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________________ भगवई २६१ श.२: उ.१०: सू.१२४-१३५ भगवं ! नो खंडे मोदए, सगले मोदए। भगवन् ! नो खण्डः मोदकः, सकलः मोदकः। से तेणद्वेणं गोयमा ! ए बुचइ–एगे तत् तेनार्थेन गौतम ! एवमुच्यते-एकः । धम्मत्थिकायपदेसे नो धम्मत्थिकाए ति धर्मास्तिकायप्रदेशः नो धर्मास्तिकायः इति वत्तव्वं सिया जाव एगपदेसूणे वि य णं वक्तव्यं स्याद् यावद् एकप्रदेशोनोऽपि च धम्मत्थिकाए नो धम्मत्थिकाए त्ति बत्तवं धर्मास्तिकायः नो धर्मास्तिकायः इति वक्तव्यं सिया ॥ स्यात् । भगवन् ! मोदक का खण्ड मोदक नहीं कहलाता, अखण्ड मोदक मोदक कहलाता है। गौतम ! यह इस अपेक्षा से कहा जा रहा हैधर्मास्तिकाय के एक प्रदेश को धर्मास्तिकाय नहीं कहा जा सकता यावत् एक प्रदेश कम धर्मास्तिकाय को भी धर्मास्तिकाय नहीं कहा जा सकता। १३४. से किंखाइ णं भंते ! धम्मत्थिकाए ति तत् 'किंखाइ' भदन्त ! धर्मास्तिकायः इति १३४. भन्ते ! धर्मास्तिकाय किसे (कितने प्रदेशों वत्तबं सिया ? वक्तव्यं स्यात् ? को) कहा जा सकता है ? गोयमा ! असंखेजा धम्मत्थिकायपदेसा, ते गौतम ! असंख्येयाः धर्मास्तिकायप्रदेशाः, ते गौतम ! धर्मास्तिकाय के असंख्येय प्रदेश हैं। वे सव्वे कसिणा पडिपुण्णा निरवसेसा एक- सर्वे कृत्स्नाः प्रतिपूर्णाः निरवशेषाः एक- सब प्रतिपूर्ण, निरवशेष और एक शब्द (धर्माग्गहणगहिया–एस गोयमा ! धम्म- ग्रहणग्रहीताः-एष गौतम ! धर्मास्तिकायः ।। स्तिकाय) के द्वारा गृहीत होते हैं-गौतम ! इसको थिकाए ति बत्तबं सिया ॥ इति वक्तव्यं स्यात् । धर्मास्तिकाय कहा जा सकता है। १३५. एवं अधम्मत्थिकाए वि। आगासत्थि- एवम् अधर्मास्तिकायोऽपि। आकाशास्ति- १३५. इसी प्रकार अधर्मास्तिकाय वक्तव्य है। काय-जीवत्थिकाय-पोग्गलत्थिकाया वि एवं काय-जीवास्तिकाय-पुदगलास्तिकायाः अपि आकाशास्तिकाय, जीवास्तिकाय और पुद्गलाचेव, नवरं-तिहं पि पदेसा अणंता एवं चैव, नवरं-त्रयाणामपि प्रदेशाः स्तिकाय भी इसी प्रकार वक्तव्य हैं, केवल इतना भाणियवा। सेसं तं चेव ॥ अनन्ताः भणितव्याः। शेषं तच् चैव । अन्तर है—इन तीनों के प्रदेश अनन्त होते हैं। शेष पूर्ववत् । भाष्य १. सूत्र १२४-१३५ आगम-साहित्य में तत्त्व के चार वर्गीकरण मिलते हैं.---- १. द्रव्य-जीव द्रव्य और अजीव द्रव्य।' २. पांच अस्तिकाय-धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्ति काय, जीवास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय। (यह प्रस्तुत आलापक में ३. छह द्रव्य-धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुद्गल और जीव ।' ४. नवतत्त्व-जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आश्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध, मोक्ष।' जैन दर्शन द्वैतवादी दर्शन है; इसलिए उसने मूल तत्त्व दो माने—जीव और अजीव । पञ्चास्तिकाय इन दो का विस्तार है। जीव और अजीव को सांख्य आदि द्वैतवादी दर्शन भी मानते हैं। किन्तु अस्तिकाय का सिद्धान्त भगवान महावीर का सर्वथा मौलिक सिद्धान्त है। जीव की तुलना सांख्य-सम्मत पुरुष से की जा सकती है। पुद्गल की तुलना सांख्य-सम्मत प्रकृति से की जा सकती है। आकाश प्रायः सभी दर्शनों में सम्मत है। धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय-ये दो तत्त्व अन्य किसी दर्शन में प्रतिपादित नहीं हैं। 'द्रव्य' शब्द का प्रयोग वैशेषिक दर्शन में मिलता है। किन्तु 'अस्तिकाय' का प्रयोग अन्य किसी दर्शन में उपलब्ध नहीं है। यह अस्तित्व का वाचक शब्द है। वेदान्त में जैसे ब्रह्म निरपेक्ष अस्तित्व है, वैसे ही जैन दर्शन में ये पांच निरपेक्ष अस्तित्व हैं। जैसे पुद्गल के परमाणु होते हैं, वैसे ही शेष चार अस्तिकायों के भी परमाणु होते हैं। उनके परमाणु पृथक्-पृथक् नहीं होते, वे सदा अपृथक् रहते हैं, इसलिए वे 'प्रदेश' कहलाते हैं। धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय के प्रदेश असंख्य, आकाशास्तिकाय, पुदगलास्तिकाय और जीवास्तिकाय-इनके प्रदेश अनन्त हैं।' षड्द्रव्यवाद पञ्चास्तिकाय के उत्तरकाल का विकास है। भगवती के दो प्रसंगों के आधार पर यह अनुमान किया जा सकता है। कालोदय आदि अन्ययूथिक संन्यासियों ने एक चर्चा शुरु की श्रमण ज्ञातपुत्र पांच अस्तिकायों की प्रज्ञापना करते हैं।' पांच अस्तिकाय के साथ अद्धा-समय या काल का योग होने पर छह द्रव्य बन जाते हैं। इस प्रकार अस्तित्ववाद की दृष्टि से तत्त्व के ये तीन वर्गीकरण हैं। नव पदार्थ का वर्गीकरण उपयोगितावाद की दृष्टि से है। उसमें जीव और अजीव ये दो मूल द्रव्य हैं। शेष सात पदार्थों में मोक्ष तथा उसके साधक-बाधक द्रव्यों का निरूपण प्रस्तुत प्रकरण में अस्तिकाय का जो स्वरूप मिलता है, वह १. भ.२५।। २. वही,२५।११,१२। ३. ठाणं.६६ ४. भ.२।१३४,१३५। ५. (क) वही,७४२१-२२०। (ख) वही,१८/१३४-१४२॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003593
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages458
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size12 MB
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