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________________ श.२: उ.१: सू.१३-१७ २०६ भगवई भाष्य १. सूत्र १३-१७ मडाई-चूर्णिकार ने 'मडाई' के दो अर्थ किए हैं-मृतयाची संसार-वेदनीय-व्यवच्छेद का अर्थ है-चतुर्गति-गमन में हेतुभूत और मृताशी। मृत का अर्थ है अचित्त । अचित्त की याचना करने संसारवेदनीय कर्म का व्यवच्छेद होना।। वाला मृतयाची तथा अचित्त का अशन करने वाला मृताशी होता प्रस्तुत विषय की मीमांसा के लिए प्रथम शतक के ३८४ से है। वृत्तिकार ने इसका अर्थ मृतादी–प्रासुकभोजी किया है। ३६१ तक के सूत्र द्रष्टव्य हैं। चूर्णि और वृत्ति के अर्थ असंगत नहीं हैं। संस्कृत शब्द कोष तात्पर्य की भाषा में कहा जा सकता है कि जिस प्रयोजन के के अनुसार मृत का अर्थ 'याचित' है। मनुस्मृति में भी इसका प्रयोग लिए मुनि बनता है, उस प्रयोजन के सिद्ध न होने पर वह इत्थंस्थ मिलता है। इसके आधार पर मृतादी का अर्थ है-याचितभोजी। अवस्था में चला जाता है और प्रयोजन के सिद्ध हो जाने पर मनि उक्त तीनों अर्थ प्रकरण-संगत हैं। इत्थंस्थ अवस्था को पार कर जाता है। संस्थान दो प्रकार का होता प्रस्तुत आलापक का प्रतिपाद्य यह है-मुनि-जीवन के लिए हैं-इत्थंस्थ और अनित्थंस्थ। संसारी जीव का संस्थान इत्थंस्थकेवल अचितभोजी या याचितभोजी होना ही पर्याप्त नहीं है, उसके नियत आकार वाला, अमुक-अमुक प्रकार का होता हैं ।' वर्गीकृत रूप में उसके छह प्रकार हैं। सिद्ध जीव के अनित्थंस्थ संस्थान होता लिए निरोध, प्रहाण और व्यवच्छेद भी आवश्यक है। है। इत्थंस्थ की विशेष जानकारी के लिए देखें, दसवेआलियं, निरोध-१. भव-निरोध २. भव-प्रपञ्च-निरोध ६।४।७ का टिप्पण। प्रहाण-१. संसार-प्रहाण २. संसारवेदनीय-प्रहाण । संसार-चक्र में पर्यटन करने वाला जीव अवस्था-भेद के अनुसार व्यवच्छेद-१. संसार-व्यवच्छेद २. संसारवेदनीय-व्यवच्छेद। छह नामों से संबोधित होता है। वे नाम सूत्र में निर्दिष्ट हैं। इनमें भव का अर्थ है-जन्म। संसार का अर्थ है-चार गतियों। चौथा नाम 'सत्त' है। में गमन या पर्यटन | भव-निरोध का अर्थ है--चरमदेह, उसके पश्चात् वृत्तिकार ने इसके 'सत्त्व' 'सक्त' और 'शक्त तीन संस्कृत रूप दूसरे जन्म का न होना। दिए हैं। किन्तु इनमें जीव के अर्थ में 'सत्त्व' शब्द अधिक प्रयुक्त भव-प्रपञ्च-निरोध का अर्थ है-देव, मनुष्य आदि जन्मों के और प्रसिद्ध है। 'सत्त्व' का कर्म के साथ संबंध भी विवक्षित है। जीव शुभ-अशुभ कर्म के द्वारा विषाद को प्राप्त होता है, इसलिए विस्तार का निरोध। वह सत्त्व कहलाता है। तत्त्वार्थराजवार्तिक और सर्वार्थसिद्धि में सत्त्व संसार-प्रहाण का अर्थ है-चतुर्गतिगमन का क्षीण होना। की व्याख्या कर्म के सन्दर्भ में मिलती है। संसार-वेदनीय-प्रहाण का अर्थ है-संसार-वेदनीय कर्म का प्रस्तुत आगम के २०११७ में जीव के २३ पर्यायवाची नाम क्षीण होना। निर्दिष्ट हैं। घवला में भी जीव के २० पर्यायवाची नाम बतलाए गए संसार-व्यवच्छेद का अर्थ है-चतुर्गति-गमन के अनुबन्ध का हैं।" प्रस्तुत आलापक (सू. १७) में मुक्त जीव के आठ एकार्थक व्यवच्छेद (विनाश या टूटना) होना। नामों का निर्देश है। १. भ.चू.२।१३-मृतयाजी मडाई मृतासी वा। णेत्थं तद्भाव इत्थत्वं मनुष्यादित्वमिति भावः, अनुस्वारलोपश्च प्राकृतत्वात् । २. म.वृ.२/१३-मृतादी–प्रासुकभोजी,उपलक्षणत्वादेषणीयादी चेति दृश्यम्। ६. ठाणं,६।३१। ३. अभि. ३।५३०-मृतं तु याचितम् । ७. ओवा.सू.१६५,गा.४. मनु. ४।४,५-मृतं स्याद्याचितं भैक्षममृतं स्यादयाचितम् । संठाणमणित्यंत्थं जरामरणविष्पमुकाणं । ५. भ.वृ.२।१३–'नो निरुध्दभवे' ति अनिरुद्धातनजन्मा, चरमभवाप्राप्त ८. भ.वृ.२।१४-यदा तूच्छ्वासादिधर्मंयुगपदसौ विवक्ष्यते तदा प्राणो भूतो इत्यर्थः । अयं च भवद्वयप्राप्तव्यमोक्षोऽपि स्यादित्याह-निरुद्धभवपबंचे त्ति जीवः सत्त्वो विज्ञो वेदयितेत्येतत्तं प्रति वाच्यं स्यात् ।.....सक्तः—आसक्तः प्राप्तव्यभवविस्तार इत्यर्थः । अयं च देवमनुष्यभवप्रपञ्चापेक्षयाऽपि स्यादित्यत शक्तो वा–समर्थः सुन्दरासुन्दरासु चेष्टासु अथवा सक्तः-संवद्धः शुभाशुभैः आह-'णो पहीणसंसारे' ति प्रहीणचतुर्गतिगमन इत्यर्थः। यत एवमत एव कर्मभिरिति। 'नो पहीणसंसारवेयणिज्जे' त्ति अप्रक्षीणसंसारवेद्यकर्मा । अयं च सकृचतुर्गति- ६. (क) त.रा.वा.७।११-अनादिकर्मबन्धवशात् सीदन्तीति सत्त्वाः । अनादिना गमनतोऽपि स्यादित्यत आह–'नो वोच्छिन्नसंसारे' ति अत्रुटितचतु- अष्टविधकर्मबन्धसन्तानेन तीव्रदुःखयोनिषु चतसृषु गतिषु सीदन्तीति सत्त्वाः । गतिगमनानुबन्ध इत्यर्थः । अत एव 'नो वोच्छिन्नसंसारवेयणिजे' त्ति 'नो' नैव (ख) सर्वार्थसिद्धि, ७।११,पृ.३४६-दुष्कर्मविपाकवशान्नानायोनिषु सीदव्यवच्छिन्नम् अनुवन्धव्यवच्छेदेन चतुर्गतिगमनवेद्यं कर्म यस्य स तथा । अतन्तीति सत्त्वाः जीवाः।। एव 'नो निट्ठिय?' ति अनिष्ठितप्रयोजनः। अत एवं 'नो निट्ठियद्वकरणिज्जे'त्ति १०. प.खं.धवला, पु.१, खं.१, भा.१, सू.२, गा.८१,८२-- 'नो' नैव निष्ठितार्थानामिव करणीयानि–कृत्यानि यस्य स तथा । यत एवं जीवो कत्ता य वत्ता य पाणी भोत्ता य पोग्गलो। विधोऽसावतः पुनरपीति, अनादौ संसारे पूर्व प्राप्तमिदानी पुनर्विशुद्धचरणा वेदो विण्हू सयंभूय सरीरी तह माणवो ॥ वाप्तेः सकाशादसम्भवनीयम् 'इत्थंत्थं' ति 'इत्यर्थम् एतमर्थम्-अनेकश सत्ता जन्तू य माणी य माई जोगी य संकडो । असंकडो य खेत्तण्हु अन्तरप्पा तहेब य ॥ स्तिर्यङ्नरनाकिनारकगतिगमनलक्षणम् ‘इत्यत्त'मिति पाठान्तरं तत्रानेन प्रकारे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003593
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages458
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size12 MB
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