SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 248
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भगवई २०५ श.२: उ.१: सू.१५-१७ जम्हा जीवे जीवति, जीवत्तं आउयं च कम्मं उवजीवति तम्हा जीवे त्ति वत्तवं सिया। यस्माद जीवः जीवति, जीवत्वं आयुश्च कर्म उपजीवति तस्माज् जीवः इति वक्तव्यः स्यात् । क्योंकि जीव जीता है—प्राण धारण करता है, जीवत्व और आयुष्य कर्म का अनुभव करता है, इसलिए वह 'जीव' शब्द के द्वारा वाच्य होता जम्हा सत्ते सुभासुमेहिं कम्मेहिं तम्हा सत्ते त्ति वत्तवं सिया। जम्हा तित्तकडुकसायंबिलमहुरे रसे जाणइ तम्हा विष्णु त्ति वत्तवं सिया। यस्मात् सत्त्वः शुभाशुभैः कर्मभिः तस्मात् क्योंकि वह शुभ और अशुभ कर्मों के द्वारा सत्त्वः इति वक्तव्यः स्यात् । विषादयुक्त बनता है, इसलिए वह 'सत्त्व' शब्द के द्वारा वाच्य होता है। यस्मात् तिक्तकटुकषायाम्लमधुरान् रसान् क्योंकि वह तिक्त, कटु, कसैले, अम्ल और मधुर जानाति तस्माद् विज्ञः इति वक्तव्यः स्यात्। रसों को जानता है, इसलिए वह 'विज्ञ' शब्द के द्वारा वाच्य होता है। यस्माद् वेदयति च सुख-दुखं तस्माद् वेदः इति । क्योंकि वह सुख-दुःख का वेदन करता है, इसलिए वक्तव्यः स्यात्। तत् तेनार्थेन प्राणः इति वह 'वेद' शब्द के द्वारा वाच्य होता है। इस वक्तव्यः स्याद् यावद् वेदः इति वक्तव्यः अपेक्षा से वह 'प्राण' शब्द के द्वारा वाच्य होता स्यात्। है यावत् 'वेद' शब्द के द्वारा वाच्य होता है। जम्हा वेदेति य सुह-दुक्खं तम्हा वेदे त्ति वत्तवं सिया। से तेणटेणं पाणे त्ति वत्तवं सिया जाब वेदे ति वत्तबं सिया।। १६. मडाई णं भंते ! नियंठे निरुद्धभवे, निरु- मृतादी भदन्त ! निर्ग्रन्थः निरुद्धभवः, निरुद्ध- १६. भंते ! याचितभोजी निर्ग्रन्थ, जिसने भव का दभवपवंचे, पहीणसंसारे, पहीणसंसार- भवप्रपञ्चः, प्रहीणसंसारः, प्रहीणसंसार- निरोध किया है और भव के विस्तार का निरोध वेयणिज्जे, वोच्छिण्णसंसारे, वोच्छिण्ण- वेदनीयः, व्यवच्छिन्नसंसारः, व्यवच्छिन्नसंसार- किया है, जिसने संसार को प्रहीण किया है और संसारवेयणिजे, निद्वियटे, निद्वियटुकरणिज्जे वेदनीयः, निष्ठितार्थः, निष्ठितार्थकरणीयः नो संसारवेदनीय कर्म को भी प्रहीण किया है, जिसने नो पुणरवि इत्थत्थं हब्बमागच्छइ? पुनरपि इत्यंस्थं 'हव्वं' आगच्छति ? संसार को व्युच्छिन्न किया है और संसारवेदनीय कर्म को भी व्युच्छिन्न किया है, जिसने अपना प्रयोजन सिद्ध किया है और प्रयोजन-पूर्ति के लिए करणीय कार्यों को भी सिद्ध किया है, क्या फिर से इत्थंस्थ (तिर्यञ्च आदि के रूपों) को प्राप्त नहीं होता? हंता गोयमा ! मडाई णं नियंठे निरुद्धभवे, हन्त गौतम ! मृतादी निर्ग्रन्थः निरुद्धभवः, हां, गौतम ! याचितभोजी निर्ग्रन्थ, जिसने भव निरुद्धभवपवंचे, पहीणसंसारे, पहीण- निरुद्धभवप्रपञ्चः, प्रहीणसंसारः, प्रहीण- का निरोध किया है और भव के विस्तार का संसारवेयणिजे, वोच्छिण्णसंसारे, वोच्छि- संसारवेदनीयः, व्यवच्छिन्नसंसारः, व्यवच्छिन्न- निरोध किया है, जिसने संसार को प्रहीण किया पणसंसारवेयणिजे, निद्वियटे, निद्वियदु- संसारवेदनीयः, निष्ठितार्थः, निष्ठितार्थकर- है और संसारवेदनीय कर्म को भी प्रहीण किया करणिजे नो पुणरवि इत्थत्यं हव्व- णीयः नो पुनरपि इत्यंस्थं 'हव्वं' आगच्छति। है, जिसने संसार को व्युच्छिन्न किया है और मागच्छइ॥ संसारवेदनीय कर्म को भी व्युच्छिन्न किया है, जिसने अपना प्रयोजन सिद्ध किया है और प्रयोजन-पूर्ति के लिए करणीय कार्यों को भी सिद्ध किया है, फिर से इत्थंस्थ (तिर्यञ्च आदि के रूपों) को प्राप्त नहीं होता। १७. से णं भंते ! किं ति क्त्तवं सिया? स भदन्त ! किमिति वक्तव्यः स्यात् ? १७. भंते ! वह किस शब्द के द्वारा वाच्य होता है। व्यः स्यात् । मुक्तः इति वक्तव्यः पारगए त्ति वत्तवं सिया। प गोयमा ! सिद्धे त्ति वत्तव्वं सिया। बुद्धे ति गौतम ! सिद्धः इति वक्तव्यः स्यात् । बुद्धः गौतम ! वह 'सिद्ध' शब्द के द्वारा वाच्य होता क्त्तव्वं सिया। मत्ते त्ति वत्तव्बं सिया। इति वक्तव्यः स्यात् । मुक्तः इति वक्तव्यः है। वह 'बुद्ध' शब्द के द्वारा वाच्य होता है। पारगए त्ति वत्तवं सिया। परंपरगए त्ति स्यात्। पारगतः इति वक्तव्यः स्यात्।। वह 'मुक्त' शब्द के द्वारा वाच्य होता है। वह वत्तव्यं सिया। सिद्धे बुद्धे मुत्ते परिनिबुडे परंपरगतः इति वक्तव्यः स्यात् । सिद्धः बुद्धः 'पारगत' शब्द के द्वारा वाच्य होता है। वह अंतकडे सव्वदुक्खप्पहीणे त्ति वत्तवं सिया॥ मुक्तः परिनिर्वृतः अन्तकृतः सर्वदुखप्रहीणः 'परंपरगत' शब्द के द्वारा वाच्य होता है। वह इति वक्तव्यः स्यात्। सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, परिनिर्वृत, अन्तकृत, सर्वदुखप्रहीण इस रूप में वाच्य होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003593
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages458
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy