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श. २: उ.१०: सू. १३६-१३६
१. सूत्र १३६, १३७
जीव स्वरूप से अमूर्त और चैतन्यमय है, किन्तु प्रत्येक संसारी जीव शरीरधारी है। शरीरधारी होने के कारण वह मूर्त है, उसका चैतन्य अदृश्य है। वह क्रिया अथवा प्रवृत्ति के द्वारा दृश्य बनता है। जीव की पहचान ज्ञान से नहीं होती, ज्ञानपूर्वक होनेवाली प्रवृत्ति से होती है। प्रवृत्ति की छह अवस्थाओं का सूत्रकार ने उल्लेख किया है—उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पुरुषकार और पराक्रम । जीव उत्थान गमन, शयन, भोजन आदि आत्मभावों के द्वारा अपने चैतन्य को अभिव्यक्त करता है। विशिष्ट उत्थान विशिष्ट चेतनापूर्वक होता है। — प्रत्येक विशिष्ट उत्थान के पीछे एक विशिष्ट प्रकार की चेतना काम करती है। यह चैतन्यपूर्वक होनेवाली प्रवृत्ति ही जीव का लक्षण
आगास-पदं
१३८. कतिविहे णं भंते ! आगासे पण्णत्ते ? गोयमा ! दुविहे आगासे पण्णत्ते, तं जहा - लोयागासे य अलोयागासे य ॥
१३६. लोयागासे णं भंते ! किं जीवा ? जीवदेसा ? जीवप्पदेसा ? अजीवा ? अजीवदेसा ? अजीवप्पदेसा ? गोयमा ! जीवा वि, जीवदेसा वि, जीवप्पदेसा वि; अजीवा वि, अजीवदेसा वि, अजीवप्पदेसा वि ।
जे जीवा ते नियमा एगिंदिया, बेइंदिया, तेइंदिया, चउरिदिया, पंचिंदिया, अणि दिया। जे जीवदेसा ते नियमा एगिंदियदेसा, बेइंदियदेसा, तेइंदियदेसा, चउरिदियदेसा, पंचिंदियदेसा, अणिदियदेसा ।
जे जीवप्पसा ते नियमा एगिंदियपदेसा, बेइंदियपदेसा, इंदियपदेसा, चउरिदियपदेसा, पंचिंदियपदेसा, अणिदियपदेसा ।
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भाष्य
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बनती है। जीव का लक्षण उपयोग बतलाया गया है। ज्ञान के अनन्त पर्याय हैं । ज्ञेय के अनुसार ज्ञान के पर्याय का परिवर्तन होता रहता है, इसीलिए उपयोग — चेतना का व्यापार जीव का लक्षण बनता है।
आकाश-पदम्
कतिविधः भदन्त ! आकाशः प्रज्ञप्तः ? गौतम ! द्विविधः आकाशः प्रज्ञप्तः, तद् यथा -लोकाकाशः च अलोकाकाशः च ।
जे अजीवा ते दुविहा पण्णत्ता, तं जहारूवी य अरूवी य ।
१. भ.वृ. २।१३७ —– 'पर्यवाः' प्रज्ञाकृता अविभागाः परिच्छेदाः ।
शब्द-विमर्श
आत्मभाव - उत्थान आदि क्रिया के लिए होनेवाला जीव - परिणाम | जीवभाव जीवत्व, चैतन्य ।
पर्यव—बुद्धि से कृत अविभाग परिच्छेद ।'
लोकाकाशः भदन्त । किं जीवाः ? जीवदेशाः ? जीवप्रदेशाः ? अजीवाः ? अजीवदेशाः ? अजीवप्रदेशाः ?
गौतम ! जीवाः अपि जीवदेशाः अपि, जीवप्रदेशाः अपि अजीवाः अपि, अजीवदेशाः अपि, अजीवप्रदेशाः अपि ।
ये जीवाः ते नियमाद् एकेन्द्रियाः, द्वीन्द्रियाः, त्रीन्द्रियाः चतुरिन्द्रियाः, पञ्चेन्द्रियाः, अनिन्द्रियाः ।
ये जीवदेशाः ते नियमाद् एकेन्द्रियदेशाः, द्वीन्द्रियदेशाः, त्रीन्द्रियदेशाः, चतुरिन्द्रियदेशाः, पञ्चेन्द्रियदेशाः, अनिन्द्रियदेशाः ।
ये जीवप्रदेशाः ते नियमाद् एकेन्द्रियप्रदेशाः, द्वीन्द्रियप्रदेशाः, त्रीन्द्रियप्रदेशाः, चतुरिन्द्रियप्रदेशाः, पञ्चेन्द्रियप्रदेशाः, अनिन्द्रियप्रदेशाः ।
ये अजीवाः ते द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, तद् यथा -रूपिणः च अरूपिणः च ।
भगवई
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आकाश-पद
१३८. आकाश कितने प्रकार का प्रज्ञप्त है ? गौतम ! आकाश दो प्रकार का प्रज्ञप्त है, जैसे— लोकाकाश और अलोकाकाश ।
१३६. भन्ते ! लोकाकाश क्या जीव है ? जीव का देश है ? जीव का प्रदेश है ? अजीव है ? अजीव का देश है ? अजीव का प्रदेश है ? गौतम ! लोकाकाश जीव भी है, जीव का देश भी है, जीव का प्रदेश भी है; अजीव भी है, अजीव का देश भी है और अजीव का प्रदेश भी है ।
जो जीव हैं, वे नियमतः एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पञ्चेन्द्रिय और अनिन्द्रिय हैं।
जो जीव के देश हैं, वे नियमतः एकेन्द्रिय जीवों के देश हैं, द्वीन्द्रिय जीवों के देश हैं, त्रीन्द्रिय जीवों के देश हैं, चतुरिन्द्रिय जीवों के देश हैं, पञ्चेन्द्रिय जीवों के देश हैं और अनिन्द्रिय जीवों के देश हैं।
जो जीवों के प्रदेश हैं, वे नियमतः एकेन्द्रिय जीवों के प्रदेश हैं, द्वीन्द्रिय जीवों के प्रदेश हैं, त्रीन्द्रिय जीवों के प्रदेश हैं, चतुरिन्द्रिय जीवों के प्रदेश हैं, पञ्चेन्द्रिय जीवों के प्रदेश हैं और अनिन्द्रिय जीवों के प्रदेश हैं।
जो अजीव हैं, वे दो प्रकार के प्रज्ञप्त हैं, जैसेरूपी और अरूपी ।
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