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श.१: उ.३ः सू.१४०-१४८
भगवई अर्थ मोहनीय कर्म के उदय से होने वाली मूर्छा अथवा अशुभ ३. निमित्त व्यापार और योग का अर्थ नामकर्म के उदय से होने वाली शरीर,वाणी
सहकारी कारण। और मन की प्रवृत्ति है। प्राणी की सारी प्रवृत्तियां जीव और शरीर दोनों के संयोग से होती हैं। शरीर का निर्माण जीव के द्वारा होता
४. उत्थान है।' वीर्य दो प्रकार का होता है क्रियात्मक (सकरण) और अक्रिया
कार्य की निष्पत्ति के लिए प्रस्तुत होना । त्मक (अकरण)। जीव का अपरिस्पन्दात्मक वीर्य केवल जीव से ५. कर्म संबद्ध होता है। जीव का परिस्पन्दात्मक वीर्य शरीर से उत्पन्न होता प्रवृत्त होना। है। उसी के द्वारा मन, वचन और शरीर की प्रवृत्तियां संचालित
६. बल होती हैं।
शारीरिक सामर्थ्य । उमास्वाति ने योग का अर्थ काय, वाक् और मन का कर्म किया है। 'सिद्धसेनगणी ने योग की प्रक्रिया में चार तत्त्वों का उल्लेख
७. वीर्य किया है—आत्मा, शरीर, करण और योग।' उनकी तुलना जीवप्रवह
मन, वाणी आदि का सञ्चालन करने वाली शारीरिक ऊर्जा शरीर, शरीरप्रवह वीर्य और वीर्यप्रवह योग से की जा सकती है।
या प्राणशक्ति। विशेष जानकारी के लिए द्रष्टव्य भ. ६।५१४ का भाष्य। ८. पुरुषकार
शरीर और मन की समस्या दार्शनिक जगत् में एक गुत्थी पौरुषाभिमान,"मैं ऐसा कर सकता हूं"इस प्रकार की अवबनी हुई है। इस प्रकरण से इसका सहज समाधान हो जाता है। धारणा। मन का संचालन शरीर-जनित वीर्य से होता है। इससे शरीर और ६. पराक्रम मन के सम्बन्ध को सहज ही समझा जा सकता है। योग (मन,
कार्य-निष्पत्ति में सक्षम प्रयल। वचन और काया की प्रवृत्ति) मोहकर्म के उदय से जुड़कर प्रमाद बन जाता है, इसलिए प्रमाद का उत्पत्तिस्रोत योग माना गया है।
वृत्तिकार ने वीर्य का अर्थ 'जीव का उत्साह' किया है।'
किन्तु मूल पाठ में वीर्य को शरीर से उत्पन्न बतलाया गया है। वृत्ति २. प्रत्यय
में 'पुरुषकार' का वैकल्पिक अर्थ पुरुष-क्रिया किया गया है। इस मूल कारण, उपादान अथवा परिणामी कारण।
विषय में ठाणं, १।४४ सूत्र और उसका टिप्पण द्रष्टव्य है। १४७. से नणं भंते ! अप्पणा चेव उदीरेति? अथ भदन्त ! आत्मना चैव उदीरयति ? १४७. 'भन्ते ! क्या जीव अपने आप ही उदीरणा
अप्पणा चेव गरहति ? अप्पणा चेव संव- आत्मना चैव गर्हते? आत्मना चैव संवृणोति? करता है ? अपने आप ही गर्दा करता है ? रेति ?
अपने आप ही संवरण करता है ? हंता गोयमा ! अप्पणा चेव उदीरेति। हंत गीतम! आत्मना चैव उदीरयति । आत्मना
हां, गौतम ! जीव अपने आप ही उदीरणा करता अप्पणा चेव गरहति । अप्पणा चेव संव- चैव गर्हते । आत्मना चैव संवृणोति।
है, अपने आप ही गर्दा करता है और अपने आप रेति॥
ही संवरण करता है।
१४८. जणं भंते ! अप्पणा चेव उदीरेति,
अप्पणा चेव गरहति, अप्पणा चेव संवरेति, तं किं-१. उदिण्णं उदीरेति? २. अणु- दिणं उदीरेति ? ३. अणुदिण्णं उदीरणाभवियं कम्मं उदीरेति ? ४. उदयाणंतर- पच्छाकडं कम्मं उदीरेति ?
यद् भदन्त ! आमना चैव उदीरयति, आत्मना १४८. भन्ते ! जीव अपने आप ही जो उदीरणा करता चैव गर्हते, आत्मना चैव संवृणोति, तत् किं है, अपने आप ही जो गर्दा करता है, अपने आप ही -१. उदीर्णम् उदीरयति ? २. अनुदीर्णम् जो संवरण करता है, वह क्या--१. उदीर्ण (उदयउदीरयति ? ३. अनुदीर्णम् उदीरणाभविकं प्राप्त) की उदीरणा करता है ? २. अनुदीर्ण की उदीकर्म उदीरयति ? ४. उदयानन्तरपश्चात्- रणा करता है? ३. अनुदीर्ण किन्तु उदीरणायोग्य कृतं कर्म उदीरयति ?
कर्म की उदीरणा करता है? ४. अथवा उदय के अनन्तर पश्चात्कृत (भुक्त) कर्म की उदीरणा करता
१. भ.वृ.१।१४५ -इह यधपि शरीरस्य कर्मापि कारणं न केवलं एव जीव- शरीरप्रवहम् । शरीरं विना तदभावादिति।
स्तथाऽपि कर्मणो जीवकृतत्वेन जीवप्राधान्यात् जीवप्रवहं शरीरमित्युक्तम्। ३. त.सू.६।१। २. वही,१।१४३,१४४–वीर्य नाम वीर्यान्तरायकर्मक्षयक्षयोपशमसमुत्थो जीव- ४.त.सू.भा.वृ.६।१। परिणामविशेषः।
५. भ.वृ.१।१४६-वीर्यम्-जीवोत्साहः । 'सरीरप्पवहे'त्ति वीर्य द्विधा-सकरणमकरणं च, तत्रालेश्यस्य केवलिनः ६. वही,१।१४६ पुरुषकारश्च पौरुषाभिमानः पराक्रमश्च स एव साधिताभिमतकृत्खयो यदृश्ययोः केवलं ज्ञानं दर्शनं चोपयुजांनस्य योऽसावपरिस्पन्दोऽप्रतिघो प्रयोजनः पुरुषकारपराक्रमः अथवा पुरुषकारः-पुरुषक्रिया सा च प्रायः स्त्रीजीवपरिणामविशेषस्तदकरणं तदिह नाधिक्रियते । यस्तु मनोवाकायकरणसाधनः क्रियातः प्रकर्षवती भवतीति तत्स्वभावत्वादिति विशेषेण तद्ग्रहणम्, पराक्रमसलेश्यजीवकर्तृको जीवप्रदेशपरिस्पन्दात्मको व्यापारोऽसौ सकरणं वीर्य तमस्तु शत्रुनिराकरणमिति ।
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