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________________ भगवई २६७ श.२: उ.१०. सू.१४१-१५० १४५. पोग्गलत्थिकाए णं भंते ! केमहालए पुद्गलास्तिकायः भदन्त ! कियन्महान् प्रज्ञप्तः? १४५. भन्ते ! पुद्गलास्तिकाय कितना बड़ा प्रज्ञप्त पण्णत्ते ? गोयमा ! लोए लोयमेत्ते लोयप्पमाणे लोय- गौतम ! लोके लोकमात्रः लोकप्रमाणः लोक- गौतम ! वह लोक में है, लोक-परिमाण है, लोकफुडे लोयं चेव फुसित्ता णं चिदुइ ।। स्पृष्टः लोकं चैव स्पृष्ट्वा तिष्ठति। प्रमाण है, लोक से स्पृष्ट है और लोक का ही स्पर्श कर अवस्थित है। भाष्य १. सूत्र १४१-१४५ प्रस्तुत आलापक से 'लोक पञ्चास्तिकायमय है' यह परि- भाषा फलित होती है। चार अस्तिकाय लोकव्यापी हैं। आकाशास्तिकाय केवल लोकव्यापी नहीं है, अतः 'लोक पञ्चास्तिकायमय है' यह सापेक्ष वचन है। चार अस्तिकाय लोकप्रमाण हैं। इनमें धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय ये दोनों एक-व्यक्तिक रूप में व्यापक हैं। जीवास्तिकाय और पुद्गलास्तिकाय-ये दोनों अस्तिकाय अनेक-व्यक्तिक हैं—जीव अनन्त हैं और पुद्गल (परमाणु और परमाणुस्कन्ध) भी अनन्त हैं। तात्पर्य की भाषा में निर्दिष्ट है कि सम्पूर्ण लोकाकाश में जीव और पुदगल व्याप्त हैं। लोकाकाश का एक भी प्रदेश ऐसा नहीं है, जहां जीव और परमाणु अथवा स्कन्ध का स्पर्श न हो। फुसणा-पदं स्पर्शना-पदम् स्पर्शना-पद १४६. अहोलोए णं भंते ! धम्मत्थिकायस्स केवइयं फुसति ? गोयमा ! सातिरेगं अद्धं फुसति ॥ अधोलोकः भदन्त ! धर्मास्तिकार्य कियत १४६. 'भन्ते ! अधोलोक धर्मास्तिकाय के कितने स्पृशति ? भाग का स्पर्श करता है ? गौतम ! सातिरेकम् अर्धं स्पृशति । गौतम ! वह धर्मास्तिकाय का कुछ अधिक आधे भाग का स्पर्श करता है। १४७. तिरियलोए णं भंते ! धम्मत्थिकायस्स तिर्यग्लोकः भदन्त ! धर्मास्तिकायं कियत् १४७. भन्ते ! तिर्यग्लोक धर्मास्तिकाय के कितने केवइयं फुसति ? स्पृशति ? भाग का स्पर्श करता है ? गोयमा ! असंखेजइभागं फुसति ॥ गौतम ! असंख्येयतमं भागं स्पृशति । गौतम ! वह धर्मास्तिकाय के असंख्यातवें भाग का स्पर्श करता है। १४८. उद्दलोए णं भंते ! धम्मत्थिकायस्स ऊर्ध्वलोकः भदन्त ! धर्मास्तिकायं कियत् १४८. भन्ते ! ऊर्ध्वलोक धर्मास्तिकाय के कितने केवइयं फुसति ? स्पृशति ? भाग का स्पर्श करता है ? गोयमा ! देसूणं अद्धं फुसति ॥ गौतम ! देशोनम् अर्धं स्पृशति । गौतम ! वह धर्मास्तिकाय के कुछ कम आधे भाग का स्पर्श करता है। १४६. इमाणं भंते ! रयणप्पभापुढवी धम्म- इयं भदन्त ! रलप्रभापृथिवी धर्मास्तिकायस्य १४६. भन्ते ! यह रत्नप्रभा पृथ्वी क्या धर्मास्तिकाय त्यिकायस्स किं संखेजइभागं फुसति? किं संख्येयतमं भागं स्पृशति ? असंख्येयतमं के संख्यात वें भाग का स्पर्श करती है ? असंअसंखेजइभागं फुसति ? संखेजे भागे भागं स्पृशति ? संख्येयान् भागान् स्पृशति ? ख्यात वें भाग का स्पर्श करती है ? संख्येय भागों फुसति ? असंखेन्जे भागे फुसति ? सव्वं असंख्येयान् भागान् स्पृशति ? सर्वं स्पृशति? का स्पर्श करती हैं ? असंख्येय भागों का स्पर्श फुसति ? करती है अथवा सम्पूर्ण का स्पर्श करती है ? गोयमा ! णो संखेजइभागं फुसति, असंखे- गौतम ! नो संख्येयतमं भागं स्पशति, असंख्ये- गौतम ! वह संख्यातवें भाग का स्पर्श नहीं करती, जइभागं फुसति, णो संखेजे भागे फुसति, यतमं भागं स्पृशति, नो संख्येयान् भागान् असंख्यातवें भाग का स्पर्श करती है, संख्येय णो असंखेजे भागे फुसति, णो सवं ___ स्पृशति, नो असंख्येयान् भागान् स्पृशति, नो भागों का स्पर्श नहीं करती, असंख्येय भागों का फुसति ।। सर्वं स्पृशति। स्पर्श नहीं करती और सम्पूर्ण का स्पर्श नहीं करती। १५०. इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए अस्याः भदन्त ! रलप्रभायाः पृथिव्याः घनो- १५०. भन्ते ! इस रलप्रभा पृथ्वी का घनोदधि क्या Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003593
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages458
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size12 MB
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