________________
श.१: उ.३ः सू.१३६-१४६
भगवई
१. सूत्र १३६ एत्यं और इहं दोनों शब्दों का एक साथ प्रयोग हुआ है।।
स्पन्दात्मक होता है। इसमें एक धर्म की निवृत्ति होती है और दूसरे साधारणतया दोनों एकार्थक प्रतीत होते हैं, किन्तु वास्तव में ये
धर्म की उत्पत्ति, किन्तु अर्थान्तर में गमन नहीं होता। ‘गमनीय' यह एकार्थक नहीं हैं। एत्यं एतत् शब्द का प्रतिरूपक अव्यय है। इसका
स्थूल परिवर्तन का सूचक है, इसमें जात्यन्तर या अर्थान्तर में गमन अर्थ है-समीपतरवर्ती। इहं इदं शब्द का प्रतिरूपक अव्यय है।
होता है। जल में तरंग होना यह परिणमन है। जल का बर्फ हो इसका अर्थ है समीपवर्ती।' प्रस्तुत प्रकरण (सू. १३३-१३६) में
___जाना यह अर्थान्तर-गमन है। इस प्रकार ‘गमनीय' शब्द के प्रज्ञापनीय, परिणमइ इस क्रिया-पद का तथा गमणिजं इस अर्धक्रियापद का प्रयोग ज्ञय, पारवतनाय आदि अनेक अर्थ किए जा सकते है। मिलता है। 'परिणाम' का अर्थ स्वजातिगत परिवर्तन है। यह अपरिकंखामोहणिजस्स बंधादि-पदं
कांक्षामोहनीयस्य बन्धादि-पदम् कांक्षामोहनीय का बंध आदि-पद
१४०. जीवा णं भंते ! कंखामोहणिज्जं कम्मं
बंधति ? हंता बंधंति॥
जीवाः भदन्त ! काक्षामोहनीयं कर्म बन- १४०. 'भन्ते ! क्या जीव कांक्षामोहनीय कर्म का ति?
बंध करते हैं ? हंत बजन्ति।
हां, करते हैं।
१४१. कहणं भंते ! जीवा कंखामोहणिलं कम्मं बंघति ? गोयमा ! पमादपञ्चया, जोगनिमित्तं च ॥
कथं भदन्त ! जीवाः काङ्क्षामोहनीयं कर्म १४१. भन्ते ! जीव कांक्षामोहनीय कर्म का बंध बध्नन्ति ?
किस हेतु से करते हैं ? गौतम ! प्रमादप्रत्ययाद योगनिमित्तं च । गौतम ! उसका प्रत्यय-हेतु (परिणामी कारण)
प्रमाद और निमित्त-हेतु योग (मन, वचन और काया की प्रवृत्ति) है।
१४२. से णं भंते ! पमादे किंपवहे ?
गोयमा ! जोगप्पवहे ॥
अथ भदन्त ! प्रमादः किंप्रवहः ? गौतम ! योगप्रवहः।
१४२. भन्ते ! प्रमाद किससे उत्पन्न होता है ? गौतम ! प्रमाद योग से उत्पन्न होता है।
१४३. से णं भंते ! जोए किंपवहे ?
गोयमा ! वीरियप्पवहे॥
अथ भदन्त ! योगः किंप्रवहः ? गौतम ! वीर्यप्रवहः ।
१४३. भन्ते ! योग किससे उत्पन्न होता है ? गौतम ! योग वीर्य से उत्पन्न होता है।
१४४. से णं भंते ! वीरिए किंपवहे ?
गोयमा ! सरीरप्पवहे ॥
अथ भदन्त ! वीर्यं किंप्रवहम् ? गौतम ! शरीरप्रवहम्।
१४४. भन्ते ! वीर्य किससे उत्पन्न होता है ? गौतम ! वीर्य शरीर से उत्पन्न होता है।
१४५. से णं भंते ! सरीरे किंपवहे ?
गोयमा ! जीवप्पवहे॥
अथ भदन्त ! शरीरं किंप्रवहम् ? गौतम ! जीवप्रवहम् ।
१४५. भन्ते ! शरीर किससे उत्पन्न होता है ?
गौतम ! शरीर जीव से उत्पन्न होता है।
१४६. एवं सति अस्थि उट्ठाणेइ वा, कम्मेइ
वा, बलेइ वा, वीरिएइ वा, पुरिसक्कार- परक्कमेइ वा॥
एवं सति अस्ति उत्थानम् इति वा, कर्म इति १४६. ऐसा होने पर उत्थान', कर्म', बल, वीर्य वा, बलम् इति वा, वीर्यम् इति वा, पुरुष- और पुरुषकार -पराक्रम का अस्तित्व सिद्ध कार-पराक्रम इति वा।
होता है।
भाष्य
१. सूत्र १४०-१४६
प्रस्तुत आलापक में जीव की स्वतन्त्रता और उसके कर्तृत्व के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया गया है। जीव अपने पराक्रम से कर्म का
१. आप्टे,–'अदस्' शब्द-'इदमस्तु संनिकृष्टं, समीपतरवर्ति चैतदो रूपम् ।
अदसस्तु विप्रकृष्टं, तदिति परोक्षे विजानीयात् ।।'
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org