नः' नाहमिह किञ्चिन्जानामीत्येवं स्वविषयं कालुष्यं ५. उत्तर.२५।१३।
समापन इति।
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