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भगवई
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श.१: उ.६: सू.२६८-२७६
२. कुछ द्वीप और समुद्र हजार योजन अवगाढ होते हैं। उन अन्त आतप के अन्त का चार दिशाओं में स्पर्श कर रहा है। पक्षी ऊर्ध्ववर्ती और अधोवर्ती द्वीप-समुद्रों की अपेक्षा से ऊंची और नीची की ऊंचाई की अपेक्षा से छायान्त और आतपान्त में ऊंची, नीची दिशा की स्पर्शना घटित होती है।'
दिशा की स्पर्शना घटित होती है। ३. जल और जलपोत में पोत की ऊंचाई की अपेक्षा से इसे दूसरे उदाहरण से भी समझाया गया है-प्रासाद की ऊर्ध्व दिशा की स्पर्शना और जलनिमञ्जन की अपेक्षा से नीची दिशावरण्डिका आदि की छाया का दीवार पर अवतरण और आरोहण की स्पर्शना घटित होती है।
होता है, उससे भी ऊंची, नीची दिशा की स्पर्शना समझी जा सकती ४. वस्त्र और छिद्र में वस्त्र की ऊंचाई की अपेक्षा से अथवा है। वस्त्र की पोटली में कोई जीव उत्पन्न हुआ और उसके द्वारा उस - इसे समझने का तीसरा विकल्प बहुत सूक्ष्म और महत्त्वपूर्ण पोटली में कोई छेद बन गया, उस अपेक्षा से ऊंची और नीची दिशा है। छाया और आतप के पुद्गल असंख्येय प्रदेशावगाही होते हैं; की स्पर्शना घटित होती है।
इसलिए उनमें ऊंचाई का होना स्वाभाविक है। ऊंचाई होने के कारण ५. कोई पक्षी आकाश में उड़ रहा है। उसकी छाया का ऊंची, नीची दिशा की स्पर्शना सहज प्राप्त है।'
किरिया-पदं
क्रिया-पदम्
क्रिया-पद
२७६. अत्थि णं भंते ! जीवाणं पाणाइवाए
णं किरिया कजइ? हंता अत्थि॥
अस्ति भदन्त ! जीवानां प्राणातिपातः क्रिया २७६. 'भन्ते ! क्या जीवों के प्राणातिपातक्रिया क्रियते ?
होती है ? हंत अस्ति।
हां, होती है।
२७७. सा भंते ! किं पुडा काइ ? अपुट्ठा सा भदन्त ! किं स्पृष्टा क्रियते ? अस्पृष्टा २७७. भन्ते ! क्या वह स्पृष्ट होती है ? अथवा काइ? क्रियते ?
अस्पृष्ट होती है ? गोयमा ! पुट्ठा काइ, नो अपुट्ठा कजइ गौतम ! स्पृष्टा क्रियते, नो अस्पृष्टा क्रियते गौतम ! वह स्पृष्ट होती है, अस्पृष्ट नहीं होती जाव निवाघाएणं छदिसि, वाघायं पडुच्च यावन् निर्व्याघातेन षड्दिशः, व्याघातं प्रतीत्य यावत् व्याघात न होने पर प्राणातिपातक्रिया छहों सिया तिदिसि, सिया चउदिसिं, सिया स्यात् त्रिदिशः, स्याच् चतुर्दिशः, स्यात् पञ्च- दिशाओं में होती है, व्याघात होने पर तीन, चार, पंचदिसिं॥ दिशः।
अथवा पांच दिशाओं में होती है।
२७८. सा भंते ! किं कडा कजइ ? अकडा कजइ? गोयमा ! कडा कजइ, नो अकडा कज-
सा भदन्त ! किं कृता क्रियते ? अकृता २७८. भन्ते ! क्या वह कृत होती है ? अथवा क्रियते ?
अकृत होती है ? गौतम ! कृता क्रियते, नो अकृता क्रियते। गौतम ! वह कृत होती है, अकृत नहीं होती।
२७६. सा भंते ! किं अत्तकडा कजइ ? पर
कडा कजइ ? तदुभयकडा कजइ? गोयमा ! अत्तकडा काइ, नो परकडा कजइ, नो तदुभयकडा काइ॥
सा भदन्त ! किम् आत्मकृता क्रियते ? पर- २७६. भन्ते ! क्या वह आत्मकृत होती है ? परकृत कृता क्रियते ? तदुभयकृता क्रियते ? होती है ? अथवा उभयकृत होती है ? गौतम ! आत्मकता क्रियते, नो परकता गौतम! वह आत्मकत होती है, परकत नहीं होती, क्रियते, नो तदुभयकृता क्रियते। उभयकृत भी नहीं होती।
१. वही,१।२७२---'छद्दिसिं' इत्यस्यैवं भावना—योजनसहस्रावगाढा द्वीपाश्च समुद्राश्च भवन्ति, ततश्चोपरितनानधस्तनांश्च द्वीपसमुद्रप्रदेशानाश्रित्य ऊर्ध्वा- ऽधोदिग्द्वयस्य स्पर्शना वाच्या पूर्वादिदिशां तु प्रतीतैव, समन्ततस्तेषा- मवस्थानात् । २. वही,१४२७३'उदयंते पोयतं' ति नद्याधुदकान्तः 'पोतान्तं' नौपर्यवसानम्,
इहायुच्छ्यापेक्षया ऊर्ध्वदिक्स्पर्शना वाच्या जलनिमज्जनेन वेति । ३. वही,११२७४–'छिदंते दूसंत' न्ति छिद्रान्तः 'दूष्यान्तं' वस्त्रान्तं स्पृशति । इहापि षड्दिक्स्पर्शनाभावना वस्त्रोच्छ्यापेक्षया। अथवा कम्बलरूपवस्त्रपोलिकायां तन्मध्योत्पन्नजीवभक्षणेन तन्मध्यरन्ध्रापेक्षया लोकान्तसूत्रवत्
षड्दिक्स्पर्शना भावयितव्या । ४. वही,११२७-'छायंते आयवंतंति इह छायाभेदेन षड्दिग्भावनैवम् –
आतपे व्योमवर्तिपक्षिप्रभृतिद्रव्यस्य या छाया तदन्त आतपान्तं चतसृषु दिक्षु स्पृशति तथा तस्या एव छायाया भूमेः सकाशात्तद्र्व्यं यावदुच्छ्योऽस्ति, ततश्च छायान्त आतपान्तमूर्ध्वमधश्च स्पृशति । अथवा प्रासादवरण्डिकादेर्या छाया तस्या भित्तेरवतरन्त्या आरोहन्त्या वाऽन्त आतपान्तमूर्ध्वमधश्च स्पृशतीति भावनीयम् । अथवा तयोरेव छायाऽऽतपयोः पुद्गलानामसंख्येयप्रदेशावगाहित्वादुच्छ्रयसद्भावः, तत्सद्भावाच्चोोऽधोविभागः। ततश्च छायान्त आतपान्तमूर्ध्वमधश्च स्पृशतीति।
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