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भगवई
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श.१: उ.२ः सू.६०-१०० पूछा-भंते ! पहले क्रिया होती है और बाद में वेदना ? अथवा प्राणी को मारने का त्याग करने वाले को भी एकान्त बाल नहीं कहा पहले वेदना और बाद में क्रिया ?
जा सकता। श्रमणोपासक (संयतासंयत) के प्रत्याख्यान और भगवान्-मंडितपुत्र ! पहले क्रिया और बाद में वेदना होती
अप्रत्याख्यान दोनों होते हैं। इस अपेक्षा से उसे बाल-पण्डित कहा
गया है। आगम-साहित्य में संयतासंयत के प्रत्याख्यान और है। पहले वेदना और बाद में क्रिया-ऐसा नहीं होता।'
अप्रत्याख्यान के अनेक प्रमाण मिलते हैं। प्रमत्तसंयत के आरम्भिकी वृत्तिकार ने प्रश्न उपस्थित किया है कि कर्म-बन्ध के हेतु क्रिया निरन्तर नहीं होती, फिर भी इसकी विवक्षा की गई है। मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग-ये आश्रव माने जाते हैं, संयतासंयत के अप्रत्याख्यानक्रिया निरन्तर होती है, फिर भी उसकी फिर आरम्भ आदि को कर्मबन्ध का हेतु मानने पर क्या परस्पर विवक्षा नहीं की गई है। अतः विवक्षा-भेद को समझना बहुत विरोध नहीं होगा ? इसके समाधान में उन्होंने लिखा है कि आरम्भ आवश्यक है। पञ्चसंग्रह में संयतासंयत के देशविरति गुणस्थान में
और परिग्रह योग के भेद हैं। ये सारी क्रियाएं आश्रव से ही संबद्ध कर्म-बन्ध की चर्चा की है। वहां अविरति को कर्म-वन्ध का मिश्र हैं, इसलिए इनमें परस्पर विरोध नहीं है।'
या आधा हेतु बतलाया गया है। इससे भी अपूर्ण अप्रत्याख्यान
क्रिया की पुष्टि होती है। तत्त्वार्थराजवार्तिक में भी यही मत प्राप्त चौबीस दण्डकों में क्रिया की प्राप्ति का क्रम इस प्रकार है-मिथ्यादृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव में पांच क्रियाएं, असंयत सम्यगदृष्टि जीव में चार क्रियाएं, संयतासंयत में तीन क्रियाएं, प्रमत्तसंयत में आरम्भिकी क्रिया का स्वीकार किया गया है, प्रमत्तसंयत में दो क्रियाएं, अप्रमत्तसंयत में एक क्रिया और वीतराग फिर पारिग्रहिकी क्रिया का स्वीकार क्यों नही ? जैसे मुनि से कदाचित् इन क्रियाओं की अपेक्षा से अक्रिय होता है। इस प्रसंग में पण्णवणा पृथ्वी आदि जीवों का आरम्भ या उपमर्द हो जाता है, वैसे कदाचित् का सक्रिय-अक्रिय प्रकरण द्रष्टव्य है।
वह धर्मोपकरण पर मूर्छा भी कर सकता है। वृत्तिकार ने परिग्रह
के दो अर्थ किए हैं-धर्मोपकरण के अतिरिक्त वस्तु का स्वीकरण संयतासंयत के तीन क्रियाएं बतलाई गई हैं। इनमें
और धर्मोपकरण पर मूर्छा।" मुनि के भी धर्मोपकरण पर मूर्छा अप्रत्याख्यानक्रिया का उल्लेख नहीं है। 'संयतासंयत' शब्द से यह
होना असम्भव नहीं है। फिर उसमें पारिग्रहिकी क्रिया का ग्रहण क्यों स्पष्ट है कि वह संयत है और साथ-साथ असंयत भी है। जब वह
नहीं ? असंयत है, तो अप्रत्याख्यानक्रिया का उल्लेख क्यों नहीं किया गया? यह प्रश्न सहज ही उठता है। वृत्तिकार इस विषय में मौन है। प्रमत्तसंयत मुनि अनारम्भ भी होता है और अपरिग्रही भी जयाचार्य ने इस प्रश्न पर विमर्श किया है। उनके अनुसार संयतासंयत होता है। फिर भी वह अशुभ योग की अपेक्षा से आरम्भ करने में अप्रत्याख्यान क्रिया का स्कन्ध (पूर्णरूप) नहीं होता, इस अपेक्षा वाला हो जाता है। इसलिए उसमें आरम्भिकी क्रिया का ग्रहण से सूत्रकार ने उसकी यहां विवक्षा नहीं की। इसके समर्थन में उन्होंने किया गया है। पारिग्रहिकी क्रिया का सम्बन्ध अविरति या दो तर्क प्रस्तुत किए हैं—(१) गौतम के प्रश्न के उत्तर में भगवान् अप्रत्याख्यान से है। प्रमत्तसंयत्त अविरति का प्रत्याख्यान कर देता ने कहा--पूर्व दिशा में धर्मास्तिकाय नहीं है, उसका देश और प्रदेश है। इस अपेक्षा से उसमें पारिग्राहिकी क्रिया का ग्रहण नहीं किया हैं।' (२) आग्नेय कोण में जीव नहीं हैं, किन्तु जीव के देश हैं, गया है। पण्णवणा में प्रमत्तसंयत के आरम्भिकी क्रिया बतलाई गई प्रदेश हैं।' धर्मास्तिकाय और जीव का निषेध स्कन्ध की अपेक्षा से है। पारिग्राहिकी क्रिया संयतासंयत के होती है। इन दोनों की व्याप्ति किया गया है। इसी प्रकार संयतासंयत में स्कन्ध की अपेक्षा से का नियम इस प्रकार है-जिसके पारिग्राहिकी क्रिया होती है, उसके अप्रत्याख्यान क्रिया का अग्रहण किया गया है। संयतासंयत में आरम्भिकी क्रिया नियमतः होती है। जिसके आरम्भिकी क्रिया होती अप्रत्याख्यान क्रिया के देश का अस्वीकार नहीं किया जा सकता। है, उसके पारिग्राहिकी क्रिया विकल्पतः होती है।५ पण्णवणा एक प्रश्न के उत्तर में भगवान् ने बतलाया-गौतम ! किसी एक २२/६१-६४ में भी इसका संवादी प्रकरण विद्यमान है।
१. भ.३।१४०। २. भ.वृ.१७७ ननु मिथ्यात्वाविरतिकषाययोगाः कर्मबन्धहेतव इति प्रसिद्धिः,
इह तु आरम्भादयस्तेऽभिहिता इति कथं न विरोधः? उच्यते—आरम्भपरिग्रहशब्दाभ्यां योगपरिग्रहो, योगानां तद्रूपत्वात् शेषवन्धहेतुपरिग्रहः प्रतीयत
एवेति। ३. पण्ण.२२।७,८ ४. भ.जो.१।७।१३४-१३६॥ ५. भ.१०॥५६॥ ६. वही,१०।६। ७. सूय.२१२१७१-विरयाविरइं पडुच बालपंडिए आहिज्जइ । ८. (क) वही,२।२।७१, २१७।२३।
(ख) ओवा.सू.१६१। ६. पं.सं.(दि.),पृ.१०५,गा.७४
चउपच्चइओ बंधो पढमे आणंतरतिए तिपच्चइओ।
मिस्सय विदिओ उवरिमदुगं च देसेक्कदेसम्मि ।। १०. त.रा.वा.भा.२,पृ.५६४,८/२ संयतासंयतस्याविरतिमिश्राः प्रमादकषाय
योगाश्च। ११. भ.वृ.११७७–परिग्रहो-धर्मोपकरणवर्जवस्तुस्वीकारो धर्मोपकरणमूर्छा
च, स प्रयोजनं यस्याः सा पारिग्रहिकी। १२. द्रष्टव्य,म.१३४। १३. पण्ण.२२ ॥३८॥
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