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भगवई
निर्वचन लेश्या को 'लिश्' धातु से निष्पन्न मानकर किये गये हैं। नंदी चूर्णि में लेश्या का अर्थ रश्मि किया गया है।' 'रस्सी' का संस्कृत रूप बनता है-रश्मि। रस्सी देशी शब्द भी है। उसका अर्थ है रज्जु । भावधारा को रश्मि और रज्जु दोनों रूपों में अंकित किया जा सकता है, रश्मि और रस्सी का प्राकृत लस्सी हो सकता है। उच्चारण के संक्रमण से 'लेस्स' होना भी असंभव नहीं है।
हमारे परिणाम तैजस शरीर से प्रभावित होकर विद्युतीकरण को प्राप्त कर इस स्थूल शरीर-औदारिक और वैक्रिय-शरीर में संक्रान्त होते हैं। अभयदेवसूरि ने लेश्या को योग-परिणाम और मलयगिरि ने आत्म-परिणाम बतलाया है। अभयदेवसरि ने योग का अर्थ शरीर नामकर्म का एक प्रकार का परिणमन किया है।
__नाम कर्म की एक प्रकृति है शरीर नामकर्म। लेश्या या । भावधारा की संरचना में तीन तत्वों का योग है-१. शरीर २. वीर्य-लब्धि ३. कषाय का उदय या विलय। लेश्या के सहकारी द्रव्य (द्रव्य लेश्या) योगवर्गणा में समाविष्ट होते हैं। आठ वर्गणाओं में लेश्याओं की कोई स्वतंत्र वर्गणा नहीं है। वह शरीर-योग-वर्गणा की
श.१: उ.२ः सू.१०२ एक अवान्तर वर्गणा है। योगपरिणाम- या आत्मपरिणाम-रूप लेश्या (भाव लेश्या) कषाय के उदय या विलय से सम्बद्ध हैं। वीर्य-लब्धि का भावधारा की प्रकृति में सहयोग हैं। शिवशर्माचार्य के अनुसार प्रकृति- और प्रदेश बन्ध का हेतु योग तथा स्थिति- और अनुभागबन्ध का हेतु कषाय है।' इसका तात्पर्य है कि स्थिति की तरतमता का निर्धारण कषाय तथा अनुभाग की तरतमता का निर्धारण लेश्या से होता है।' जाति-स्मृति, अवधि, मनःपर्याय और केवल इन सब ज्ञानों की उत्पत्ति में शुभ अध्यवसाय, शुभ परिणाम और लेश्या की विशुद्धि की अनिवार्यता मानी गई है। इससे भी प्रतीत होता है कि अनुभाग की तरतमता में लेश्या एक हेतु है। इस प्रकार योग और लेश्या का स्वरूपभेद और कार्यभेद स्पष्ट हो जाता है। जयाचार्य ने रहस्य की भाषा में लिखा है-" जहां योग है वहां लेश्या है और जहां लेश्या है वहां योग है। योग और लेश्या में क्या अन्तर हैइसका रहस्य गूढ है।"
निम्नदर्शित कोष्ठक में इन दोनों का अन्तर दर्शाया गया है
१.आत्मिक स्वरूप २. पौगलिक स्वरूप ३. प्रवर्तक शक्ति ४. घटक शक्ति १. कार्य
मन, वचन, शरीर की प्रवृत्ति
औवारिक, वैक्रिय, आहारक, कार्मण वर्गणा, भाषा वर्गणा, मनोवर्गणा वीर्य-लब्धि शरीर नाम-कर्म १ सभी वर्गणाओं का ग्रहण २. गति ३. क्रिया ४. वाणी ५. चिंतन प्रकृति-, प्रदेश-बन्ध का हेतुत्व
जीव का परिणाम (भावधारा) तैजस वर्गणा वीर्य-लब्धि शरीर नाम-कर्म १. भावों का निष्पादन २. आभामडंल या वर्ण का हेतुत्व
६. कर्म-बन्ध
अनुभाग-बन्ध की तरतमता का हेतुत्व
१. नन्दी चू.पृ.४–'लेसत्ति रस्सीयो। २. पण्ण, २३।३८४१। ३. पं.सं.दि. शतक अधिकार, गा. ५१३ (मूलगाया, ६८)
जोगा पयडिपदेसा, ठिदि अणुमागं कसायदो कुणइ ।
कालभववेत्तपेही, उदओ सविवाग अविवागो॥ ४. प्रज्ञा.ब.प.३३०,३३१-यः स्थितिपाकविशेषो लेश्यावशादुपगीयते शास्त्रान्तरे
स सम्यगुपपन्नः, यतः स्थितिपाको नामानुभाग उच्यते, तस्य निमित्तं कषायोदयान्तर्गत कृष्णादिलेश्यापरिणामाः, ते च परमार्थतः कषायस्वरूपा एव, तदन्तर्गतत्वात, केवलं योगान्तर्गतद्रव्यसहकारिकारणभेदवैचित्र्याभ्यां ते कृष्णादिभेदै भिन्नाः तारतम्यभेदेन विचित्राश्चोपजायन्ते, तेन यद् भगवता कर्म- प्रकृतिकृता शिवशर्माचार्येण शतकाख्ये ग्रन्येऽभिहितं 'ठिई अणुभागं कसायओ कुणइ' इति तदपि समीचीनमेव, कृष्णादिलेश्यापरिणामानामपि कषायोदयान्तर्गतानां कषायरूपत्वात्, तेन यदुच्यते कैश्चिद्-योगपरिणामत्वे लेश्यानां
'जोगा पयडिपएसं ठिई अणुमागं कसायओ कुणइ' इति वचनात् प्रकृतिप्रदेशबन्धहेतुत्वमेव स्यात्र कर्मस्थितिहेतुत्वमिति, तदपि न समीचीनं, यथोक्त भावार्यापरिझानात्, अपि न लेश्याः स्थितिहेतवः, किन्तु कषायाः, लेश्यास्तु कषायोदयान्तर्गताः अनुभाग-हेतवः, अत एव च 'स्थितिपाक विशेषस्तस्य भवति लेश्याविशेषेण' इत्यत्रानुभागप्रतिप्रत्ययं पाकग्रहणं, एतच्च सुनिश्चितं कर्मप्रकृतिटीकादिषु, ततः सिद्धान्तपरिज्ञानमपि न सम्यक् तेषामस्ति, यदप्युक्तम् –'कर्मनिस्यन्दो लेश्या, निस्यन्दरूपत्वे हि यावत् कषायोदयः तावन्निस्यन्दस्यापि सभावात् कर्मस्थितिहेतुत्वमपि युज्यते एवेत्यादि, तदप्य
श्लीलं, लेश्यानामनुभागवन्धहेतुतया स्थितिबंधहेतुत्वायोगात, ...। ५. श्री.च.१६
जिहां सलेसी तिहां सजोगी, जोग तिहां कही लेस ।
जोग लेस्या में कांयक फेर है, जाण रह्या जिण रेस || ६. भाव के विस्तार के लिए देखें, उत्तर. अ.३४ |
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