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भूमिका
भगवई
प्रस्तुत आगम के अध्ययन को शत कहा जाता है। समवायांग और नन्दी में अध्ययन शब्द का ही प्रयोग मिलता है' – 'एगे साइरेगे अज्झयणसते।' इसका अर्थ है कि व्याख्याप्रज्ञप्ति के सौ से अधिक शतक हैं, किन्तु चूर्णिकार ने शत को अध्ययन के अर्थ में माना है' – 'इह सतं चेव अज्झयणसण्णं ।' इसका अर्थ उक्त पाठ से फलित नहीं होता, किन्तु परम्परा से लिया गया है। भगवती के पाठसंक्षेपीकरण में तथा संग्रहणी गाथाओं में अनेक स्थलों पर शत शब्द का प्रयोग मिलता है। उदाहरण स्वरूप
१. जहा सक्कस्य वत्तव्वया तइयसए तहा ईसाणस्स वि । *
२. एवं एएणं कमेणं जहेव उववायसए अट्ठावीसं उद्देसगा भणिया तहेव उव्वट्टणासए वि अट्ठावीसं उद्देसगा भाणियव्वा निरवसेसा । '
समवायांग और नंदी में व्याख्याप्रज्ञप्ति के विवरण में अध्ययन शब्द का प्रयोग तथा मूल आगम में शत शब्द का प्रयोग है, इसलिए शत और अध्ययन को पर्यायवाची माना गया है। शत का अर्थ सौ होता है। जिसमें सौ श्लोक या प्रश्न हो उसे शतक कहा जाता है। वर्तमान रूप में इस अर्थ की कोई सार्थकता दृष्ट नहीं है ।
रचनाशैली
प्रस्तुत आगम में ३६ हजार व्याकरणों का उल्लेख है। इससे पता चलता है कि इसकी रचना प्रश्नोत्तर की शैली में की गई थी। नंदी के चूर्णिकार ने बतलाया है कि गौतम आदि के द्वारा पूछे गए प्रश्नों तथा अपृष्ट प्रश्नों का भी भगवान् महावीर ने व्याकरण किया था। वर्तमान आकार में आज भी यह प्रश्नोत्तर शैली का आगम है। प्रश्न की भाषा संक्षिप्त है और उनके उत्तर की भाषा भी संक्षिप्त है । 'से नूणं भंते' – इस भाषा में प्रश्न का और 'हंता गोयमा' - इस भाषा में उत्तर का आरम्भ होता है।
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कहीं-कहीं उत्तर के प्रारम्भ में केवल संबोधन का प्रयोग होता है, हंता का प्रयोग नहीं होता' - 'गोयमा ! चलमाणे चलिए। उद्देशक के प्रारम्भ में नगर आदि का वर्णन मिलता है— तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नामं नयरे होत्था - वण्णओ । '
ܘܪ,
'से नूणं मंते ! चलमाणे चलिए ।' 'हंता गोयमा ! चलमाणे चलिए । '
उद्देशक की पूर्ति पर भगवान् द्वारा दिए गए उत्तर की स्वीकृति और विनम्र वन्दना का उल्लेख मिलता है
'सेवं भंते ! सेवं भंते! त्ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदति नम॑सति, वंदित्ता नमंसित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे
विहरति ।
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प्रश्न और उत्तर की भाषा सहज-सरल है। अनेक स्थलों पर गद्यकाव्य जैसी छदा दृष्टिगत होती है—
पुव्विं भंते ! अंडए, पच्छा कुक्कुडी ? पुव्विं कुक्कुडी, पच्छा अंडए ?
रोहा ! से णं अंडए कओ ?
भयवं ! कुक्कुडीओ ।
साणं कुक्कुडी कओ ?
भंते ! अंडयाओ।
एवामेव रोहा ! से य अंडए, सा य कुक्कुडी पुब्विं पेते, पच्छा पेते—दो वेते सासया भावा, अणाणुपुव्वी एसा रोहा !
विषय की दृष्टि के अनुसार उत्तर बहुत विस्तार से दिए गए हैं।” कहीं कहीं प्रश्न विस्तृत है और उत्तर संक्षिप्त, इसलिए प्रतिप्रश्न
भी मिलता है। 'से केणट्टेणं भंते'-- इस भाषा में प्रतिप्रश्न प्रारम्भ होता है और विषय का निगमन 'से तेणट्टेणं' – इस भाषा में होता
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१. सम. प. सू. ६३, नंदी, सू. ८५ ।
२. नंदी चूर्णि, सू. ८६, पृ. ६५ इह सतं चैव अज्झयणसण्णं ।
३. देखें – आगम शब्दकोश, अंगसुत्ताणि शब्द सूची |
४. ४ । ४ ।
५. ३२।६।
६. नंदी चू. सू. ८६ । पृ. ६५— 'गोतमादिएहिं पुट्ठे अपुढे वा जो पण्हो तव्बागरणं ।'
७. १ ।११,१२ ।
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८. १।१२,१३ ।
६. १।४ ।
१०. १५१। ११. १।२६५ ।
१२. ८।२६-३६ ।
१३. १ । ३१२, ३१३/
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