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________________ श.२: उ.१०. सू.१४०-१४४ २६६ भगवई १४०. अलोयागासे णं भंते ! किं जीवा ? अलोकाकाशः भदन्त ! किं जीवाः ? जीव- १४०. 'भन्ते ! अलोकाकाश क्या जीव है ? जीव जीवदेसा ? जीवप्पदेसा ? अजीवा ? देशाः ? जीवप्रदेशाः ? अजीवाः ? अजीव- का देश है ? जीव का प्रदेश है ? अजीव है ? अजीवदेसा ? अजीवप्पदेसा? देशाः ? अजीवप्रदेशाः ? अजीव का देश है ? अजीव का प्रदेश है ? । गोयमा! नो जीवा, नो जीवदेसा, नो जीव- गौतम ! नो जीवाः, नो जीवदेशाः, नो जीव- गौतम ! वह न जीव है, न जीव का देश है, न प्पदेसा; नो अजीवा, नो अजीवदेसा, नो प्रदेशाः; नो अजीवाः, नो अजीवदेशाः, नो जीव का प्रदेश है; न अजीव है, न अजीव का अजीवप्पदेसा; एगे अजीवदब्बदेसे अगरुय- अजीवप्रदेशाः; एकः अजीवद्रव्यदेशः अगुरु- देश है, न अजीव का प्रदेश है। वह एक अजीव लहुए अणंतेहिं अगरुयलहुयगुणेहिं संजुत्ते कलघुकः अनन्तैः अगुरुकलघुकगुणैः संयुक्तः । द्रव्य का देश है, अगुरुलघु है, अनन्त अगुरुलघु सव्वागासे अणंतभागूणे ॥ सर्वाकाशे अनन्तभागोनः। गुणों से संयुक्त है और अनन्त भाग से न्यून परिपूर्ण आकाश है। भाष्य १. सूत्र १४० अलोकाकाश में केवल अजीव-द्रव्य का देश है इसका तात्पर्य है कि अलोक में आकाश परिपूर्ण नहीं है। उसका एक भाग लोक में है, इसलिए अलोक में अजीव-द्रव्य का देश है।' अलोकाकाश परिपूर्ण आकाश की अपेक्षा अनन्त भाग न्यून है क्योंकि लोकाकाश अलोकाकाश के अनन्तवें भाग जितना है।' वह अलोकाकाश अगुरुलघु है, अनन्त अगुरुलघु गुणों से संयुक्त होते हैं। ‘अगुरुलघु' की मीमांसा के लिए भ.२।४५ का भाष्य द्रष्टव्य है। अस्थिकाय-पदं अस्तिकाय-पदम् अस्तिकाय-पद १४१. धम्मत्थिकाए णं भंते ! केमहालए धर्मास्तिकायः भदन्त ! कियन्महान् प्रज्ञप्तः ? १४१. 'भन्ते ! धर्मास्तिकाय कितना बड़ा प्रज्ञप्त पण्णते? गोयमा ! लोए लोयमेत्ते लोयप्पमाणे लोय- गौतम ! लोके लोकमात्रः लोकप्रमाणः लोकफुडे लोयं चेव फुसित्ता णं चिट्ठ॥ स्पृष्टः लोकं चैव स्पृष्ट्वा तिष्ठति। गौतम ! वह लोक में है, लोक-परिमाण है, लोक प्रमाण है, लोक से स्पृष्ट है और लोक का ही स्पर्श कर अवस्थित है। १४२. अधम्मत्थिकाए णं भंते ! केमहालए अधर्मास्तिकायः भदन्त ! कियन्महान् प्रज्ञप्तः? १४२. भन्ते ! अधर्मास्तिकाय कितना बड़ा प्रज्ञप्त पण्णते ? गोयमा ! लोए लोयमेत्ते लोयप्पमाणे लोय- गौतम ! लोके लोकमात्रः लोकप्रमाणः लोक- गौतम ! वह लोक में है, लोक-परिमाण है, लोकफुड़े लोयं चेव फुसित्ता णं चिट्ठइ ।। स्पृष्टः लोकं चैव स्पृष्ट्वा तिष्ठति । प्रमाण है, लोक से स्पृष्ट है और लोक का ही स्पर्श कर अवस्थित है। १४३. लोयाकासे गं भंते ! केमहालए लोकाकाशः भदन्त ! कियन्महान् प्रज्ञप्तः ? १४३. भन्ते ! लोकाकाश कितना बड़ा प्रज्ञप्त है? पण्णत्ते? गोयमा ! लोए लोयमेत्ते लोयप्पमाणे लोय- गौतम ! लोके लोकमात्रः लोकप्रमाणः लोक- गौतम ! वह लोक में है, लोक-परिमाण है, लोकफुडे लोयं चेव फुसित्ता णं चिट्ठइ॥ स्पृष्टः लोकं चैव स्पृष्ट्वा तिष्ठति । प्रमाण है, लोक से स्पृष्ट है और लोक का ही स्पर्श कर अवस्थित है। १४४. जीवत्थिकाए णं भंते ! केमहालए जीवास्तिकायः भदन्त ! कियन्महान् प्रज्ञप्तः? १४४. भन्ते ! जीवास्तिकाय कितना बड़ा प्रज्ञप्त पण्णते? गोयमा ! लोए लोयमेत्ते लोयप्पमाणे लोय- गौतम ! लोके लोकमात्रः लोकप्रमाणः लोकफुडे लोयं चेव फुसित्ता णं चिदुइ ॥ स्पृष्टः लोकं चैव स्पृष्ट्वा तिष्ठति। गौतम ! वह लोक में है, लोक-परिमाण है, लोकप्रमाण है, लोक से स्पृष्ट है और लोक का ही स्पर्श कर अवस्थित है। २. वही, २११४०-लौकाकाशस्यालोकाकाशापेक्षयाऽनन्तभागरूपत्वादिति । १. भ.वृ.२११४०-अलोकाकाशस्य देशत्वं लोकालोकरूपाकाशद्रव्यस्य भाग- रूपत्वात्। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003593
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages458
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size12 MB
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