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श.२: उ.५: सू.८०-८३
भगवई
२६० भाष्य
१. सूत्र ८०
प्रस्तुत सूत्र में अन्ययूथिक मत से महावीर के मत की भिन्नता का निदर्शन है। यहां अन्ययूथिक का नोमोल्लेख नहीं, किन्तु प्रकरण के अनुसार यह अभिमत आजीवक सम्प्रदाय का होना चाहिए। वह एक श्रमण-सम्प्रदाय है और भगवान महावीर के समकालीन भी है। उसका अस्तित्व पहले भी था—यह स्वीकार करने में कोई ऐतिहासिक बाधा भी नहीं लगती। बौद्ध साहित्य में गोशालक को आजीवक का तीसरा आचार्य बतलाया गया है।'
ठाणं में परिचारणा के नौ विकल्प प्राप्त हैं। उनमें 'अप्पणामेव अप्पणा विउब्बिय-विउब्विय परियारेति' इस विकल्प को सर्वत्र मान्य किया है। प्रस्तुत सूत्र में इसे अस्वीकार किया गया है। यह स्पष्ट विरोधाभास है। इसे वाचना-भेद मानकर सन्तोष किया जा सकता है। किन्तु जहां पक्ष और प्रतिपक्ष का प्रश्न है, वहां वाचना-भेद की बात पर्याप्त
नहीं है। इस विषय में एक तर्क सामने है-ठाणं में देव का सामान्य निर्देश है। इसलिए अपने द्वारा निर्मित रूप के साथ परिचारणा की बात मान्य की गई। प्रस्तुत प्रसगं में निर्ग्रन्थ का जीवन जीकर होने वाले देव का निर्देश है। यह संभावना की जा सकती है कि वह देव जो पर्वजन्म में निर्ग्रन्थ था, अपने द्वारा निर्मित रूप के साथ परिचारणा नहीं करता। २. द्रष्टा के चित्त को प्रसन्न करने वाला.......रमणीय
प्रासादीय-जिसे देखकर चित्त प्रसन्न हो। दर्शनीय-जिसे देखकर चक्षु थके नहीं। अभिरूप—मनोज्ञ रूप वाला। प्रतिरूप-जिसका रूप प्रत्येक द्रष्टा की आंख में प्रतिबिम्बित हो।'
गब्भ-पदं
गर्भ-पदम
गर्भ-पद
१. उदगम्भेणं भंते ! उदगम्भे त्ति कालओ उदकगर्भः भदन्त ! उदकगर्भः इति कालतः ८१. 'भन्ते ! उदकगर्भ उदकगर्भ के रूप में काल केवचिरं होइ ? कियच्चिरं भवति ?
की दृष्टि से कितने समय तक रहता है? गोयमा ! जहण्णेणं एक समयं, उक्कोसेणं गौतम ! जघन्येन एक समयम्, उत्कर्षेण गौतम ! जघन्यतः एक समय, उत्कर्षतः छह छम्मासा॥ षण्मासान् ।
मास।
भाष्य
१. सूत्र १
प्रस्तुत सूत्र का सम्बन्ध वर्षा शास्त्र से है। उदकगर्भ का अर्थ है-कुछ कालावधि के पश्चात् वर्षा का हेतुभूत पुद्गल-परिणाम। इसकी पहचान सन्ध्याराग आदि के द्वारा होती है। ठाणं में उदकगर्भ
के आठ प्रकार बतलाए गए हैं।' स्थानांग वृत्ति में इसका विस्तृत वर्णन मिलता है।'
१२. तिरिक्खजोणियगम्भे णं भंते ! तिरि- तिर्यगयोनिकगर्भः भदन्त ! तिर्यगयोनिकगर्भः २२. भन्ते ! तिर्यग्योनिकगर्भ तिर्यगयोनिकगर्भ के खजोणियगम्भे त्ति कालओ केवचिरं होइ? इति कालतः कियच्चिरं भवति ?
रूप में काल की दृष्टि से कितने समय तक रहता
गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं अट्ठ संवच्छराई ॥
गौतम ! जघन्येन अन्तर्मुहूर्तम्, उत्कर्षेण अष्ट संवत्सरान् ।
गौतम ! जघन्यतः अन्तर्मुहूर्तः, उत्कर्षतः आठ वर्ष।
५३. मणुस्सीगन्भेणं भंते ! मणुस्सीगन्मे ति मनुष्यीगर्भः भदन्त ! मनुष्यीगर्भः इति कालतः ८३. भन्ते ! मानुषी-गर्भ मानुषी-गर्भ के रूप में काल कालओ केवचिरं होई? कियच्चिरं भवति?
की दृष्टि से कितने समय तक रहता है ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं गौतम ! जघन्येन अन्तर्मुहूर्तम्, उत्कर्षेण गौतम ! जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त, उत्कर्षतः बारह बारस संवच्छराई॥ द्वादश संवत्सरान् ।
वर्ष। १. अंगुत्तरनिकाय, छक्कनिपाता, महावग्गो, छलभिजातिसुत्तं ।
षण्मासान्, षण्णां मासानामुपरि वर्षणात्, अयं च मार्गशीर्षपौषादिषु वैशा२. ठाणं,३।६।
खान्तेषु सन्ध्यारागमेधोत्पादादिलिङ्गो भवति । यदाह३. भ.वृ.२/०-'पासाइए' द्रष्टृणां चित्तप्रसादजनकः 'दरिसणिजे' यं पश्यचक्षुर्न "पौषे समार्गशीर्षे सन्ध्यारागोऽम्बुदाः सपरिवेषाः ।
श्राम्यति 'अभिरूवे' मनोज्ञरूपः ‘पडिरूवेत्ति द्रष्टार-द्रष्टारं प्रति रूपं यस्य स नात्यर्थं मार्गशिरे शीतं पोषेऽतिहिमपातः॥" तथेति।
५. ठाणं,४।६४०,६४१। ४. भ.१.२।०-तत्रोदकगर्भः-कालान्तरेण जलप्रवर्षणहेतुः पुद्गलपरिणामः, ६. स्या.वृ.प.२७३ ।
तस्य चावस्थानं जघन्यतः समयः समयानन्तरमेव प्रवर्षणात। उत्कटतस्त
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