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________________ श. २: उ.१०: सू.१२४-१३५ २६२ दार्शनिक दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण है। जीव तत्त्व का सिद्धान्त अनेक दर्शनों में स्वीकृत है। वह अंगुष्ठ-परिमाण है, देह-परिमाण है अथवा व्यापक है—यह विषय भी चर्चित है, किन्तु उसका स्वरूप-ज्ञानउसके कितने परमाणु या प्रदेश हैं - यह विषय कहीं भी उपलब्ध नहीं है। अस्तिकाय को प्रदेशात्मक बतला कर भगवान् महावीर ने उसके स्वरूप को एक नया आयाम दिया है। जैन दर्शन में अस्तित्व का अर्थ है- परमाणु या परमाणु-स्कन्ध | धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय और जीवास्तिका चार परमाणु-स्कन्ध हैं। इनके परमाणु कभी वियुक्त नहीं होते, इसलिए ये प्रदेश -स्कन्ध कहलाते हैं । पुद्गलास्तिकाय के परमाणु संयुक्त और वियुक्त दोनों अवस्थाओं में होते हैं, इसलिए उसमें परमाणु और परमाणु-स्कन्ध दोनों अवस्थाएं मिलती हैं। पांच अस्तिकायों में एक जीवास्तिकाय के प्रदेश-स्कन्ध चैतन्यमय हैं, शेष तीन अस्तिकायों के प्रदेश- स्कन्ध तथा पुद्गलास्तिकाय के प्रदेश-स्कन्ध और परमाणु चैतन्यरहित हैं, अजीव हैं। पांच अस्तिकायों में चार अस्तिकाय अमूर्त हैं, पुद्गलास्तिकाय मूर्त है। अमूर्त का लक्षण है-वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श का अभाव । मूर्त का लक्षण है –वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श से युक्त होना । शब्द-विमर्श अस्तिकाय— 'अस्ति' शब्द के दो अर्थ हैं१. त्रैकालिक अस्तित्व २. प्रदेश काय का अर्थ है – राशि । ' लोकद्रव्य – चार अस्तिकाय और लोकाकाश के समवाय का नाम है -- लोक । धर्मास्तिकाय लोक का एक घटक है, इसलिए उसे लोकद्रव्य कहा गया है । ' दव्वओ, खेत्तओ, कालओ - देखें २।२७ का भाष्य । भाव और गुण भाव का अर्थ है पर्याय । अस्तिकाय चतुष्टय में भाव का निषेधात्मक निरूपण किया गया है। केवल पुद्गलास्तिकाय में उसका विधायक निरूपण है। वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श-ये पुद्गल के सहभावी धर्म हैं। उत्तरवर्ती दार्शनिक और लाक्षणिक ग्रन्थों में सहभावी धर्म को गुण और क्रमभावी धर्म को पर्याय कहा गया है। १. भ. वृ. २ । १२४ - अस्तिशब्देन प्रदेशा उच्यन्तेऽतस्तेषां काया-राशयोऽस्तिकायाः, अथवाऽस्तीत्ययं निपातः कालत्रयाभिधायी, ततोस्तीति सन्ति आसन् भविष्यन्ति च ये कायाः प्रदेशराशयस्तेऽस्तिकाया इति । २. वही, २।१२५ लोकस्य – पञ्चास्तिकायात्मकस्यांशभूतं द्रव्यं लोकद्रव्यम् । ३. वही, २।१२५ 'गुणओ'त्ति कार्यतः । ४. त. रा. वा. ५1१७ गतिस्थित्योः धर्माधर्मौ कर्तारौ इत्ययमर्थः प्रसक्तः इति, तन्त्र, किं कारणम्, उपकारवचनात्। उपकारो बुलाधानम् अवलम्बनम् इत्यनर्थान्तरम् । तेन धर्माधर्मयोः गतिस्थितिनिर्वर्तने प्रधानकर्तृत्वमपोदितं भवति । भगवई आगम - साहित्य में सहभावी और क्रमभावी दोनों प्रकार के धर्मों को पर्याय कहा गया है । द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक—ये दो ही नय हैं, गुणार्थिक नय विवक्षित नहीं है। वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्शये सहभावी भी हैं और इनका अवस्था-भेद होता रहता है, इसलिए ये क्रमभावी भी हैं। Jain Education International वृत्तिकार ने 'गुण' का अर्थ कार्य किया है। यहां 'गुण' शब्द सहभावी धर्म के अर्थ में प्रयुक्त नहीं है, यह उपकार के अर्थ में प्रयुक्त है। धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय गति और स्थिति के प्रेरक नहीं हैं, केवल उपकारक हैं। गमन गुण का अर्थ होगागति में उपकारक । स्थान- गुण का अर्थ होगा — ठहरने में उपकारक । अवगाहना-गुण का अर्थ होगा - आश्रय में उपकारक । चैतन्य जीव का स्वभाव है। उपयोग चैतन्य की प्रवृत्ति है। सूत्र १३७ में वह जीव के लक्षण के रूप में निर्दिष्ट है; इसलिए वह उपकारक है। उसके द्वारा जीव होने का पता चलता है। जीवास्तिकाय और जीव धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय ये तीनों संख्या की दृष्टि से एक व्यक्तिक हैं। जीव अनन्त हैं। उन अनन्त जीवों के समुदय का नाम जीवास्तिकाय है । परमाणु और परमाणुस्कन्ध भी अनन्त हैं। उनके समुदय का नाम पुद्गलास्तिकाय है। एक जीव जीवास्तिकाय नहीं कहलाता तथा एक कम जीव वाले जीवास्तिकाय को जीवास्तिकाय नहीं कहा जाता। सभी जीवों का समुदय जीवास्तिकाय कहलाता है। पुद्गलास्तिकाय का भी यही नियम है। जीवास्तिकाय को क्षेत्र की अपेक्षा से लोक - प्रमाण कहा गया है। इसी प्रकार धर्मास्तिकाय को भी क्षेत्र की अपेक्षा से लोकप्रमाण कहा गया है। किन्तु तात्पर्य की दृष्टि से दोनों भिन्न हैं । धर्मास्तिकाय अकेला ही पूरे लोक में व्याप्त है, जब कि लोक आकाश का कोई भी भाग ऐसा नहीं है, जहां जीव न हो । जीव जीवास्तिकाय का एक देश है।' प्रत्येक जीव असंख्यात - प्रदेशात्मक है। ठाणं में धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, लोकाकाश और एक जीव-इन चारों का प्रदेश परिमाण एक समान बतलाया गया है । केवली समुद्घात के समय एक जीव के प्रदेश पूरे लोक में व्याप्त हो जाते हैं। अतः एक जीव को भी क्षेत्र की अपेक्षा से लोकप्रमाण कहा जा सकता है। यह कादाचित्क घटना है। यहां यह विवक्षित नहीं है। यहां जीवास्तिकाय का लोक-व्यापित्व ही विवक्षित है। यथा अन्धस्येतरस्य वा स्वजङ्घाबलाद् गच्छतः यष्ट्याद्युपकारकं भवति, न तु प्रेरकं तथा जीवपुद्गलानां स्वशक्त्यैव गच्छतां तिष्ठतां च धर्माधर्मौ उपकारकौ न प्रेरक इत्युक्तं भवति । ५. भ. बृ.२ । १३५ – उपयोगगुणो जीवास्तिकायः प्राग्दर्शितः, अथ तदंशभूतो जीवः । ६. ठाणं, ४।४६५चत्तारि पएसग्गेणं तुल्ला पण्णत्ता, तं जहा -- धम्मत्थिकाए, अधम्मत्थिकाए, लोगागासे, एगजीवे । ७. वही, ८ । ११४ - उत्थे समए लोगं पूरेति । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003593
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages458
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size12 MB
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