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श. १: उ.६ः सू.२७६-२८६
२८०. सामंते ! किं आणुपुब्बिं कडा कजइ ? का ? गोमा ! आणुपु िकडा कजइ, नो अणापुब्बिं कडा कजइ । जा य कडा, जा य कज्जइ, जाय कज्जिस्सइ, सव्वा सा आणुकिडा, नो अापु िकडा ति वत्तब्वं सिया ॥
२८१. अत्थि णं भंते ! नेरइयाणं पाणाइवायकिरिया कज्जइ ?
हंता अस्थि ॥
२८२. सा भंते ! किं पुट्ठा कज्जइ ? अपुट्ठा कजइ ?
गोयमा ! पुट्ठा कज्जइ, नो अपुट्ठा कज्जइ जाव नियमा छद्दिसिं कज्जइ ॥
२८३. सा भंते! किं कडा कज्जइ ? अकडा कजइ ?
गोयमा ! कडा कजइ, नो अकडा कज्जइ ॥
२८४. तं चैव जाव नो अणाणुपुव्विं कडा वत्तव्यं सिया ॥
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२८५. जहा नेरइया तहा एगिंदियवज्जा भाणियव्वा जाव वेमाणिया । एगिंदिया जहा जीवा तहा भाणियव्या ॥
२८६. जहा पाणाइवाए तहा मुसावाए तहा अदिण्णादाणे, मेहुणे, परिग्गहे, कोहे, माणे, माया, लोभे, पेजे, दोसे, कलहे, अब्भक्खाणे, पेसुण्णे, परपरिवाए, अरतिरति, मायामोसे, मिच्छादंसणसल्ले एवं एए अट्ठारस । चउवीसं दंडगा भाणियब्वा ॥
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सा भदन्त ! किम् आनुपूर्वीकृता क्रियते ? अनानुपूर्वीकृता क्रियते ? गौतम ! आनुपूर्वीकृता क्रियते, नो अनानुपूर्वीकृता क्रियते । या च कृता, या च क्रियते, या च करिष्यते, सर्वा सा आनुपूर्वीकृता, नो अनानुपूर्वीकृता इति वक्तव्यं स्यात् ।
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अस्ति भदन्त ! नैरयिकाणां प्राणातिपातक्रिया २८१. भन्ते ! क्या नैरयिक जीवों के प्राणातिक्रियते ? पातक्रिया होती है ? हां, होती है।
हन्त अस्ति ।
सा भदन्त ! किं स्पृष्टा क्रियते ? अस्पृष्टा २८२. भन्ते ! क्या वह स्पृष्ट होती है ? अथवा क्रियते ?
अस्पृष्ट होती है ?
गौतम ! स्पृष्टा क्रियते, नो अस्पृष्टा क्रियते यावन् नियमात् षड्दिशः क्रियते ।
सा चैव यावन् नो अनानुपूर्वीकृता इति वक्तव्यं स्यात् ।
सा भदन्त ! किं कृता क्रियते ? अकृता २८३. भन्ते ! क्या वह कृत होती है ? अथवा क्रियते ?
अकृत होती है।
गौतम ! कृता क्रियते, नो अकृता क्रियते ।
गौतम ! वह कृत होती है, अकृत नहीं होती ।
यथा नैरयिकाः तथा एकेन्द्रियवर्जाः भणितव्याः यावद् वैमानिकाः । एकेन्द्रियाः यथा जीवाः तथा भणितव्याः ।
यथा प्राणातिपातः तथा मृषावादः तथा अदत्तादानं, मैथुनं परिग्रहः, क्रोधः, मानः, माया, लोभः, प्रेयः, दोषः, कलहः, अभ्याख्यानं, पैशुन्यं, परपरिवादः, अरतिरतिः, मायामृषा, मिथ्यादर्शनशल्यम् — एवं एते अष्टादश । चतुर्विंशतिः दण्डकाः भणि
तव्याः ।
१. सूत्र २७६-२८६
क्रिया का सामान्य अर्थ है परिस्पन्द, हलन चलन । प्रस्तुत प्रकरण में क्रिया का अर्थ है 'कर्म' अथवा 'प्रवृत्ति' । सूत्रकृतांग चूर्णि में क्रिया, कर्म, परिस्पन्द और कर्मबन्ध-ये एकार्थक माने गये
१. भ. वृ. १ । २७६ – क्रियत इति क्रिया-कर्म ।
२. सूत्र. चू. पू. ३१६ क्रिया कर्म परिस्पन्द इत्यनर्थान्तरम् ।
भगवई
२८०. भन्ते ! क्या वह आनुपूर्वी ( क्रम) - कृत होती है ? अथवा अनानुपूर्वीकृत होती है ? गौतम ! वह आनुपूर्वीकृत होती है, अनानुपूर्वी- कृत नहीं होती। जो क्रिया की गई हैं, जो की जा रही है और जो की जायेगी, यह सारी आनुपूर्वी कृत है, अनानुपूर्वीकृत नहीं ----ऐसा कहा जा सकता है।
भाष्य
गौतम ! वह स्पृष्ट होती है, अस्पृष्ट नहीं होती यावत् नियमतः छहों दिशाओं में होती है।
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२८४. यहां पूर्व-आलापक वक्तव्य है यावत् वह अनानुपूर्वीकृत नहीं होती ऐसा कहा जा सकता
है ।
२८५. एकेन्द्रिय जीवों को छोड़कर वैमानिक तक के सभी जीव नैरयिक की भांति वक्तव्य हैं। एकेन्द्रिय सामान्य जीव की भांति वक्तव्य हैं।
२८६. प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोभ, प्रेय, द्वेष, कलह, अभ्याख्यान, पैशुन्य, परपरिवाद, अरतिरति मायामृषा और मिथ्यादर्शनशल्य-ये अठारह क्रियाएं हैं। जैसे प्राणातिपात का आलापक चौबीस दण्डक में कहा गया, वैसे सभी आलापक वक्तव्य हैं।
मृषावाद आदि
हैं।' प्रज्ञापनावृत्ति में 'कर्मबन्ध की हेतुभूत चेष्टा' को क्रिया कहा गया है। प्राणातिपात आदि अठारह क्रियाएं यहां निर्दिष्ट हैं । प्राण का वियोजन करना प्राणातिपात-क्रिया है। इसी प्रकार मृषा वचन
३. प्रज्ञा.वृ. प. ४३५ करणम् – क्रिया — कर्मबन्धनिबन्धनं चेष्टा ।
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