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श. २: उ.१: सू.२४,२५
आत्मा के असंख्य प्रदेश होते हैं और वह लोकाकाश के असंख्य प्रदेशों का अवगाहन कर रहती हैं। सिद्ध की आत्मा अमूर्त होने के कारण स्थान नहीं रोकती; इसलिए जिस स्थान में एक आत्मा के प्रदेश हैं, उस स्थान में अनन्त सिद्ध आत्माओं के प्रदेश भी हैं। इस प्रकार वे अन्योन्य समवगाढ होते हैं ।' उत्तरज्झयणाणि और ओवाइयं में सिद्ध की अवगाहना पूर्वशरीर की अपेक्षा से निर्दिष्ट है। काल की अपेक्षा से सिद्ध को सादि और अपर्यवसित बतलाया गया है । यह एक आत्मा की दृष्टि से प्रतिपादित है । संसारी जीव कर्मबन्ध को क्षीण कर सिद्ध बनता है; इसलिए प्रत्येक सिद्ध सादि होता है, कोई भी सिद्ध अनादि नहीं होता ।
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योगसूत्र के व्यास - भाष्य में केवली और ईश्वर में एक भेदरेखा खींची गई है। उसके अनुसार केवली पूर्व अवस्था में बद्ध और फिर मुक्त होता है । ईश्वर सदैव मुक्त होता है । '
जैन दर्शन में सदैव मुक्त आत्मा मान्य नहीं है। फिर भी अनादि सिद्ध का सिद्धान्त स्वीकृत है। पण्णवणा और जीवाजीवाभिगमे में सादि सिद्ध और अनादि सिद्ध ये दोनों मत मिलते है। उत्तरायणाणि में एक आत्मा की अपेक्षा सिद्ध जीव को सादि और अनेक आत्माओं की अपेक्षा सिद्ध जीवों को अनादि बतलाया गया।
२५. तत्थ णं सावत्थीए नयरीए पिंगलए नामं नियंठे वेसालियसावए परिवसइ ॥
१. ओव. सू. १६५, गा. ६
१. वैशालिक श्रावक
पिंगल के लिए दो विशेषण प्रयुक्त हुए हैं-निर्ग्रन्थ और वैशालिक श्रावक । आगम-साहित्य में 'निर्ग्रन्थ' शब्द मुनि के लिए और 'श्रावक' शब्द गृहस्थ उपासक के लिए प्रयुक्त होता है। यहां एक व्यक्ति के लिए निर्ग्रन्थ और श्रावक इन दोनों विशेषणों का प्रयोग एक प्रश्न उपस्थित करता है । वृत्तिकार ने ' वैशालिक श्रावक' का अर्थ ' महावीर के वचन को सुनने वाला' किया है।' वेसालिया प्रयोग उत्तरज्झयणाणि में भी मिलता है। अनुश्रुति के अनुसार राजा विशाल ने वैशाली नगरी बसाई थी ।" वैशाली राजधानी का नाम
जत्थ य एगो सिद्धो, तत्थ अणंता भवक्खयविमुक्का |
माढा, पुट्ठा सव्वे य लोगंते ॥
२. (क) उत्तर. ३६ । ६४ ।
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भगवई
है।' जो जीव काल की दृष्टि से अनन्त के आठवें भंग की अवधि में चले गए हैं, उन्हें काल की अपेक्षा से अनादि सिद्ध कहा जा सकता है। यह सादि और अनादि का विकल्प सापेक्ष है, किंतु कोई भी जीव बद्ध अवस्था में नहीं रहा, सदा मुक्त रहा, ऐसा अनादि सिद्ध सम्मत नहीं है। प्रारम्भबिंदु की दृष्टि से सिद्ध जीव के दो विकल्प किए गए हैं—सादि सिद्ध और अनादि सिद्ध । इन दोनों प्रकार के सिद्धों का कोई चरम बिंदु नहीं है; इसलिए वे सब अपर्यवसित—पर्यवसानरहित होते हैं। इस अपर्यवसान के सिद्धान्त के द्वारा भगवान् महावीर ने अवतारवाद का अस्वीकार किया है । स्वर्ग में उत्पन्न आत्मा पुण्य के क्षीण होने पर फिर जन्म लेती है। मोक्ष में गई हुई आत्मा का पुनर्जन्म नहीं होता । यह जैन दर्शन का ध्रुव सिद्धान्त है। मुक्त आत्मा के अतिरिक्त किसी भी ईश्वरीय आत्मा का अस्तित्व नहीं है; इसलिए 'संभवामि युगे युगे' जैसा स्वर जैन दर्शन में उच्चरित नहीं है। गोम्मटसार के अनुसार आजीवक मत में मुक्तजीवों का पुनः अवतार लेना सम्मत है। मल्लिषेणसूरि ने भी इस अभिमत का उल्लेख किया है— “ तथा चाहुराजीविकनयानुसारिणः
४. (क) पण्ण. १८७ १।१३ |
(ख) जीवा. ६ | १०; १ | ६ |
(ख) ओवा. सू. १६५, गा. ३-८ ।
३. पा.यो. द. भाष्य, १ ।२४- - - - कैवल्यं प्राप्तास्तर्हि सन्ति च बहवः केवलिनः, ते हि त्रीणि बन्धनानि छित्त्वा कैवल्यं प्राप्ताः, ईश्वरस्य च तत्सम्बन्धो न भूतो न भावी । यथा मुक्तस्य पूर्वा बन्धकोटिः प्रज्ञायते नैवमीश्वरस्य, यथा वा प्रकृतिलीनस्य उत्तरा बंधकोटिः संभाव्यते नैवमीश्वरस्य । स तु सदैव मुक्तः सदैवेश्वर इति ।
५. उत्तर. ३६ । ६५ ।
६. गो. सा. ३८,६६—
अविकम्मवियला सीदीभूदा णिरंजणा णिच्चा
तत्र श्रावस्त्यां नगर्यां पिंगलकः नाम निर्ग्रन्थः २५. उस श्रावस्ती नगरी में वैशालिक श्रावक पिंगल वैशालिक श्रावकः परिवसति । नाम का निर्ग्रन्थ रहता था ।
भाष्य
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"ज्ञानिनो धर्मतीर्थस्य कर्त्तारः परमं पदम् ।
गत्वा गच्छन्ति भूयोऽपि भवं तीर्थनिकारतः ।। " ७
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भी था और उस जनपद को भी वैशाली कहा जाता था । उस जनपद के नागरिक वैशालिक कहलाते थे ।” इसलिए यह विशेषण भगवान् पार्श्व और महावीर दोनों का हो सकता है। 'श्रावक' शब्द संज्ञावाची और गुणवाची दोनों है । श्रमण संघ के चार अंग हैंश्रमण, श्रमणी श्रावक और श्राविका ।" यहां श्रावक शब्द संज्ञावाची है । इसका अर्थ है श्रमणोपासक — श्रमण की उपासना करने वाला गृहस्थ । प्रस्तुत सूत्र में 'श्रावक' शब्द गुणवाची है । इसका अर्थ है सुनने वाला शृणोतीति श्रावकः । यह प्रयोग विरल ही है ।
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अट्टगुणा कि किद्या लोयग्गणिवासिणो सिद्धा || सदसिव संखो मक्कडि बुद्धो णैयाइयो य वेसेसी । ईसरमंडलि दंसण विदूषणट्टं कयं एवं ||
(टीका)— कर्माञ्जनसंश्लेषात् संसारसमागमोऽस्तीति मस्करिदर्शनम् । ७. स्याद्वादमंजरी, पृ. ४।
८. भ. वृ. २।२५ विसाला महावीरजननी, तस्या अपत्यमिति वैशालिक:भगवांस्तस्य वचनं शृणोति तद्रसिकत्वादिति वैशालिक श्रावकः तद्वचनामृतपाननिरत इत्यर्थः ।
६. द्रष्टव्य, उत्तर. ६ । १७ और उसका टिप्पण ।
१०. श्रीमद् वाल्मिकेय रामायण, आदिकाण्ड, सर्ग ४६, गा. ११,१२--- इक्ष्वाकोस्तु नरव्याघ्रपुत्रः परमधार्मिकः । अलम्बुसायामुत्पन्नो विशाल इति विश्रुतः ॥ तेन चासीदिह स्थाने विशालेति पुरीकृता । ११. द्रष्टव्य, तीर्थंकर महावीर, पृ. ८३-८५ । १२. भ. २० ॥ ७४ ॥
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