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भगवई
श.२: उ.१: सू.२४
२०८ य बहूसु बंमण्णएसु परिवायएसु य नयेसु सु- ब्रह्मण्यकेषु परिव्राजकेषु च नयेषु सु- परिनिट्ठिए या वि होत्था॥
परिनिष्ठितश्चापि आसीत् ।
ज्योतिषशास्त्र, अन्य अनेक ब्राह्मण और परिव्राजक सम्बन्धी नयों में निष्णात था।
की कुछ शाओं के आध
भाष्य १. सूत्र २४
प्रस्तुत सत्र में स्कन्दक परिव्राजक का शिक्षा-संबंधी जो वर्णन मिश्र के अनुसार षष्टितंत्र के कर्ता वार्षगण्य हैं । उनका समय ईसा किया गया है, वह शैलीगत वर्णन है। देवर्धिगणी के समय में आगमों की तीसरी शताब्दी (ई. स. २३०-३००) माना जाता है। स्कन्दक का संकलन और लिपीकरण हुआ तब वर्णन की कुछ शैलियां
सांख्य परिव्राजक था, यह इकतीसवें सूत्र में निर्दिष्ट उपकरणों से स्पष्ट निर्धारित की गई, जैसे-नगरवर्णन, राजवर्णन, चैत्यवर्णन आदि
है। “गुणरत्न सूरि ने षड्दर्शनसमुचय की टीका में सांख्य मत के आदि। इसी प्रकार परिव्राजक के वर्णन की भी शैली का मुख्य सूत्र
साधुओं के आचार का निम्न प्रकार से वर्णन किया है—'सांख्य मत ओवाइयं है। उसमें परिव्राजक का जो वर्णन है, वही यहां उद्धृत
के अनुयायी साधु त्रिदण्डी अथवा एकदण्डी होते हैं, ये कौपीन धारण है।' वहां सांख्य, ब्राह्मण और क्षत्रिय तीनों परम्पराओं के परिव्राजकों
करते हैं, गेरुए रंग के वस्त्र पहनते हैं, बहुत से चोटी रखते हैं, का संयुक्त वर्णन है। इसलिए उसमें वैदिक और सांख्य दोनों
बहुत से जटा बढ़ाते हैं और बहुत से छुरे से मुण्डन कराते हैं। ये परम्पराओं के साहित्य का उल्लेख है। छान्दोग्य उपनिषद और
लोग मृगचर्म का आसन रखते हैं , ब्राह्मणों के घर आहार लेते हैं, महाभारत में केवल वैदिक साहित्य की चर्चा है। वहां षष्टितन्त्र का
पांच ग्रास मात्र भोजन करते हैं और बारह अक्षरों का जाप करते उल्लेख नहीं है। परिव्राजक शुक के वर्णन में भी दोनों परम्पराओं
हैं । इन लोगों के भक्त नमस्कार करते समय 'ऊँ नमो नारायणाय' का मिश्रण मिलता है। वह सांख्य समय का विद्वान था। उसे वेदों
कहते हैं और साधु लोग केवल 'नारायणाय नमः' बोलते हैं। सांख्य का विद्वान् भी बतलाया गया है।'
परिव्राजक जीवों की रक्षा के लिए स्वयं जल छानने का वस्त्र रखतें
है और अपने भक्तों को पानी छानने के लिये छत्तीस अंगुल लम्बा वैदिक संहिताओं और ब्राह्मणों में 'सांख्य' शब्द का प्रयोग
और बीस अंगुल चौड़ा मजबूत वस्त्र रखने का उपदेश देते हैं । ये नहीं मिलता। बृहदारण्यक, छान्दोग्य, तैत्तिरीय, ऐतरेय और कौषीतकी
लोग मीठे पानी में खारा पानी मिलाने से जीवों की हिंसा मानते हैं जैसे प्राचीन उपनिषदों में भी 'सांख्य' शब्द का प्रयोग उपलब्ध नहीं
और जल की एक बूंद में अनन्त जीवों का अस्तित्व स्वीकार करते होता। श्वेताश्वतर उपनिषद् में सांख्य और योग का एक साथ प्रयोग
हैं । इन लोगों के आचार्यों के साथ 'चैतन्य' शब्द लगाया जाता मिलता है। उसमें अजा (प्रकृति) और अज (पुरुष) का जो निरूपण
है ।' सांख्य लोग कर्म-काण्ड को, यज्ञ-याग को और वेद को नहीं है, उससे ज्ञात होता है कि यह उपनिषद् सांख्य दर्शन का ही एक
मानते । ये लोग अध्यात्मवादी होते हैं, हिंसा का विरोध करते हैं ग्रंथ रहा है। महाभारत और पुराण-साहित्य में 'सांख्य' का उल्लेख
और वेद, पुराण, महाभारत, मनुस्मृति आदि की अपेक्षा सांख्य तत्त्वज्ञान प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होता है।
को श्रेष्ठ समझते हैं । इन लोगों का मत है कि यथेष्ट भोगों का सांख्य दर्शन मूलतः श्रमण-परम्परा का एक दर्शन है। वेद ।
सेवन करने पर तथा किसी भी आश्रम में रहने पर भी यदि कपिल उसके लिए प्रमाण नहीं रहा। यह ऋषिप्रोक्त दर्शन है। कपिल ऋषि के पच्चीस तत्त्वों का ज्ञान हो गया है. यदि सांख्य मत में भक्ति हो इसके आद्य प्रवर्तक हैं। वे सिद्ध पुरुष थे। श्रीकृष्ण कहते हैं-मैं गई तो बिना क्रिया के भी मक्ति हो सकती है । सांख्यों के मत सिद्धों में कपिल मुनि हूँ। कपिल मुनि ने अपने प्रथम शिष्य आसुरी में पच्चीस तत्त्व और प्रत्यक्ष, अनमान और शब्द ये तीन प्रमाण को सांख्य शास्त्र का उपदेश दिया। उनके शिष्य पंचशिख थे। माने गये हैं । वैदिक ग्रन्थों में कपिल को नास्तिक और श्रुत-विरुद्ध
चीनी बौध्द सम्प्रदाय के अनुसार वे षष्टितंत्र के कर्ता माने तंत्र का प्रवर्तक कहकर कपिल-प्रणीत सांख्य और पतञ्जलि के जाते हैं । किंतु यह विवादास्पद है। अहिर्बुध्न्य संहिता और वाचस्पति योग-शास्त्र को अनुपादेय कहा है।"
१. ओवा.सू.६७। २. वही,सू.६६,६७। ३. (क) छा.उप.७।१।१,२।
(ख) महाभारत, शान्ति पर्व,२०१।७,८६।
(२) उत्तराध्ययनः एक समीक्षात्मक अध्ययन,पृ.८१,८२ । ४. नाया,१।५।५२ तेणं कालेणं तेणं समएणं सुए नामं परिब्वायए होत्था
रिउव्येय-जजुब्वेय-सामवेय-अथव्वणवेय-सद्वितंतकुसले संखसमए लद्धटे। ५. श्वे.उप.६।१३। ६. गीता,१०।२६
गंधर्वाणां चित्ररथः सिद्धानां कपिलो मुनिः।
७. डा. जगदीशचंद्र जैन, स्याद्वादमंजरी-परिशिष्ट,पृ.३३३-३३५ । ८. (क) वही,पृ.४२२,४२३, (ख) षड्दर्शनसमुच्चय, गुणरत्लसूरि-कृत टीका, तृतीयोऽधिकारः, पृ. १४०--- अथादौ सांख्यमतप्रपन्नानां परिज्ञानाय लिङ्गादिकं निगद्यते। त्रिदण्डा एकदण्डा वा कौपीनवसना धातुरक्ताम्बराः शिखावन्तो जटिनः क्षुरमुण्डाः मृगचर्मासना द्विजगृहाशनाः पञ्चग्रासीपरा वा द्वादशाक्षर-जापिनः परिव्राजकादयः । तद्भक्ताः बन्दमाना ऊँ नमो नारायणायेति वदन्ति, ते तु नारायणाय नम इति प्राहुः । तेषां च महाभारते बीटेति ख्याता दारवी मुखवस्त्रिका मुखनिःश्वासनिरोधिका भूतानां दयानिमित्तं भवति। यदाहुस्ते--
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