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भगवई
एक जीव के प्रदेश असंख्य होते हैं। जीवास्तिकाय के प्रदेश अनन्त बतलाए गए हैं। यह अनन्त जीवों की अपेक्षा से है। पुद्गलास्तिकाय के अनन्त प्रदेश स्कन्ध-समुदय की अपेक्षा से निर्दिष्ट
चेतन / अचेतन मूर्त / अमूर्त
प्रदेशपरिमाण
अचेतन
अमूर्त
धर्मास्तिकाय अधर्मास्तिकाय अचेतन आकाशास्तिकाय अचेतन अमूर्त पुद्गलास्तिकाय अचेतन मूर्त जीवास्तिकाय
चेतन
अमूर्त
जीवत्त उवदंसण-पदं
१३६. जीवे णं भंते ! सउट्ठाणे सकम्मे सबले सवीरिए सपुरिसक्कार- परक्कमे आयभावेणं जीवभावं उवदंसेतीति वत्तव्वं सिया ?
हंता गोयमा ! जीवे णं सउट्ठाणे सकम्मे सबले सवीरिए सपुरिसक्कार- परक्कमे आयभावेणं जीवभावं उवदंसेतीति बत्तव्वं सिया ॥
१३७. से केणट्टेणं भंते ! एवं बुच
जीवे सट्टा सकम्मे सबले सवीरिए सपुरिसकार- परक्कमे आयभावेणं जीवभावं उवदंसेतीति वत्तव्यं सिया ?
गोयमा ! जीवे णं अनंताणं आभिणिबोहियनाणपञ्जवाणं, अणंताणं सुयनाणपजवाणं, अणंताणं ओहिनाणपज्जवाणं, अनंताणं मणपञ्जवनाणपजवाणं, अनंताणं वाणपजवाणं, अनंताणं मइअण्णाणपजवाणं, अणंताणं सुयअण्णाणपञ्जवाणं, अनंताणं विभंगनाणपञ्जवाणं, अणंताणं चक्खुदंसणपज्जवाणं, अणंताणं अचक्खुदंसणपज्जवाणं, अणंताणं ओहिदंसणपज्जवाणं, अणंताणं केवलदंसणपज्जवाणं उवओगं गच्छइ । उवओगलक्खणे णं जीवे । से एएणणं एवं बुच्च — गोयमा ! जीवे णं सउट्ठाणे सकम्मे सबले सवीरिए सपुरिसक्कार-परक्कमे आयभावेणं जीवभावं उवदंसेतीति वत्तव्यं सिया ।।
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श. २: उ.१०: सू.१२४-१३७
हैं। लोकाकाश के प्रदेश असंख्य हैं, किन्तु अखंड आकाश के प्रदेश अनन्त है।
पांच अस्तिकायों का विवरण निम्न यंत्र में दिया जा रहा है
गुण
एक / अनन्त क्षेत्रीय अवस्थिति
उदासीन गतिसहायक
एक द्रव्य
लोक-परिमाण
| उदासीन स्थितिसहायक
एक द्रव्य
लोक-परिमाण
अवगाहना
एक द्रव्य
लोकालोक-परिमाण
ग्रहण परस्पर संबंध करना अनन्त द्रव्य उपयोग
लोक-परिमाण लोक-परिमाण
अनन्त द्रव्य
असंख्य
असंख्य
अनन्त
अनन्त
एक जीव की अपेक्षा असंख्य, सम्पूर्ण जीवास्तिकाय की अपेक्षा अनन्त
जीवत्व-उपदर्शन-पदम्
जीवः भदन्त ! सोत्थानः सकर्मा सबल: सवीर्यः सपुरुषकार-पराक्रमः आत्मभावेन जीवभावम् उपदर्शयति इति वक्तव्यं स्यात् ?
हन्त गौतम ! जीवः सोत्थानः सकर्मा सबलः सवीर्यः सपुरुषकार-पराक्रमः आलभावेन जीवभावम् उपदर्शयति इति वक्तव्यं स्यात् ।
तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते— जीवः सोत्थानः सकर्मा सबलः सवीर्यः सपुरुषकार-पराक्रमः आत्मभावेन जीवभावम् उपदर्शयति इति वक्तव्यं स्यात् ?
गौतम ! जीवः अनन्तानाम् आभिनिबोधिकज्ञानपर्यवाणाम्, अनन्तानां श्रुतज्ञानपर्यवाणाम्, अनन्तानाम् अवधिज्ञानपर्यवाणाम्, अनन्तानां मनः पर्यवज्ञानपर्यवाणाम्, अनन्तानां केवलज्ञानपर्यवाणाम्, अनन्तानां मत्यज्ञानपर्यवाणाम्, अनन्तानां श्रुताज्ञानपर्यवाणाम्, अनन्तानां विभंगज्ञानपर्यवाणाम्, अनन्तानां चक्षुर्दर्शनपर्यवाणाम्, अनन्तानाम् अचक्षुर्दर्शनपर्यवाणाम्, अनन्तानाम् अवधिदर्शनपर्यवाणाम्, अनन्तानां केवलदर्शनपर्यवाणाम् उपयोगं गच्छति । उपयोगलक्षणः जीवः । तद् एतेनार्थेन एवमुच्यते— गौतम ! जीवः सोत्थानः सकर्मा सबलः सवीर्यः सपुरुषकार-पराक्रमः आत्मभावेन जीवभावम् उपदर्शयति इति वक्तव्यं स्यात् ।
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जीवत्व - उपदर्शन-पद
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१३६. ' भन्ते ! उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पुरुषकार- पराक्रम से युक्त जीव अपने आत्म-भाव (आत्मप्रवृति) से जीव-भाव ( जीव होने) को प्रकट करता है—क्या यह कहा जा सकता है ? हां, गौतम ! उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पुरुषकार पराक्रम से युक्त जीव अपने आत्म-भाव से जीव-भाव को प्रकट करता है—यह कहा जा सकता है।
१३७. भन्ते ! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है — उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पुरुषकार- पराक्रम से युक्त जीव अपने आत्म-भाव से जीवभाव को प्रकट करता है—यह कहा जा सकता है ?
गौतम ! जीव आभिनिबोधिक ज्ञान के अनन्त पर्यवों, श्रुतज्ञान के अनन्त पर्यवों, अवधिज्ञान के अनन्त पर्यवों मनः पर्यवज्ञान के अनन्त पर्यवों, केवलज्ञान के अनन्त पर्यवों, मतिअज्ञान के अनन्त पर्यवों, श्रुतअज्ञान के अनन्त पर्यवों, विभङ्गज्ञान के अनन्त पर्यवों, चक्षुदर्शन के अनन्त पर्यवों, अचक्षुदर्शन के अनन्त पर्यवों, अवधिदर्शन के अनन्त पर्यवों और केवलदर्शन के अनन्त पर्यवों के उपयोग को प्राप्त होता है। जीव उपयोगलक्षण वाला है। गौतम ! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है—उत्थान, कर्म, बल, वीर्य
और पुरुषकार-पराक्रम से युक्त जीव अपने आत्म-भाव से जीव-भाव को प्रकट करता है— यह कहा जा सकता है।
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