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श.१: उ.२ः सू.१०१,१०२
भगवई और लोभप्रत्यया।'
और असत्य भी अभिन्न हैं। सत्य का अर्थ है-ऋजुता और वृत्तिकार ने माया का अर्थ ऋजुता का अभाव किया है।
अविसंवादन योग। असत्य का अर्थ है माया और विसंवादन योग। उपलक्षण से उन्होंने क्रोध आदि के ग्रहण का संकेत भी किया है।
विसंवाद का एक अर्थ है-धोखा देने वाली प्रवृत्ति। इस आधार किन्तु क्रोध और मान-ये द्वेषप्रत्यया क्रिया के भेद हैं। इसलिए
पर मायाप्रत्यया के दो भेदों (आलभाववञ्चन और परभाववञ्चन) उनका ग्रहण यहां अपेक्षित नहीं है। उक्त आधार-सूत्रों की मीमांसा
और विसंवादनयोग को समानार्थक कहा जा सकता है। अमाया और माताआशिकी आदि पांच कियाओं अविसंवादनयोग ये भी समानार्थक हो जाते हैं। के समूह में जो मायाप्रत्यया क्रिया है, उसका सम्बन्ध प्रेयःप्रत्यया शैव दर्शन में पांच प्रकार के पाश निर्दिष्ट हैं-१. मल पाश क्रिया से है। इसका क्षय नवें गुणस्थान में होता है। एक अवधारणा २. कर्म पाश ३. माया पाश ४. महामाया पाश ५. रोधक शक्ति । से माया को पूरे कषाय का वाचक माना गया है, उसी अर्थ के माया पाश के कारण मनुष्य का शरीर और इन्द्रियां निर्मित होती आधार पर जयाचार्य ने मायाप्रत्यया क्रिया की प्राप्ति दसवें गुणस्थान है। उसकी बाह्य परिस्थिति भी माया पाश से बनती है। यह माया तक बतलाई है।'मायी मिथ्यादृष्टि के साथ जो मायी शब्द है, उसका अनादि है। सम्बन्ध छठे युगल की मायाप्रत्यया क्रिया से होना चाहिए। मायाप्रत्यया मिथ्यादृष्टि के शरीर-निर्माण और जन्म-मरण की परम्परा और मिथ्यादर्शनप्रत्यया का युगल किसी सापेक्ष दृष्टि से होना चाहिए।
अनादिकाल से अबाधगति से चली आ रही होती है। उसमें कोई शल्य के प्रकरण में भी मिथ्यादर्शन के साथ माया का उल्लेख है।'
अवरोध पैदा नहीं होता। इस दृष्टि से मिथ्यादृष्टि को मायी अथवा इस आधार पर मायी मिथ्यादृष्टि का अर्थ माया-शल्य-युक्त मिथ्यादृष्टि
माया पाश-युक्त कहा जा सकता है। सम्यग्दर्शन जन्म-मरण की परम्परा और अमायी सम्यग्दृष्टि का माया-शल्य-रहित सम्यग्दृष्टि किया जा
का पहला अवरोध है। इस अपेक्षा से सम्यग्दृष्टि को अमायी अथवा सकता है। इसका तात्पर्य सत्य और असत्य की भाषा में खोजा जा ।
माया पाश से मुक्त कहा जा सकता है। सकता है। सत्य और ऋजुता दोनों अभित्र हैं, इसी प्रकार माया
लेस्सा -पदं लेश्या-पदम्
लेश्या-पद १०२.कडणं भंते । लेस्साओ पण्णताओ? कति भदन्त ! लेश्याः प्रज्ञप्ताः? १०२. भन्ते ! लेश्याएं कितनी प्रज्ञप्त हैं ? गोयमा! लेस्साओ पण्णताओ, तं जहा गौतम! षट् लेश्याः प्रज्ञाप्ताः, तद् यथा- गौतम ! लेश्याएं छह प्रज्ञप्त हैं, जैसे—कृष्णलेश्या,
-कण्डलेस्सा, नीललेस्सा, काउलेस्सा, कृष्णलेश्या, नीललेश्या, कापोतलेश्या, तेजो- नीललेश्या, कापोतलेश्या, तेजोलेश्या, पद्मलेश्या तेउलेस्सा, पम्हलेसा, सुकलेस्सा । लेस्सा लेश्या, पालेश्या, शुक्ललेश्या। लेश्यानां ___ और शुक्ललेश्या। यहां (पण्णवणा के) लेश्या-पद णं बीओ उद्देसो भाणियब्बो जाव इही॥ द्वितीयः उद्देशः भणितव्यः यावद् ऋद्धिः। का दूसरा उद्देशक ऋद्धि (सूत्र ३६-८६) तक
वक्तव्य है।
भाष्य
१. लेश्या
लेश्या का अर्थ है परिणामधारा या भावधारा। अधिकांश व्याख्याकारों ने लेश्या को श्लेष या लेश के रूप में व्याख्यात किया
अभयदेवसूरि के अनुसार लेश्या के द्वारा कर्म-पगलों का संश्लेष होता है, इसलिए इसका नाम लेश्या है। पञ्चसंग्रह में लेश्या का अर्थ 'पुण्य-पाप का लेप' या 'आत्मीकरण करने वाली क्रिया है। ये
१. ठाणं,२।३५.३६। २. म.वृ.१७१-माया-अनार्जवं उपलक्षणत्वाक्रोधादिरपि च । ३. ठाणं,२।३७। ४. श्री.च.६।६
अष्टम नवमां दशमां रै मांय, पांच आसव तेहिज पाय ।
किरिया मायावतिया संपराय॥ ५. ठाणं,३३८५। ६. वही,४।१०२,१०३। ७. प्रज्ञा.वृ.प.३३०-लिष्यते-श्लिष्यते आत्मा कर्मणा सहानयेति लेश्या,
कृष्णादिद्रव्यसाचिव्यादात्मनः परिणामविशेषः, उक्तं च
कृष्णादिद्रव्यसाचिव्यात् परिणामोऽयमात्मनः ।
स्फटिकस्येव तवायं, लेश्याशब्दः प्रवर्तते ॥ ८. भ.वृ.१।१०२-तत्रालनि कर्मपुद्गलानां लेशनात्-संश्लेषणाल्लेश्या, योग परिणामश्चैताः, योगनिरोधे लेश्यानामभावात्। योगश्च शरीरनामकर्मपरिगतिविशेषः । ६. पं.सं.(दि.)जीवसमास,गा.१४२ -
लिप्पइ अप्पीकीरइ एयाए णियय पुण्ण पावं च । जीवो ति होइ लेसा लेसागुणजाणयक्खाया॥
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