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भगवई
श.२: उ.१: सू.१३-१५ मडाइ-नियंठ-पदं
मृतादि-निर्ग्रन्थ-पदम्
मृतादी-निर्ग्रन्थ-पद
१३. मडाई णं भंते ! नियंठे नो निरुद्धभवे, नो मतादी भदन्त ! निर्ग्रन्थः नो निरुद्धभवः, नो १३. 'भन्ते ! याचितभोजी निर्ग्रन्थ, जिसने भव का निरुद्धभवपवंचे, नो पहीणसंसारे, नो पही- निरुद्धभवप्रपञ्चः, नो प्रहीणसंसारः, नो निरोध नहीं किया है और भव के विस्तार का णसंसारखेयणिज्जे, नो वोच्छिण्णसंसारे, नो प्रहीणसंसारवेदनीयः, नो व्यवच्छिन्नसंसारः, निरोध नहीं किया है, जिसने संसार को प्रहीण वोच्छिण्णसंसारवेयणिज्जे, नो निद्वियडे, नो नो व्यवच्छिन्नसंसारवेदनीयः, नो निष्ठितार्थः, नहीं किया है और संसार-वेदनीय कर्म को भी निवियदुकरणिजे पुणरवि इत्थत्थं हव्वमा- नो निष्ठितार्थकरणीयः पुनरपि इत्यंस्थं 'हव्वं' प्रहीण नहीं किया है, जिसने संसार को व्युच्छिन्न गच्छइ? आगच्छति ?
नहीं किया है और संसार वेदनीय कर्म को भी व्युच्छिन्न नहीं किया है, जिसने अपना प्रयोजन सिद्ध नहीं किया है और प्रयोजन-पूर्ति के लिए करणीय कार्यों को भी सिद्ध नहीं किया है, क्या फिर इत्थंस्थ (तिर्यञ्च आदि के रूपों) को प्राप्त
होता है ? हंता गोयमा ! मडाई णं नियंठे नो हन्त गौतम ! मृतादी निर्ग्रन्थः नो निरुद्धभवः, हां, गौतम ! याचितभोजी निर्ग्रन्थ, जिसने भव निरुद्धभवे, नो निरुद्धभवपवंचे, नो पहीण- नो निरुद्धभवप्रपञ्चः, नो प्रहीणसंसारः, नो का निरोध नहीं किया है और भव के विस्तार संसारे, नो पहीणसंसारवेयणिजे, नो वो- प्रहीणसंसारवेदनीयः, नो व्यवच्छिन्नसंसारः, का निरोध नहीं किया है, जिसने संसार को प्रहीण छिण्णसंसारे, नो वोच्छिण्णसंसारवेयणि- नो व्यवच्छिन्नसंसारवेदनीयः, नो निछितार्थः, नहीं किया है और संसारवेदनीय कर्म को भी जे, नो निवियदे, नो निद्वियद्वकरणिज्जे पुण- नो निष्ठितार्थकरणीयः पुनरपि इत्थंस्थं 'हव्वं' प्रहीण नहीं किया है, जिसने संसार को व्युच्छिन्न रवि इत्थत्यं हब्बमागच्छइ॥ आगच्छति।
नहीं किया है और संसार-वेदनीय कर्म को भी व्युच्छिन्न नहीं किया है, जिसने अपना प्रयोजन सिद्ध नहीं किया है और प्रयोजन-पूर्ति के लिए करणीय कार्यों को भी सिद्ध नहीं किया है, फिर से इत्थंस्थ (तिर्यञ्च आदि के रूपों) को प्राप्त होता
१४. से णं भंते ! किं ति वत्तव्बं सिया ?
स भदन्त ! किमिति वक्तव्यः स्यात् ?
१४. भन्ते ! वह किस शब्द के द्वारा वाच्य होता
गोयमा ! पाणे त्ति वत्तव्यं सिया। भूए त्ति गौतम ! प्राणः इति वक्तव्यः स्यात् । भूतः वत्तवं सिया। जीवे त्ति वत्तबं सिया। सत्ते इति वक्तव्यः स्यात्। जीवः इति वक्तव्यः त्ति वत्तव्वं सिया। विष्णु त्ति क्त्तव्बं सिया। स्यात् । सत्त्व इति वक्तव्यः स्यात्। विज्ञः वेदे त्ति वत्तव्यं सिया। पाणे भूए जीवे सत्ते इति वक्तव्यः स्यात् । वेदः इति वक्तव्यः विष्णू वेदे त्ति वत्तव्वं सिया॥
स्यात् । प्राणः भूतः जीवः सत्त्वः विज्ञः वेदः इति वक्तव्यः स्यात्।
गौतम ! बह प्राण शब्द के द्वारा वाच्य होता है। वह भूत शब्द के द्वारा वाच्य होता है। वह जीव शब्द के द्वारा वाच्य होता है । वह सत्त्व शब्द के द्वारा वाच्य होता है। वह विज्ञ शब्द के द्वारा वाच्य होता है। वह वेद शब्द के द्वारा वाच्य होता है। वह प्राण, भूत, जीव, सत्त्व, विज्ञ और वेद-इस रूप में वाच्य होता है।
१५. से केणटेणं पाणे त्ति वत्तबं सिया जाव तत् केनार्थेन प्राणः इति वक्तव्यः स्याद् यावद् १५. भन्ते ! वह किस अपेक्षा से 'प्राण' शब्द के वेदे त्ति वत्तव्वं सिया? वेदः इति वक्तव्यः स्यात् ?
द्वारा वाच्य होता है यावत् 'वेद' शब्द के द्वारा
वाच्य होता है ? गोयमा! जम्हा आणमइ वा, पाणमइ वा गौतम ! यस्माद् अनिति वा, अपानिति वा, गौतम ! क्योंकि वह आन, अपान तथा उच्छ्वास उस्ससइ वा, नीससइ वा तम्हा पाणे त्ति उच्छ्वसिति वा, निःश्वसिति वा, तस्मात् और निःश्वास करता है, इसलिए वह 'प्राण' शब्द वत्तव्बं सिया। प्राणः इति वक्तव्यः स्यात्।
के द्वारा वाच्य होता है। जम्हा भूते भवति भविस्सति य तम्हा भूए यस्माद् भूतः भवति भविष्यति च तस्माद् भूतः क्योंकि वह था, है और होगा, इसलिए वह 'भूत' त्ति वत्तव्यं सिया। इति वक्तव्यः स्यात् ।
शब्द के द्वारा वाच्य होता है।
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