________________
भगवई
१. सूत्र १०१
प्रस्तुत सूत्र की रचना संक्षिप्त है। इसलिए यह जटिल-सा बन गया है। पण्णवणा में इस विषय का पाठ विस्तृत है। उसके सन्दर्भ में प्रस्तुत पाठ का अध्ययन बहुत स्पष्ट हो सकता है, इसलिए पण्णवणा का वह पाठ अविकल रूप से यहां प्रस्तुत किया जा रहा हैः
भाष्य
सलेस्सा णं भंते ! णेरइया सब्बे समाहारा समसरीरा समुस्सासपिस्सासा ? स चैव पुच्छा एवं जहा ओहिओ गमओ तहा सलेस्सगमओ वि णिरवसेसो भाणियव्वो जाव वेमाणिया ||
कण्हलेस्सा णं भंते । णेरइया सव्वे समाहारा समसरीरा समुस्सासणिस्सासा पुच्छा । गोयमा ! जहा ओहिया, णवरं णेरइया वेदणाए माइमिच्छद्दिविवण्णगाय अमाइसम्मदिट्टिउववण्णगा य भाणियव्वा । सेसं तहेव जहा ओहियाणं ।
असुरकुमारा जाव वाणमंतरा एते जहा ओहिया, नवरं— मणूसाणं किरियाहिं विसेसो जाव तत्थ णं जेते सम्मद्दिट्टी ते तिविहा पण्णत्ता, तं जहा संजया असंजया संजयासंजया य, जहा ओहि याणं । जोइसिय-वेमाणिया आइल्लिगासु तिसु लेस्सासु ण पुच्छिति ।
एवं जहा किण्हलेस्सा चारिया तहा णीललेस्सा वि चारियव्या । काउलेस्सा रइएहिंतो आरब्भ जाव वाणमंतरा, नवरं— काउलेस्सा णेरइया वेदणाए जहा ओहिया ।
तेउलेस्साणं भंते । असुरकुमाराणं ताओ चैव पुच्छाओ। गोयमा ! जहेव ओहिया तहेव, णवरं वेदणाए जहा जोतिसिया । पुढविआउ-वणस्सइ-पंचेंदियतिरिक्ख-मणूसा जहा ओहिया तहेव भाणियव्वा,
वरं मणूसा किरियाहिं जे संजया ते पमत्ता य अपमत्ता य भाणियव्वा, सरागा वीयरागा णत्थि ।
वाणमंतरा तेउलेस्साए जहा असुरकुमारा एवं जोतिसियवेमाणिया वि सेसं तं चैव ।
एवं पहलेस्सा विभाणियचा, गवरं जेसिं अत्थि । सुक्कलेस्सा वि तहेव जेसिं अस्थि । सव्वं तहेव जहा ओहियाणं गमओ, णवरंपम्हलेस्सा- सुक्कलेस्साओ पंचेदिय - तिरिक्खजोणिय - मणूस-वेमाणियाणं चेव, ण सेसाणं ति ।
समाहारगा
इस पद के द्वारा आहार, शरीर और उच्छ्वास निःश्वास आदि नौ पदों का ग्रहण किया गया है।
६१
Jain Education International
१. पण १७ । २८३५ ।
२. भ. वृ. १ । १०१ - अनेनाहारशरीरोच्छ्वासकर्म्मवर्णलेश्यावेदनाक्रियोपपाताख्य पूर्वोक्तनवपदोपेतनारकादिचतुर्विंशतिपददण्डको लेश्यापदविशेषितः सूचितः । ३. वही, १ ।१०१ - 'जस्सत्थि' इत्येतस्य वक्ष्यमाणपदस्येह सम्बन्धाद्यस्य शुक्ललेश्याऽस्ति स एव तद्दण्डकेऽध्येतव्यः, तेनेह पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चो मनुष्या वैमानिकाश्च वाच्याः, नारकादीनां शुक्ललेश्याया अभावादिति ।
श.१: उ.२ः सू.१०१
सुकलेस्साणं
शुक्ल लेश्या का सम्बन्ध नारकीय जीवों से नहीं हैं, वह पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च, मनुष्य और वैमानिक देवों में ही पायी जाती है।'
प्रथम नरक में कृष्ण और नील लेश्या नहीं होती, इसलिए वेदना- सूत्र औधिक नरकसूत्र की भांति वक्तव्य नहीं है; इसलिए वहां मायी मिथ्यादृष्टि उपपन्नक और अमायी सम्यग्दृष्टि उपपन्नग ये दो भेद किये गये हैं।
सराग, वीतराग, प्रमत्त और अप्रमत्त वक्तव्य नहीं हैं। इसके विमर्श के लिए १३८ का भाष्य द्रष्टव्य है ।
वरं रइया
प्रथम नरक में कापोत लेश्या पायी जाती है, इसलिए कापोत लेश्या वाले नैरयिक का सूत्र औधिक सूत्र की भांति वक्तव्य है। उसमें संज्ञिभूत और असंज्ञिभूत ये दो भेद प्राप्त होते हैं ।
णवरं मणुस्सा
तेजोलेश्या और पद्मलेश्या में वीतरागता नहीं होती, इसलिए उन लेश्याओं में सराग और वीतराग के भेद वक्तव्य नहीं हैं। मायी मिथ्यादृष्टि और अमायी सम्यग्दृष्टि
आगम- साहित्य में मिथ्यादृष्टि के साथ मायी और सम्यग्दृष्टि के साथ अमायी विशेषण अनेक स्थानों पर मिलता है। इस विशेषण के आधार पर मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि के दो-दो प्रकार हो जाते हैं - १. मिथ्यादृष्टि और मायी मिथ्यादृष्टि २. सम्यग्दृष्टि और अमायी सम्यग्दृष्टि। सविशेषण मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि का विशेष अर्थ क्या है, यह विमर्शनीय है ।
ठाणं में क्रिया के बारह युगल हैं । उनमें मायाप्रत्यया क्रिया का उल्लेख दो स्थानों पर हुआ है। छठे युगल में मायाप्रत्यया क्रिया और मिथ्यादर्शनप्रत्यया इन दो क्रियाओं का एक साथ प्रयोग हुआ है। वहां मायाप्रत्यया क्रिया के दो अर्थ बतलाये गये हैं— आत्मभाववञ्चना और परभाववञ्चना । तत्त्वार्थराजवार्तिक में मायाप्रत्यया क्रिया का अर्थ है-ज्ञान, दर्शन आदि के विषय में प्रबंधना करना ।
बारहवें युगल में प्रेयः प्रत्यया और दोषप्रत्यया इन दो क्रियाओं का उल्लेख है। प्रेयः प्रत्यया क्रिया के दो प्रकार हैं- मायाप्रत्यया
४. वही, १ ।१०१ –— केवलमौघिकदण्डके क्रियासूत्रे मनुष्याः सरागवीतरागविशेषणा अधीताः इह तु तथा न वाच्याः, तेजः पद्मलेश्ययोर्वीतरागत्वासम्भवात्, शुक्ललेश्यायामेव तत्सम्भवात् । प्रमत्ताप्रमत्तास्तूच्यन्त इति ।
५. ठाणं, २।१७-१८ ।
६. त. रा. वा. ६ । ५ ज्ञानदर्शनादिषु विकृतिर्वञ्चनं मायाक्रिया ।
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org