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________________ भगवई २६५ श.२: उ.१०. सू.१३८,१३६ जे रूवी ते चउब्विहा पण्णत्ता, तं जहा- ये रूपिणः ते चतुर्विधाः प्रज्ञप्ताः, तद् यथा । जो रूपी हैं, वे चार प्रकार के प्रज्ञप्त हैं, जैसेखंघा, खंघदेसा, खंघपदेसा, परमाणु- -स्कन्धाः, स्कन्धदेशाः, स्कन्धप्रदेशाः, पर- स्कन्ध, स्कन्ध के देश, स्कन्ध के प्रदेश और पोग्गला। माणुपुद्गलाः। परमाणुपुद्गल । जे अस्वी ते पंचविहा पण्णता, तं जहा ये अरूपिणः ते पञ्चविधाः प्रज्ञप्ताः, तद् जो अरूपी हैं, वे पांच प्रकार के प्रज्ञप्त हैं, जैसे-धम्मत्थिकाए, नो घम्मत्थिकायस्य देसे, यथा-धर्मास्तिकायः, नो धर्मास्तिकायस्य धर्मास्तिकाय, धर्मास्तिकाय का देश नहीं होता, धम्मत्थिकायस्स पदेसा; अधम्मत्थिकाए, देशः, धर्मास्तिकायस्य प्रदेशाः; अधर्मास्ति- धर्मास्तिकाय के प्रदेश; अधर्मास्तिकाय, अधर्मानो अधम्मत्थिकायस्स देसे, अधम्मत्थि- कायः, नो अधर्मास्तिकायस्य देशः, अधर्मा- स्तिकाय का देश नहीं होता, अधर्मास्तिकाय के कायस्स पदेसा, अद्धासमए । स्तिकायस्य प्रदेशाः, अध्वसमयः । प्रदेश और अध्वसमय। भाष्य १. सूत्र १३८,१३६ आकाश के दो खण्ड हैं-लोकाकाश और अलोकाकाश। इनकी सीमारेखा है-धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय। वे जिस आकाशखण्ड में व्याप्त हैं, वहां गति और स्थिति होती हैं। जहां गति और स्थिति हैं, वहां जीव और पुद्गल का अस्तित्व है। इसलिए धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय से व्याप्त आकाशखण्ड लोकाकाश है। शेष आकाश में आकाश के अतिरिक्त और कोई द्रव्य नहीं है; इसलिए उसकी संज्ञा अलोकाकाश है।' लोकाकाश ससीम है और अलोकाकाश असीम। जीव और अजीव दोनों लोकाकाश में व्याप्त हैं, फिर देश और प्रदेश की व्याप्ति के प्रश्न की सार्थकता क्या है ? इस विषय पर वृत्तिकार ने विमर्श किया है। उनके अनुसार देश और प्रदेश का प्रतिपादन सापेक्ष है। नैयायिक, वैशेषिक आदि कुछ दार्शनिक आत्मा को व्यापक और निरवयव मानते हैं। जैन दर्शन के अनुसार आत्मा देह-परिमाण और सावयव है। इस अपेक्षा को ध्यान में रखकर जीव के देश और प्रदेश का प्रश्न उपस्थित किया गया है। पांच अस्तिकायों में एक पुद्गल-द्रव्य ही ऐसा है, जिसके देश की संभावना की जा सकती है। पुद्गल-द्रव्य के दो प्रकार हैंपरमाणु और स्कन्ध। परमाणु मिलते हैं, स्कन्ध बन जाता है; स्कन्ध का भेद होता है, फिर परमाणु बन जाते हैं। पुद्गल-द्रव्य कभी विभक्त और कभी अविभक्त होता रहता है, इसलिए उसका देश संभव है। धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय सर्वथा अविभक्त हैं। उनका एक भी प्रदेश (परमाणु) द्रव्य से पृथक् नहीं होता। उस अवस्था में उनके देश की कल्पना नहीं की जा सकती; इसीलिए सूत्रकार ने लोकाकाश में धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय के देश का निषेध किया है। जीव के देश का विधान सापेक्ष दृष्टि से किया गया है। संख्यात्मक दृष्टि से धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय तीनों एक-एक हैं। जीव और पुद्गल-दोनों में से प्रत्येक अनन्त हैं। अनन्त जीवों की अपेक्षा से एक जीव को जीवों का एक देश कहा जा सकता है। वृत्तिकार ने संकोच-विकोच की अपेक्षा से जीव की व्याख्या की है। उनके अनुसार एक जीव के स्थान में अनेक जीवों के देश हो सकते हैं। इस दृष्टि से जीव के देश का विधान किया जा सकता है। वृत्तिकार ने चूर्णिकार का अभिमत उद्धृत किया है। चूर्णिकार के अनुसार अरूपी द्रव्य का प्रतिपादन समुदय अथवा एक स्कन्ध के रूप में किया जाता है। वह स्कन्ध प्रदेशात्मक है, देशात्मक नहीं है। प्रदेश अवस्थित होते हैं और देश अनवस्थित होता है। इसलिए अरूपी द्रव्य के देश का निर्देश नहीं किया गया है। अरूपी द्रव्य के साथ जो 'देश' शब्द का प्रयोग मिलता है, वह व्यवहार के लिए किया गया है।' व्यवहार के दो प्रकार हो सकते हैं १. स्वविषयगत व्यवहार-जैसे धर्मास्तिकाय अपने देश से ऊर्ध्वलोक में व्याप्त होता है। २. परद्रव्यस्पर्शनादिगत व्यवहार-जैसे ऊर्ध्वलोकाकाश धर्मास्तिकाय के देश का स्पर्श करता है। वृत्तिकार ने चूर्णि के आधार पर ही प्रस्तुत सूत्र (१३६) की व्याख्या की है। १. द्रष्टव्य,म.१9190०१०६॥ २.भ.११1१०६,११०॥ ३. भ.वृ.२।१३६ ननु लोकाकाशे जीवा अजीवाश्चेत्युक्ते तद्देशप्रदेशास्तत्रोक्ता एव भवन्ति, जीवाद्यव्यतिरिक्तत्वाद्देशादीनां, ततो जीवाजीवग्रहणे किं देशा- दिग्रहणेनेति ? नैवं, निरवयवा जीवादय इति मतव्यवच्छेदार्थत्वादस्येति। ४. भ.वृ.२।१३९-इह तु सभेदस्याकाशस्याधारत्वेन विवक्षितत्वात्तदाधेयाः सप्त वक्तव्या भवन्ति, न च तेऽत्र विवक्षिताः, वक्ष्यमाणकारणात् । ये तु विवक्षि- तास्तानाह—पंचेति, कथमित्याह–'धम्पत्थिकाए' इत्यादि, इह जीवानां पुद्- गलानां च बहुत्वादेकस्यापि जीवस्य पुद्गलस्य वा स्थाने संकोचादितथाविधपरिणामवशादहवो जीवाः पुद्गलाश्च तथा तद्देशास्तत्रदेशाश्च संभवन्तीति कृत्वा जीवाश्च जीवदेशाश्च जीवप्रदेशाश्च, तथा रूपिद्रव्यापेक्षयाऽजीवाश्चाजीवदेशाश्चाजीवप्रदेशाश्चेति संगतम्, एकत्राप्याश्रये भेदवतो वस्तुत्रयस्य सद्भावात्। ५. द्रष्टव्य,भ.११।१००,१०१ । ६. द्रष्टव्य,वही,२।१४६,१४८/ ७. भ.१.२१३६/ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org|
SR No.003593
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages458
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size12 MB
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