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श. १: उ.६: सू.२६८-२७५
२७४. छिते भंते! दूतं फुसइ ? दूसंते विछितं फुसइ ?
हंता गोयमा ! छिद्दंते दूसंतं फुसइ, दूसंते विछितं फुसइ जाव नियमा छद्दिसिं फुसइ ॥
२७५.
छायंते भंते ! आयवंतं फुसइ ? आयवि छात फुस ?
हंता गोयमा ! छायंते आयवंतं फुसइ, आयवंते वि छायंतं फुसइ जाव नियमा छद्दिसिं फुसइ ॥
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भगवई
छिद्रान्तः भदन्त ! दूष्यान्तं स्पृशति ? दूष्या- २७४. भन्ते ! क्या छिद्र का अन्त वस्त्र के अन्त तोऽपि छिद्रान्तं स्पृशति ?
का स्पर्श करता है? वस्त्र का अन्त भी छिद्र के अन्त का स्पर्श करता है ?
हां, गौतम ! छिद्र का अन्त वस्त्र के अन्त का स्पर्श करता है और वस्त्र का अन्त भी छिद्र के अन्त का स्पर्श करता है यावत् नियमतः छहों दिशाओं का स्पर्श करता है।
हन्त गौतम ! छिद्रान्तः दूष्यान्तं स्पृशति, दूष्यान्तोऽपि छिद्रान्तं स्पृशति यावन् नियमात् षड्दिशः स्पृशति ।
छायान्तः भदन्त ! आतपान्तं स्पृशति ? आतपान्तोऽपि छायान्तं स्पृशति ?
हन्त गौतम ! छायान्तः आतपान्तं स्पृशति, आतपान्तोऽपि छायान्तं स्पृशति यावन् नियमात् षड्दिशः स्पृशति ।
१. सूत्र २६८- २७५
वस्तु को जानने के अनेक कोण होते हैं। जैन तत्त्व - विद्या में वस्तु-विज्ञान के चौदह कोण - मार्गणाएं प्रतिपादित हैं — निर्देश, स्वामित्व, साधन, अधिकरण, स्थिति, विधान, सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव और अल्पबहुत्व।'
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प्रस्तुत आलापक में स्पर्शना का सिद्धान्त प्रतिपादित है। स्पर्शना अवगाहना से भिन्न है। जितने क्षेत्र में वस्तु की व्याप्ति होती है, अवगाहना उतनी ही होती है; स्पर्शना का क्षेत्र उससे अधिक होता है— उसमें अव्यवहित आकाश-प्रदेश का स्पर्श होता है। सूत्रकार ने कुछ उदाहरणों के द्वारा इस विषय को स्पष्ट किया है। लोकान्त अलोकान्त में अवगाढ नहीं है, फिर भी वह अलोकान्त का स्पर्श करता है। इसी प्रकार द्वीप सागर, जल-जलपोत, वस्त्र-छिद्र, छाया- आतप —- ये सभी निदर्शन उसी विषय को स्पष्ट करते हैं ।
भाष्य
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स्पर्शना के सिद्धान्त के साथ-साथ स्पृश्यमान और स्पृष्ट का एकत्व भी बतलाया गया है। इसकी 'क्रियमाण-कृत' के सिद्धान्त से तुलना की जा सकती है। जंबुद्दीवपण्णत्ती में एक प्रश्न है-क्या सूर्य अतीत क्षेत्र में जाता है ? क्या प्रत्युत्पन्न क्षेत्र में जाता है ? क्या अनागत क्षेत्र में जाता है ?
उत्तर दिया गया वह अतीत क्षेत्र में नहीं जाता, अनागत क्षेत्र में भी नहीं जाता, किन्तु वर्तमान क्षेत्र में जाता है ।
१. त. सू. १1७,८ निर्देश स्वामित्व-साधनाधिकरण-स्थिति-विधानतः । सत्-संख्या क्षेत्र - स्पर्शन-कालान्तर भावाल्पबहुत्वैश्च ।
२. भ. १।३७१ ।
३. जंबु. ७ । ३६,४० ।
४. भ. वृ. १ । २६८ ।
दूसरा प्रश्न पूछा गया -- भन्ते ! क्या स्पृष्ट क्षेत्र में जाता है या अस्पृष्ट क्षेत्र में जाता है ?
जाता ।
२७५. भन्ते ! क्या छाया का अन्त आतप के अन्त का स्पर्श करता है ? आतप का अन्त भी छाया के अन्त का स्पर्श करता है ?
हां, गौतम ! छाया का अन्त आतप के अन्त का स्पर्श करता है और आतप का अन्त भी छाया के अन्त का स्पर्श करता है यावत् नियमतः छहों दिशाओं का स्पर्श करता है।
उत्तर दिया गया—स्पृष्ट क्षेत्र में जाता है, अस्पृष्ट क्षेत्र में नहीं
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प्रस्तुत प्रकरण में भी स्पृष्ट के स्पर्श की बात बतलाई गई है। इसका तात्पर्य है कि वर्तमान क्षण में जो क्षेत्र स्पृश्यमान है, वही स्पृष्ट है। इस अपेक्षा से कहा गया है कि अस्पृष्ट क्षेत्र का स्पर्श नहीं किया जाता, स्पृष्ट क्षेत्र का ही स्पर्श किया जाता है।
शब्द-विमर्श
सव्वंति सव्वाति-वृत्तिकार ने प्राकृत भाषा के अनुसार सव्वंति का अर्थ 'सर्वतः' और सव्वावंति का 'सर्वात्मना किया है। इसके अतिरिक्त कुछ वैकल्पिक अर्थ भी किए हैं। वे केवल बौद्धिक हैं। आचारांग वृत्ति में सब्बावंति को मागध देशी भाषा का प्रयोग बतलाया है। '
छहों दिशाओं का स्पर्श करता है—१. लोकान्त के पार्श्व में सर्वतः अलोक है। ऊर्ध्वलोक के ऊपर भी अलोक है और अधोलोक के नीचे भी अलोक है। चारों दिशाएं पूरे लोक में फैली हुई हैं। इस आधार पर छहों दिशाओं के स्पर्श की बात घटित होती है।
५. आ.वृ. प. २५ – 'एआवंती सव्वावंती'ति एतौ द्वौ शब्दी मागधदेशीभाषाप्रसिद्ध्या या एतावन्तः सर्वेऽपीत्येतत् पर्यायौ ।
६. भ. वृ. १ । २७१ – तं च षट्सु दिक्षु स्पृशति, लोकान्तस्य पार्श्वतः सर्वतोऽलोकातस्य भावात् । इह च विदिक्षु स्पर्शना नास्ति, दिशां लोकविष्कम्भप्रमाणत्वाद् विदिशां च तत्परिहारेण भावादिति ।
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