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________________ श.२: उ.१०ः सू.१४६-१५३ २६८ भगवई घणोदही धम्मत्थिकायस्स किं संखेजइभागं दधिः धर्मास्तिकायस्य किं संख्येयतमं भागं फुसति ? असंखेजइभागं फुसति ? संखेजे स्पृशति? असंख्येयतमं भागं स्पृशति? संख्ये- भागे फुसति ? असंखेजे भागे फुसति? यान् भागान् स्पृशति ? असंख्येयान् भागान् सव्वं फुसति ? स्पृशति ? सर्व स्पृशति ? धर्मास्तिकाय के संख्यातवें भाग का स्पर्श करता है? असंख्यातवें भाग का स्पर्श करता है ? संख्येय भागों का स्पर्श करता है ? असंख्येय भागों का स्पर्श करता है अथवा सम्पूर्ण का स्पर्श करता जहा स्यणप्पभा तहा घणोदहिघणवाय-तणुवाया वि॥ जैसे रत्नप्रभा पृथ्वी स्पर्श करती है, वैसे ही घनोदधि, घनवात और तनुवात भी स्पर्श करते तनुवाताः अपि। १५१. इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए अस्याः भदन्त ! रलप्रभायाः पृथिव्याः १५१. भन्ते ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी का अवकाशान्तर ओवासंतरे धम्मत्थिकायस्स कि संखेजइ- अवकाशाम्तरं धर्मास्तिकायस्य किं संख्येयतमं क्या धर्मास्तिकाय के संख्येय भाग का स्पर्श करता भागं फुसति ? असंखेजइभागं फुसति ? भागं स्पृशति ? असंख्येयतमं भागं स्पृशति? है ? असंख्यातवें भाग का स्पर्श करता है ? संखेजे भागे फुसति ? असंखेजे भागे संख्येयान् भागान स्पृशति ? असंख्येयान् संख्येय भागों का स्पर्श करता है ? असंख्येय फुसति ? सबं फुसति ? भागान् स्पृशति ? सर्वं स्पृशति ? भागों का स्पर्श करता है ? अथवा सम्पूर्ण का स्पर्श करता है? गोयमा ! संखेजइभागं फुसति, नो असंखे- गौतम ! संख्येयतमं भागं स्पृशति, नो गौतम ! वह संख्यातवें भाग का स्पर्श करता है, जइभागं फुसति, नो संखेजे भागे फुसति, असंख्येयतमं भागं स्पृशति, नो संख्येयान् । असंख्यातवें भाग का स्पर्श नहीं करता, संख्येय नो असंखेजे भागे फुसति, नो सव्वं भागान् स्पृशति, नो असंख्येयान् भागान् भागों का स्पर्श नहीं करता, असंख्येय भागों का फुसति। स्पृशति, नो सर्वं स्पृशति। स्पर्श नहीं करता और सम्पूर्ण का स्पर्श नहीं करता। ओवासंतराइं सव्वाइं॥ अवकाशान्तराणि सर्वाणि। इसी प्रकार सभी अवकाशान्तर वक्तव्य हैं। १५२. जहा रयणप्पभाए पुढवीए वत्तव्बया भणिया एवं जाव अहेसत्तमाए। एवं सोहम्मे कप्पे जाव ईसीपब्भारा पुढवी -एते सव्वे वि अंसेखेजइभागं फुसंति। सेसा पडिसेहियवा। यथा रत्नप्रभायाः पृथिव्याः वक्तव्यता भणिता १५२. जैसे रलप्रभा पृथ्वी की वक्तव्यता कही गई एवं यावद् अधःसप्तम्याः। है वैसे ही यावत् अधःसप्तमी (सातवीं पृथ्वी) की वक्तव्यता ज्ञातव्य है। एवं सौधर्मः कल्पः यावद् ईषत्प्राग्भारापृथिवी इसी प्रकार सौधर्मकल्प यावत् ईषत्-प्राग्भारा -एते सर्वेऽपि असंख्येयतमं भागं स्पृश- पृथ्वी-ये सभी धर्मास्तिकाय के असंख्यात वें न्ति। शेषाः प्रतिषेद्धव्या। भाग का स्पर्श करते हैं। शेष विकल्पों का प्रतिषेध कर देना चाहिए। १५३. एवं अधम्मत्यिकाए, एवं लोयाकासे वि। एवम् अधर्मास्तिकायः एवं लोकाकाशोऽपि। १५३. इसी प्रकार अधर्मास्तिकाय का और इसी प्रकार लोकाकाश का स्पर्श करते हैं। संग्रहणी गाथा संगहणी गाहा पुढवोदही घण-तणू, कप्पा गेवेजणुत्तरा सिद्धी। संखेजइभागं अंतरेसु सेसा असंखेज्जा ॥१॥ संग्रहणी गाथा पृथिव्युदधी घन-तनू कल्पाः ग्रैवेयानुत्तरी सिद्धिः। संख्येयतमं भागम् अन्तरेषु शेषाः असंख्येयतमान्॥ पृथ्वी, घनोदधि, घनवात, तनुवात, बारह कल्प, नौ ग्रैवेयक, पांच अनुत्तर विमान और सिद्धशिला -इन में पृथ्वी, बारह कल्प, नौ ग्रैवेयक और पांच अनुत्तर विमान के अवकाशान्तर धर्मास्तिकाय आदि के संख्यात वें भाग का स्पर्श करते हैं और शेष सब (पृथ्वी से सिद्धशिला तक) उनके असंख्यातवें भाग का स्पर्श करते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003593
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages458
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size12 MB
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