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भगवई
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श.१: उ.६: सू.२६७-२७३
फुसणा-पदं
क्रियापदों के साथ अवभासित की भांति पूर्ण
आलापक वक्तव्य है। स्पर्शना-पदम्
स्पर्शना-पद २६८. से नृणं भंते ! सव्बंति सवाति अथ नूनं भदन्त ! 'सव्वंति सव्वावंति' स्पृश्य- २६८. 'भन्ते ! स्पृश्यमान काल के समय में कोई फुसमाणकालसमयंसि जावतियं खेत्तं फुसइ मानकालसमये यावत् क्षेत्रं स्पृशति तावत् स्कन्ध सब दिशाओं में सर्वात्मना जितने क्षेत्र का तावतियं फुसमाणे पुढे त्ति वत्तव्बं सिया? स्पृश्यमानं स्पृष्टम् इति वक्तव्यं स्यात् । स्पर्श करता है, क्या उतने स्पृश्यमान क्षेत्र को
स्पृष्ट कहा जा सकता है ? हंता गोयमा ! सव्वंति सब्वावंति फुसमाण- हन्त गौतम ! 'सव्वंति सब्वावंति' स्पृश्य- हां, गौतम ! स्पृश्यमान काल के समय में वह सब कालसमयंसि जावतियं खेत्तं फुसइ तावतियं मानकालसमये यावत् क्षेत्रं स्पृशति तावत् दिशाओं में सर्वासना जितने क्षेत्र का स्पर्श करता फुसमाणे पुढे त्ति वत्तवं सिया।। स्पृश्यमानं स्पृष्टम् इति वक्तव्यं स्यात् । है, उतने स्पृश्यमान क्षेत्र को स्पृष्ट कहा जा सकता
२६६. तं भंते ! किं पुढे फुसइ ? अपुढे फुसइ ? गोयमा ! पुढे फुसइ, नो अपुढे फुसइ जाव नियमा छद्दिसि फुसइ॥
तद् भदन्त ! किं स्पृष्टं स्पृशति ? अस्पृष्टं २६६. भन्ते ! क्या कोई स्कन्ध स्पृष्ट क्षेत्र का स्पर्श स्पृशति ?
करता है ? अथवा अस्पृष्ट क्षेत्र का स्पर्श करता है ? गौतम ! स्पृष्टं स्पृशति, नो अस्पृष्टं यावन् गौतम! वह स्पृष्ट क्षेत्र का स्पर्श करता है, अस्पृष्ट क्षेत्र नियमात् षड्दिशः स्पृशति।
का स्पर्श नहीं करता यावत् नियमतः छहों दिशाओं का स्पर्श करता है।
२७०. लोयंते भंते ! अलोयंतं फुसइ ? लोकान्तः भदन्त ! अलोकान्तं स्पृशति ? २७०. भन्ते ! क्या लोकान्त अलोकान्त का स्पर्श अलोयंते वि लोयंतं फुसइ ?
अलोकान्तोऽपि लोकान्तं स्पृशति ? करता है ? अलोकान्त भी लोकान्त का स्पर्श करता
हंता गोयमा ! लोयंते अलोयंतं फुसइ, हन्त गौतम ! लोकान्तः अलोकान्तं स्पृशति, अलोयंते वि लोयंतं फुसइ॥
अलोकान्तोऽपि लोकान्तं स्पृशति ।
हां, गौतम ! लोकान्त अलोकान्त का स्पर्श करता है और अलोकान्त भी लोकान्त का स्पर्श करता है।
२७१. तं भंते ! किं पढें फुस अपुटुं
फुसइ ? गोयमा ! पुटुं फुसइ, नो अपुढे जाव नियमा छद्दिसि फुसइ॥
तद् भदन्त ! किं स्पृष्टं स्पृशति ? अस्पृष्टं २७१. भन्ते ! क्या वह स्पृष्ट क्षेत्र का स्पर्श करता स्पृशति ?
है ? अथवा अस्पृष्ट क्षेत्र का स्पर्श करता है ? गौतम ! स्पृष्टं स्पृशति, नो अस्पृष्टं यावन् गौतम ! वह स्पृष्ट क्षेत्र का स्पर्श करता है, अस्पृष्ट नियमात् षड्दिशः स्पृशति।
क्षेत्र का स्पर्श नहीं करता यावत् नियमतः छहों दिशाओं का स्पर्श करता है।
२७२. दीवंते भंते ! सागरंतं फुसइ ? सागरते
वि दीवंतं फुसइ ?
हंता गोयमा ! दीवंते सागरंतं फुसइ, सागरते वि दीवंतं फुसइ जाव नियमा छद्दिसि फुसइ॥
द्वीपान्तः भदन्त ! सागरान्तं स्पृशति ? साग- २७२. भन्ते ! क्या द्वीप का अन्त सागर के अन्त रान्तोऽपि द्वीपान्तं स्पृशति ?
का स्पर्श करता है ? सागर का अन्त भी द्वीप
के अन्त का स्पर्श करता है ? हन्त गौतम ! द्वीपान्तः सागरान्तं स्पृशति, हां, गौतम ! द्वीप का अन्त सागर के अन्त का सागरान्तोऽपि द्वीपान्तं स्पृशति यावन् स्पर्श करता है और सागर का अन्त भी द्वीप के नियमात् षड्दिशः स्पृशति ।
अन्त का स्पर्श करता है यावत् नियमतः छहों दिशाओं का स्पर्श करता है।
२७३. उदयंते भंते ! पोयंतं फुसइ ? पोयंते वि उदयंतं फुसइ ?
हंता गोयमा! उदयंते पोयंत फुसइ, पोयंते वि उदयंतं फुसइ जाव नियमा छद्दिसि फुसइ॥
उदकान्तः भदन्त ! पोतान्तं स्पृशति ? पोता- २७३. भन्ते ! क्या पानी का अन्त जलयान के न्तोऽपि उदकान्तं स्पृशति ?
अन्त का स्पर्श करता है ? जलयान का अन्त
भी पानी के अन्त का स्पर्श करता है ? हन्त गौतम ! उदकान्तः पोतान्तं स्पृशति। हां, गौतम ! पानी का अन्त जलयान के अन्त पोतान्तोऽपि उदकान्तं स्पृशति यावन् का स्पर्श करता है और जलयान का अन्त भी नियमात् षड्दिशः स्पृशति।
पानी के अन्त का स्पर्श करता है यावत् नियमतः छहों दिशाओं का स्पर्श करता है।
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