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श. १: उ.२ः सू.६०-१०१
यह क्रिया का सिद्धान्त मानसिक चेतना से परे का सिद्धान्त है। पृथ्वीकाय से लेकर अमनस्क पञ्चेन्द्रिय तक के जीवों में पांचों क्रियाएं होती हैं। इससे स्पष्ट फलित होता है कि आत्मा का अस्तित्व मन से बहुत गहरे में है। मन केवल उसका सतही स्तर है। " मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः " - यह एक स्थूल सिद्धान्त है। कर्मबन्ध के कारण उसके भीतर चेतना के सूक्ष्म स्तर तक विद्यमान हैं।
जन्म और आयुष्यवाद
जन्म और आयु दोनों परस्पर संबद्ध हैं। उत्पत्ति का नाम जन्म
१०१. सलेस्सा णं भंते ! नेरइया सव्वे सलेश्याः भदन्त ! नैरयिकाः सर्वे समासमाहारगा ? हारका: ?
ओहियाणं, सलेस्साणं, सुक्कलेस्साणंएतेसिं णं तिण्डं एको गमो ।
कण्हलेस - नीललेस्साणं पि एगो गमो, नवरं - वेदणाए मायिमिच्छदिट्ठीउववनगा य, अमायिसम्मदिट्ठीउववत्रगा य भाणि
यन्ना ।
मणुस्सा किरिया सु सराग - वीयरागा पत्तापमत्ता न भाणियव्वा । काउलेस्साण वि एसेव गमो, नवरं— नेरइया जहा ओहिए दंडए तहा भाणि
यव्वा ।
तेउलेस्सा, पम्हलेस्सा जस्स अपि जहा ओहिओ दंडओ तहा भाणियब्बा, नवरं मस्सा सराग - वीयरागा न भाणियव्वा ।
संगहणी गाहा
दुखाउए उदि
आहारे कम्म-वण-लेस्सा य । समवेयण - समकिरिया, समाउए चेव बोधव्या ॥१ ॥
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भगवई
और उसके कालमान का नाम आयु है। इनके चार विकल्प बनते हैं— जो एक साथ उत्पन्न होते हैं और जिनकी आयु समान होती है, उनका समावेश प्रथम विकल्प में होता है। जिनकी आयु समान होती है, किन्तु जन्म का काल भिन्न होता है, उनका समावेश दूसरे विकल्प में होता है। जो एक साथ उत्पन्न होते हैं और जिनकी आयु समान नहीं होती, उनका समावेश तीसरे विकल्प में होता है। जिनका जन्मकाल भी भिन्न होता है और आयु भी समान नहीं होती, उनका समावेश चौथे विकल्प में होता है।
औधिकानां, सलेश्यानां, शुक्ललेश्यानांएतेषां त्रयाणां एको गमः ।
कृष्णलेश्य - नीललेश्यानामपि एको गमो । नवरं—वेदनायां मायिमिथ्यादृष्ट्युपपन्नकाः च, अमायिसम्यग्दृष्ट्युपपन्नकाः च भणि
तव्याः ।
मनुष्याः क्रियासु सराग- वीतरागाः प्रमत्ताप्रमत्ताः न भणितव्याः । कापोतलेश्यानामपि एष एव गमो, नवरंनैरयिकाः यथा औधिकः दण्डकः तथा भणि
तव्याः ।
तेजोलेश्या पद्मलेश्या यस्य अस्ति यथा अधिकः दण्डकः तथा भणितव्याः, नवरंमनुष्याः सराग- वीतरागाः न भणितव्याः ।
संग्रहणी गाथा
दुःखायुष उदीर्णम्,
आहारः कर्म-वर्ण-लेश्याश्च । समवेदना समक्रिया,
समायुः चैव बोद्धव्याः ॥
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१०१.
'भन्ते ! क्या सब सलेश्य नैरयिक (आदि चौबीस दण्डक) समान आहार, शरीर, उच्छ्वास- निःश्वास, कर्म, वर्ण, लेश्या, वेदना, क्रिया, और उपपात वाले हैं?
औधिक (निर्विशेषण नैरयिक सू. १।६०-७३), सलेश्य (लेश्या - विशेषण युक्त चौबीस दण्डक ) और शुक्ल लेश्यायुक्त (बीस, इक्कीस और चौबीसवें दण्डक वाले) इन तीनों की वक्तव्यता एक समान है। (तात्पर्य की भाषा में सलेश्य औधिक के समान हैं)। कृष्णलेश्या और नीललेश्या -युक्त नैरयिक आदि दण्डक की वक्तव्यता एक समान है, केवल वेदना में भिन्नता है— मायी मिध्यादृष्टि उपपन्नक (नैरयिक) महत्तर वेदना वाले, अमायी सम्यग्दृष्टि उपपत्रक (नैरयिक) अल्पतर वेदना वाले होते हैं । क्रिया- सूत्र में मनुष्य के सराग और वीतराग, प्रमत्त और अप्रमत्त—ये भेद वक्तव्य नहीं हैं। कापोतलेश्या-युक्त नैरयिक आदि के लिये भी यही (कृष्णलेश्या के समान) वक्तव्यता है। केवल वेदना -सूत्र में नैरयिक की वक्तव्यता औधिकसूत्र के समान है।
जिन जीवों के तेजोलेश्या और पद्मलेश्या होती हैं, वे औधिक सूत्र की भांति वक्तव्य हैं। केवल क्रिया- सूत्र में मनुष्य के सराग और वीतराग ये भेद वक्तव्य नहीं हैं।
संग्रहणी गाथा
[पूर्व आलापक में] उदीर्णदुःख और आयु का वेदन, समान आहार, कर्म, वर्ण, लेश्या, वेदना,
क्रिया और आयु—ये इतने विषय ज्ञातव्य हैं।
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