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भगवई
श.१: उ.३ः सू.१४०-१४६ बन्ध करता है। कर्म-बन्ध नियति से जुड़ा हुआ नहीं है। नियतिवादी निर्दिष्ट हैं—मद्य, निद्रा, विषय, कषाय, द्यूत और प्रतिलेखन।" अवधारणा का अस्वीकार ही उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पुरुषकार उन्होंने वैकल्पिक रूप में प्रमाद के अन्तर्गत मिथ्यात्व, अविरति और
और पराक्रम का स्वीकार है। नियतिवाद के अनुसार जीव के कषाय का निर्देश किया है और दो गाथाएं उद्धृत कर उसकी पुष्टि कर्म-बन्ध उत्थान आदि से नहीं होता। भगवान् महावीर पुरुषार्थवाद की है। उन गाथाओं में प्रमाद के आठ प्रकार बतलाए गए हैंके प्रतिपादक हैं। वृत्तिकार ने नियतिवाद की चर्चा गोशालक के १. अज्ञान २. संशय ३. मिथ्याज्ञान ४. राग ५. द्वेष ६. मतिभ्रंश नामोल्लेखपूर्वक की है।'
७. धर्म में अनादर ८. योग (मन, वचन और काया) का दुष्प कर्मवाद जैन दर्शन का एक महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त है। उसके
णिधान ।" ठाणं में प्रमाद को दुःख या कर्म-बन्ध का हेतु कहा गय अन्तर्गत कर्म के बन्ध, उदय, क्षय, क्षयोपशम आदि विषयों पर
है।" तत्त्वाराजवार्तिक में प्रमाद के पन्द्रह प्रकार मिलते हैं-विकथाविचार किया गया है। प्रस्तुत आलापक में कांक्षामोहनीय' के बन्ध
चतुष्क-१. स्त्रीकथा २. भक्तकथा ३. देशकथा ४. राजकया। के हेतुओं का निर्देश है। बन्ध के दो हेतु बतलाए गए हैं-प्रमाद
कषायचतुष्क-५. क्रोध ६. मान ७. माया .. लोभ ६-१३. पांच और योग। पण्णवणा में कर्म-बन्ध के संक्षेप में राग और द्वेष ये दो।
इन्द्रियों की राग-द्वेषात्मक परिणति। १४. निद्रा १५. प्रणय कारण बतलाए गए हैं। राग के दो प्रकार है-माया और लोभ (विषय)। तथा द्वेष के दो प्रकार हैं--क्रोध और मान | विस्तार में कर्म-बन्ध प्रमाद के उक्त वर्गीकरणों से उसकी कोई निश्चित परिभाष के ये चार कारण बन जाते हैं। ठाणं में भी इन चार हेतुओं का फलित नहीं होती। जितनी सावध प्रवृत्तियां हैं, उन्हें यदि प्रमाद माना उल्लेख मिलता है।' वहां पांच आस्रवों का भी उल्लेख मिलता है।' जाए, तो योग का कोई उससे भिन्न अर्थ नहीं होगा। उस अवस्था उत्तरवर्ती साहित्य में भी कर्म-बन्ध के पांच कारण बतलाए गए हैं। में अशुभ योग और प्रमाद एकार्थक बन जाएंगे। दो हेतुओं का सबसे पहले कर्म-बन्ध के पांच हेतुओं का प्रयोग उमास्वाति ने किया उल्लेख है; इसलिए दोनों की सीमा स्वतन्त्र होनी चाहिए। इस सीमा है-मिष्यादर्शनाविरतिप्रमादकषाययोगा बन्धहेतवः। उत्तरवर्ती ग्रन्थकार की दृष्टि से विचार करने पर हम इस निष्कर्ष पर पहुंच जाते हैं कि उसका अनुगमन करते रहे हैं। किन्तु कर्म-शास्त्र में कर्म-बंध के चार कर्म-बन्ध की प्रक्रिया में मुख्यतः दो कर्म हेतुभूत बनते हैं—मोहकर्म कारण बतलाए गए हैं, जिनमें प्रमाद का उल्लेख नहीं है।
और नामकर्म।" प्रमाद मोह कर्म की सूचना देने वाला पद है और कालक्रम की दृष्टि से विमर्श करने पर कर्म-बन्ध के हेतओं योग नाम कर्म का सूचक पद है। का प्रस्तुत आलापकवर्ती वर्गीकरण प्राचीन प्रतीत होता है। प्रस्तुत जयाचार्य ने धर्मसी मुनि का मत उद्धत किया है। धर्मसी आगम के आठवें शतक में भी प्रमाद और योग का बन्धहेतु के रूप मुनि ने 'योग' का अर्थ अशुभ योग किया है। किन्तु प्रमाद और में उल्लेख मिलता है। क्रिया के हेतु के रूप में भी इन दोनों का योग के सम्बन्ध पर विचार करने पर यह अर्थ विमर्शनीय लगता उल्लेख मिलता है।
है। यदि योग को अशुभ मान लिया जाए, तो फिर प्रमाद का अर्थ वृत्तिकार ने प्रमाद का एक अर्थ मद्य आदि किया है। प्रमाद क्या होगा ? यहां प्रमाद स्वयं सावध योगरूप है, फिर प्रमाद और का यह वर्गीकरण ठाणं में उपलब्ध है। वहां प्रमाद के छह प्रकार
योग में कोई भेदरेखा नहीं खींची जा सकती। इसलिए प्रमाद का
१.भ.बृ.१।१४६–'एवम्' उक्तन्यायेन जीवस्य काङ्क्षामोहनीयकर्मबन्धकत्वे सति 'अस्ति' विद्यते न तु नास्ति । यथा गोशालकमते नास्ति जीवानामृत्थानादि, पुरुषार्थासाधकत्वात्, नियतित एव पुरुषार्थसिद्धेः, यदाह
"प्राप्तव्यो नियतिबलाश्रयेण योऽर्थः । सोऽवश्यं भवति नृणां शुभोऽशुभो वा । भूतानां महति कृतेऽपि हि प्रयले ।
नाभाव्यं भवति न भाविनोऽस्ति नाशः ।।" इति । एवं हि अप्रामाणिकाया नियतेरभ्युपगमः कृतो भवति, अध्यक्षसिद्धपुरुषकारापलापश्च स्यादिति। २. देखें,११११२ का भाष्यांक २। ३. पण्ण.२३।६। ४. ठाणं,४६२६ ५. वही,५1१०६। ६.त.सू.८/१। ७. पं.सं.(दि.) चतुर्थ अधिकार 'शतक', गा.७७, पृ.१०५ -
मिच्छासंजम हुँति हु कसाय जोगा य बंधहेऊ ते।
पंचदुवालसभेया कमेण पणुवीस पण्णरसं॥ ८. भ.८/३६६
६. वही,३११४१,१४२ । १०. भ.वृ.१।१४१ -प्रमादश्च मद्यादिः। ११. ठाणं,६।४४। १२. भ.वृ.१1१४१ अथवा प्रमादग्रहणेन मिथ्यात्वाविरतिकषायलक्षणं बन्धहेतु त्रयं गृहीतम् । इष्यते च प्रमादेऽन्तर्भावोऽस्य, यदाह
“पमाओ य मुणिंदेहि, भणिओ अट्ठभेयओ। अण्णाणं संसओ चेव, मिच्छानाणं तहेव य ॥ रागो दोसो मइब्भंसो, धम्ममि य अणायरो।
जोगाणं दुप्पणीहाणं, अट्ठहा वज्जियव्वओ।" ति । १३. ठाणं, ३।३३६। १४. त.रा.वा.७।१३,पृ.५४०–पञ्चदशप्रमादपरिणतो वा । अथवा चतसृभिः
विकथाभिः कषायचतुष्टयेन पञ्चभिरिन्द्रियैः निद्राप्रणयाभ्यां च परिणतो यः स
प्रमत्त इति कथ्यते। १५. भ.८४४२०-४३३। १६. भ.जो.१।१२।२४
हां रे सुगुणा ! अर्थ कियो धर्मसीह, मिथ्यात्वी ए परमादी । हां रे सुगुणा ! अशुभ जोगी पिण तेह, समदृष्टि कंख न बांधी।।
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