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________________ श.१: उ.२ः सू.६५-७१ ५० भगवई ६५. सेकेणद्वेणं भंते ! एवं बुचइ-नेरइया नो सब्बे समवण्णा ? गोयमा ! नेरइया दुविहा पण्णत्ता, तं जहा -पनोवववगाय, पच्छोववनगा य । तत्थ णं जेते पुब्बोववनगा ते णं विसुद्धवण्ण- तरागा। तत्थ णं जेते पच्छोववत्रगा ते णं अविसुद्धवण्णतरागा। से तेणद्वेणं गोयमा! एवं बुचइ-नेरइया नो सब्बे समवण्णा॥ तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-नैरयिकाः ६५. भन्ते ! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है नो सर्वे समवर्णाः ? -सब नैरयिक समान वर्ण वाले नहीं हैं ? गौतम ! नैरयिकाः द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, तद् यथा गौतम ! नैरयिक दो प्रकार के प्रज्ञप्त हैं, जैसे-पूर्वोपपत्रकाः च, पश्चादुपपन्नकाः च, तत्र । पूर्व उपपन्न और पश्चाद् उपपन्न। इनमें जो पूर्व ये एते पूर्वोपपन्नकाः ते विशुद्धतरकवर्णाः। उपपन्न हैं, वे विशुद्धतर वर्ण वाले हैं । इनमें जो तत्र ये एते पश्चादुपपत्रकाः ते अविशुद्धतर- पश्चाद् उपपन्न हैं, वे अविशुद्धतर वर्ण वाले हैं। कवर्णाः । तत् तेनार्थेन गौतम! एवमुच्यते- गौतम ! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा हैनैरयिकाः नो सर्वे समवर्णाः । सब नैरयिक समान वर्ण वाले नहीं हैं। ६६. नेरड्या णं भंते ! सब्बे समलेस्सा? नैरयिकाः भदन्त ! सर्वे समलेश्याः ? ६६. भन्ते ! क्या सब नैरयिक समान लेश्या वाले गोयमा ! नो इणद्वे समढे ॥ गौतम ! नो अयमर्थः समर्थः । गौतम ! यह अर्थ संगत नहीं है। ६७. से केणद्वेणं भंते ! एवं बुचइ-नेरइया तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-नैरयिकाः ६७. भन्ते ! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है नो सब्वे समलेस्सा ? नो सर्वे समलेश्याः ? -सब नैरयिक समान लेश्या वाले नहीं हैं ? गोयमा ! नेरइया दुविहा पण्णत्ता, तं जहा गौतम! नैरयिकाः द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, तद् गौतम ! नैरयिक दो प्रकार के प्रज्ञप्त हैं, जैसे -पव्वोववनगा य, पच्छोववनगा य । तत्थ यथा-पूर्वोपपन्नकाः च, पश्चादुपपन्नकाः । पूर्व उपपन्न और पश्चाद् उपपन्न । इनमें जो पूर्व णं जेते पुब्बोववन्नगा ते गं विसुद्धलेस्स- च। तत्र ये एते पूर्वोपपन्नकाः ते विशुद्धतरक- उपपन्न हैं, वे विशुद्धतर लेश्या वाले हैं। इनमें तरागा। तत्थ णं जेते पच्छोववनगा ते णं लेश्याः। तत्र ये एते पश्चादुपपन्नकाः ते जो पश्चाद् उपपन्न हैं, वे अविशुद्धतर लेश्या वाले अविसुद्धलेस्सतरागा। से तेणटेणं गोयमा! अविशुद्धतरकलेश्याः । तत् तेनार्थेन गौतम! हैं। गौतम ! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा एवं बुचइ-नेरइया नो सव्वे समलेस्सा॥ एवमुच्यते-नैरयिकाः नो सर्वे समलेश्याः । है-सब नैरयिक समान लेश्या वाले नहीं हैं। ६८. नेरइया णं भंते ! सब्बे समवेयणा? नैरयिकाः भदन्त ! सर्वे समवेदनाः ? ६५. भन्ते ! क्या सब नैरयिक समान वेदना वाले गोयमा ! नो इणद्वे समढे ॥ गौतम ! नो अयमर्थः समर्थः। गौतम ! यह अर्थ संगत नहीं है। ६६.से केणटेणं भंते ! एवं बुचइ-नेरइया तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-नैरयिकाः ६६. भन्ते ! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है नो सव्वे समवेयणा ? नो सर्वे समवेदनाः ? -सब नैरयिक समान वेदना वाले नहीं हैं ? गोयमा ! नेरइया दुविहा पण्णत्ता, तं जहा गोतम ! नैरयिकाः द्विविधाः प्रज्ञप्ताः तद् यथा गौतम ! नैरयिक दो प्रकार के प्रज्ञप्त हैं, जैसे - -सण्णिभूया य, असण्णिभूया य । तत्थ -संज्ञिभूताश्च, असंज्ञिभूताश्च। तत्र ये संज्ञिभूत और असंज्ञिभूत । इनमें जो संज्ञिभूत हैं, णं जेते सण्णिभूया ते णं महावेयणा। तत्थ एते संज्ञिभूताः ते महावेदनाः। तत्र ये एते वे महान् वेदना वाले हैं । इनमें जो असंज्ञिभूत णं जेते असण्णिभूया ते णं अप्पवेयण- असंज्ञिभूताः ते अल्पतरकवेदनाः। तत् हैं, वे अल्पतर वेदना वाले हैं। गौतम ! इस तरागा। से तेजडेणं गोयमा एवं बुचइ- तेनार्थेन गौतम ! एवमुच्यते-नैरयिकाः नो अपेक्षा से यह कहा जा रहा है–सब नैरयिक नेरइया नो सब्बे समवेयणा ॥ सर्वे समवेदनाः। समान वेदना वाले नहीं हैं। ७०. नेरडया णं भंते ! सव्वे समकिरिया ? नैरयिकाः भदन्त ! सर्वे समक्रियाः ? ७०. भन्ते ! क्या सब नैरयिक समान क्रिया वाले गोयमा ! नो इणद्वे समढे ॥ गौतम ! नो अयमर्थः समर्थः । गौतम ! यह अर्थ संगत नहीं हैं। ७१. से केणद्वेणं भंते ! एवं बुचइ-नेरइया तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-नैरयिकाः ७१. भन्ते ! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है नो सव्वे समकिरिया ? नो सर्वे समक्रियाः ? -सब नैरयिक समान क्रिया वाले नहीं हैं? गोयमा ! नेरइया तिविहा पण्णत्ता, तं जहा गौतम! नैरयिकाः त्रिविधाः प्रज्ञप्ताः, तद् यथा गौतम ! नैरयिक तीन प्रकार के प्रज्ञप्त हैं, जैसे -सम्मदिट्टी, मिच्छदिट्ठी, सम्मामिच्छ- सम्यग्दृष्टयः मिथ्यादृष्टयः सम्यगमिथ्या- -सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि । दिटूठी । तत्थ णं जेते सम्मदिट्ठी तेसि णं दृष्टयः । तत्र ये एते सम्यग्दृष्टयः तेषां चतस्रः इनमें जो सम्यग्दृष्टि हैं, उनके चार क्रियाएं प्रज्ञप्त चत्तारि किरियाओ पण्णत्ताओ, तं जहा- क्रियाः प्रज्ञप्ताः, तद् यथा-आरम्भिकी, हैं, जैसे—आरंभिकी, पारिग्रहिकी, मायाप्रत्यया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003593
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages458
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size12 MB
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