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भगवई
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१. सूत्र ४२०, ४२१
एक साथ दो आयुष्य के बंध की चर्चा बहुत प्राचीन प्रतीत होती है। एक जन्म में दो आयुष्य के प्रतिसंवेदन की चर्चा भी इसी से जुड़ी हुई है।' आजीवक दर्शन' और पातञ्जल योग भाष्य में इसके बीज खोजे जा सकते हैं। योगभाष्यकार ने कर्माशय को एकभविक बतलाया है । '
भाष्य
'इहभविक आयु' का अर्थ है - वर्तमान भव की आयु और 'परभविक आयु' का अर्थ है—उससे अगले भव की आयु । पूर्व पक्ष का सिद्धान्त है कि आयु का बंध अनेकभविक है । इहभव के आयुबंध के साथ परभव के आयु का भी बंध जाता है।
भगवान् महावीर ने इस सिद्धान्त को अस्वीकार किया। उनके अनुसार आयुष्य एकभविक होता है। पूर्व जन्म में आयु का बंध
कालासवेसियपुत्त-पदं
४२३. तेणं कालेणं तेणं समएणं पासावचिजे कालासवेसियपुत्ते णामं अणगारे जेणेव थेरा भगवंतो तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता थेरे भगवंते एवं वयासी
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४२२. सेवं भंते ! सेवं भंते! त्ति भगवं गोयमे तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति भगवान् ४२२. भन्ते ! वह ऐसा ही है, भंते! वह ऐसा ही है।
जाव विहरति ॥
गौतमः यावद् विहरति ।
इस प्रकार भगवान् गौतम यावत् संयम और तप से अपने आपको भावित करते हुए विहरण कर रहे
१. भ. ५।५७, ५८ ।
२. बही, १५ १०१ ।
३. पा.यो.द.२।१३ – तत्रेदं विचार्यते—किमेकं कर्मैकस्य जन्मनः कारणम्, अथैकं कर्मानिकं जन्माक्षिपतीति । द्वितीया विचारणा-किमनेकं कर्मानेकं जन्म निर्वर्तयति, अथानेकं कर्मैकं जन्म निर्वर्तयतीति। न तावदेकं कर्मैकस्य जन्मनः कारणं, कस्मात् अनादिकालप्रचितस्यासंख्येयस्यावशिष्टकर्मणः साम्प्रतिकस्य च फलक्रमानियमादनाश्वासो लोकस्य प्रसक्तः, स चानिष्ट इति । न चैकं कर्माकस्य जन्मनः कारणं; कस्मात् अनेकेषु कर्मस्वेकैकमेव कर्मानेकस्य जन्मनः कारणमित्यवशिष्टस्य विपाककालाभावः प्रसक्तः, स चाप्यनिष्ट इति । न चानेकं कर्मानेकस्य जन्मनः कारणम्; कस्मात्, तदनेकं जन्म युगपन्न सम्भवतीतिक्रमेण वाच्यम् ।
४. भ. वृ. १ । ४२१ – मिथ्यात्वं चास्यैवं -- एकेनाध्यवसायेन विरुद्धयोरायुषोर्बन्धायोगात् ।
५. जीवा. ३ । २१०, २११ – अण्णउत्थिया णं भंते! एवमाइक्खति एवं भासेंति एवं पण्णवेंति एवं परूवेंति एवं खलु एगे जीवे एगेणं समएणं दो किरियाओ पकरेति, तं जहा समत्तकिरियं च मिच्छत्तकिरियं च ।
जं समयं समत्तकिरियं पकरेति, तं समयं मिच्छत्तकिरियं पकरेति ।
होता है और वह केवल उत्तरवर्ती एक ही जन्म के आयुष्य का बंध होता है।
श. १: उ. ६ः सू.४२०-४२३
वृत्तिकार ने एक साथ दो आयुष्य के बन्ध के विरोध में एक तर्क प्रस्तुत किया है— एक अध्यवसाय से दो विरोधी आयुष्यों का बंध नहीं हो सकता; इसलिए एक समय में एक आयुष्य का बंध ही संगत है। जीवाजीवामिगमे में अन्ययूथिकों द्वारा सम्मत द्वैक्रियवाद का उल्लेख मिलता है। उसके अनुसार एक व्यक्ति एक समय में सम्यक् और मिथ्या दोनों क्रियाएं करता है। उस सिद्धान्त के आधार पर एक साथ दो आयुष्य के बंध होने में विरोध नहीं आता । यह अनुमान करना अस्वाभाविक नहीं है कि एक साथ दो आयु-बंध की प्रतिपत्ति की पृष्ठभूमि में द्वैक्रियवाद का सिद्धान्त रहा हो।
कालासवैश्यपुत्र-पदम्
तस्मिन् काले तस्मिन् समये पाश्र्वापत्यीयः कालासवैश्यपुत्रः नाम अनगारः यत्रैव स्थविराः भगवन्तः तत्रैव उपागच्छति, उपागम्य स्थविरान् भगवतः एवमवादीत्
कालासवैश्यपुत्र-पद
४२३. उस काल और उस समय भगवान् पावपत्यीय का परम्परित शिष्य वैश्यपुत्र कालास नामक अनगार जहां भगवान् स्थविर रहते थे, वहां आया। वहां आकर भगवान् स्थविरों से उसने इस प्रकार कहा
जं समयं मिच्छत्तकिरियं करेति, तं समयं सम्मत्तकिरियं पकरेति । सम्मत्तकिरियापकरणताए मिच्छत्तकिरियं पकरेति । मिच्छत्तकिरियापकरणताए सम्मत्तकिरियं पकरेति ।
एवं खलु एगे जीवे एगेणं समएणं दो किरियाओ पकरेति, तं जहा सम्मत्तकिरियं च मिच्छत्तकिरियं च ।
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सेकहमेयं भंते! एवं ? गोयमा ! जण्णं ते अण्णुउत्थिया एवमाइक्खति एवं भासेति एवं पण्णवेति एवं परूवेंति — एवं खलु एगे जीवे एगेणं समएणं दो किरियाओ पकरेति, तहेव जाव सम्मत्तकिरियं च मिच्छत्तकिरियं च ।
जेते एवमाहंसु, तं णं मिच्छा । अहं पुण गोयमा ! एवमाइक्खामि जाव परूवेमि — एवं खलु एगे जीवे एगेणं समएणं एवं किरियं पकरेति, तं जहा --- सम्मत्तकिरियं वा मिच्छत्तकिरियं वा ।
जं समयं सम्मत्तकिरियं पकरेति णो तं समयं मिच्छत्तकिरियं पकरेति । जं समयं मिच्छत्तकिरियं पकरेति, नो तं समयं सम्मत्तकिरियं पकरेति । सम्मत्तकिरियापकरणाए नो मिच्छत्तकिरियं पकरेति । मिच्छत्तकिरियापकरणाए नो सम्मत्तकिरियं पकरेति । एवं खलु एगे जीवे एगेणं समएणं एवं किरियं पकरेति, तं जहा सम्मत्तकिरियं वा मिच्छत्तकिरियं वा ।
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