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भगवई
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श.२: उ.१: सू.२४ शब्द-विमर्श कात्यायन यह कौशिक गोत्र का एक अवान्तर भेद है।' के लिए उपयुक्त ।” ब्रह्मण्य का अर्थ है-ब्राह्मण के लिए उपयुक्त
अथवा ब्राह्मण-संबंधित।" पखिाजक–देखें भ. १। ११३ का भाष्य ।
निर्ग्रन्थ पिंगल ने स्कन्दक से पाँच प्रश्न पूछे । ये प्रश्न दर्शन निघण्टु नामकोश । इसका दूसरा नाम निघण्ट भी है। यहां विशेषतः वैदिक शब्दों का कोश विवक्षित है।
के क्षेत्र में बहुचर्चित रहे हैं। भगवान् महावीर ने इनका समाधान
सापेक्ष दृष्टि से किया । इस प्रसंग में भगवान महावीर और गौतम सारक-इसके दो संस्कृत रूप हो सकते हैं-सारक और
बुद्ध के दृष्टिभेद का उल्लेख करना अप्रासंगिक नहीं होगा । बुद्ध स्मारक। सारक का अर्थ है-प्रवर्तक और स्मारक का अर्थ है-विस्मृत पाठ की स्मृति कराने वाला
ने तात्त्विक प्रश्नों को अव्याकृत (इनकी व्याख्या नहीं की जा सकती)
कहकर टाल दिया।" भगवान् महावीर ने तात्त्विक जानकारी को धारक---धारण करने में समर्थ ।
प्राथमिकता दी । उसे व्याकृत बतलाया और उसका सापेक्ष दृष्टि से पारग-पारगामी।
प्रतिपादन किया । प्रस्तुत पाँच प्रश्नों का समाधान मूलसूत्र में स्पष्ट छहों अंगो का वेत्ता-शिक्षादि छह अंग सूत्र में निर्दिष्ट हैं । है। लोकाकाश और एक जीव—दोनों असंख्यप्रदेशात्मक हैं। इस
शिक्षा-उच्चारण-शास्त्र । वृत्तिकार ने इसका 'अर्थ अक्षर के अपेक्षा से वे सान्त हैं। काल अनन्त है और भाव (पर्याय) भी स्वरूप का निरूपक शास्त्र' किया है।
अनन्त हैं। लोक और जीव त्रैकालिक हैं तथा अनन्त पर्याय वाले कल्प-उत्सव और कर्मकाण्ड का विधान करने वाला शास्त्र । हैं। इस अपेक्षा से उन्हें अनन्त कहा गया है। व्याकरण-शब्द-शास्त्र ।
सिद्धि का अर्थ सिद्धालय है । यह ईषतप्राग्भारा नाम की छन्द छंद-शास्त्र ।
आठवीं पृथ्वी है। ओवाइयं में इसके बारह पर्यायवाची नाम निर्दिष्ट
हैं।" यह भी काल और भाव की अपेक्षा से अनन्त है। निरुक्त शब्दव्युत्पत्ति-शास्त्र ।
द्रव्य की अपेक्षा से सिद्ध एक है---यह सिद्धान्त मुक्त आत्मा ज्यौतिषायण-ज्योतिष-शास्त्र ।
के स्वतंत्र अस्तित्व का प्रतिपादक है। अनन्त जीव मुक्त हो चुके षष्टितंत्र वार्षगण्य द्वारा विरचित सांख्यदर्शन का एक शास्त्र हैं। इस अपेक्षा से सिद्ध अनन्त हैं । यहां 'एक' की विवक्षा विशेष
संख्यान वृत्तिकार ने इसका अर्थ गणितस्कन्ध किया है। अर्थ-सूचक है। जैन दर्शन के अनुसार प्रत्येक मुक्त आत्मा का स्वतंत्र नायाघम्मकहाओ में सद्वितंतकुसले के पश्चात् संखसमए लद्धडे पाठ मिलता अस्तित्व होता है। उसका किसी परमात्मा, ईश्वर या ब्रह्म में विलय है। इसके आधार पर सहज ही यह संभावना की जा सकती है नहीं होता। विलय का सिद्धान्त उन दर्शनों के द्वारा स्वीकृत है, जो कि यहां संखाण (संख्यायन) का अर्थ 'सांख्यशास्त्र' होना चाहिए। आत्मा को परमात्मा या ईश्वर का अंश मानते हैं अथवा ब्रह्म का अयन का एक अर्थ है—शास्त्र ।” संख्यायन पद के यकार का लोप
प्रपंच मानते हैं । जैन-दर्शन में यह अंशवाद या प्रपंचवाद स्वीकृत करने पर प्राकृत में संखाण शब्द बन जाता है। प्राकृत साहित्य में
नहीं है और न ईश्वर या हाहम की स्वतंत्र सत्ता भी स्वीकृत है। अणायणे इस प्रकार के प्रयोग मिलते हैं।"
सब आत्माएं समान हैं और सबका स्वतंत्र अस्तित्व है । फिर किसका
किसमें विलय हो सकता है ? इस आत्म-स्वातंत्र्य की अपेक्षा से भण्णय बंमण्णय शब्द के संस्कृत रूप दो बनते
भगवान महावीर ने स्कन्दक को बतलाया कि सिद्ध द्रव्य की दृष्टि हैं ब्राह्मण्यक और ब्रह्मण्यक । ब्राह्मण्यक का अर्थ है ब्राह्मण से एक है ।
"घ्राणादितोऽनुयातेन, श्वासेनैकेन जन्तवः।
हन्यन्ते शतशो ब्रह्मन्नणुमात्राक्षरवादिनाम् ॥१॥" ते च जलजीवदयार्थं स्वयं गलनकं धारयन्ति, भक्तानां चोपदिशन्ति
"षट्विशदङ्मुलायाम, विंशत्यगुलविस्तृतम् । दृढं गलनकं कुर्याद्, भूयो जीवान् विशोधयेत् ।।१।। म्रियन्ते मिष्टतोयेन, पूतराः क्षारसंभवाः । क्षारतोयेन तु परे, न कुर्यात् संकरं ततः ॥२॥ लूतास्यतन्तुगलिते, ये बिन्दौ सन्ति जन्तवः ।
सूक्ष्मा भ्रमरमानास्ते, नैव मान्ति त्रिविष्टपे ॥३॥" इति गलनकविचारो मीमांसायाम् ।
.......तेषामाचार्या विष्णुप्रतिष्ठाकारकाश्चैतन्यप्रभृतिशब्दैरभिधीयन्ते । १. ठाणं, ७।३५॥ २. भ.वृ.२१२३ निघण्टो नामकोशः। ३. आप्टे.-निघण्टः, निघण्टुः-Particularly the glossary of Vedic
words explained by Yask in bis Nirukta. ४. भ..२१२३–'सारए'त्ति सारकोऽध्यापनद्वारेण प्रवर्तकः स्मारको वाऽन्येषां
विस्मृतस्य सूत्रादेः स्मारणात्, ‘वारए'त्ति वारकोऽशुद्धपाठनिषेधात्, 'धारए' क्वचित्पाठः तत्र धारकोऽधीतानामेषां धारणात्, 'पारए'त्ति पारगामी । ५. आप्टे. शिक्षा--The science which teaches the proper
pronunciation of words and laws of euphony वर्णस्वराद्युञ्चारप्रकारो यत्रोपदिश्यते सा शिक्षा (Rigveda Bhasya.) ६. भ.वृ.२ । २४-शिक्षा—अक्षरस्वरूपनिरूपकशास्त्रम् । ७. वही,२/२४ कल्पश्च तथाविधसमाचारनिरूपकं शास्त्रमेव । ८. वही,२१२४–'संखाणेति गणितस्कंधे । ६. नाया.१।५।१२सद्वितंतकुसले संखसमए लडे । १०. आप्टे-अयन-sastra, scripture or inspired writing. ११. दसवे.५1१1१०1 १२. आप्टे. ब्राह्मण्य-Befitting a Brahmana. १३. वही, ब्रह्मण्य-Fit for a Brahmana, Relating to Brahmana. १४. मज्झिमनिकाय—चूलमालूक्य सुत्त, ६३। १५.आवा.सू.१६३-१६५ ।
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