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श.१: उ.६: सू.३६२-४१६
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भगवई
गरुयलहुयाई, अगरुयलहुयाई ॥ कलघुकानि, अगुरुकलघुकानि।
अगुरुलघु हैं। ४०८. कण्हलेस्सा णं भंते ! किं गया ? कृष्णलेश्या भदन्त ! किं गुरुका ? लघुका? ४०८. भन्ते ! कृष्णलेश्या क्या गुरु है ? लघु है?
लहुया ? गरुयलहुया ? अगरुयलहुया ? गुरुकलघुका ? अगुरुकलघुका ? गुरुलघु है ? अगुरुलघु है ? गोयमा ! णो गरुया, णो लहुया, गरुय- गौतम ! नो गुरुका, नो लघुका, गुरुकलघुका । गौतम ! वह न गुरु है, न लघु है, गुरुलघु भी लहुया वि, अगरुयलहुया वि॥ अपि, अगुरुकलघुका अपि।
है, अगुरुलघु भी है।
४०६. से केणद्वेणं भंते ! एवं बुचइ-कण्ह-
लेस्सा णो गया ? णो लहुया ? गरुय- लहुया वि? अगरुयलहुया वि? गोयमा ! दबलेस्सं पडुच्च ततियपदेणं, भावलेस्सं पुडुच्च चउत्थपदेणं।
तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-कृष्ण- ४०६. भन्ते ! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है लेश्या नो गुरुका ? नो लघुका ? गुरुक- -कृष्णलेश्या न गुरु है ? न लघु है ? गुरुलघु लघुका अपि ? अगुरुकलघुका अपि ? भी है ? अगुरुलधु भी है ? गौतम ! द्रव्यलेश्यां प्रतीत्य तृतीयपदेन, भाव- गौतम ! द्रव्यलेश्या की अपेक्षा से वह गुरुलघु है, लेश्यां प्रतीत्य चतुर्थपदेन ।
भावलेश्या की अपेक्षा से अगुरुलघु है।
एवं यावत् शुक्ललेश्या।
४१०. शुक्ल लेश्या तक इसी प्रकार ज्ञातव्य है।
४१०. एवं जाव सुक्कलेस्सा॥ ४११. दिवी-दंसण-णाण-अण्णाण-सण्णाओ चउत्थएणं पदेणं नेतवाओ॥
दृष्टि-दर्शन-ज्ञान-अज्ञान-संज्ञाः चतुर्थकन पदेन ४११. दृष्टि, दर्शन, ज्ञान, अज्ञान और संज्ञा अगुरुनेतव्याः ।
लघु हैं।
४१२. हेदिल्ला चत्तारि सरीरा नेयव्या ततिएणं
पदेणं। कम्मयं चउत्थएणं पदेणं॥
अधस्तनानि चत्वारि शरीराणि नेतव्यानि ४१२. प्रथम चार शरीर गुरुलघु और कार्मण शरीर तृतीयपदेन । कर्मकं चतुर्थकन पदेन । अगुरुलघु हैं।
हा
४१३. मणजोगो, वइजोगो चउत्थएणं पदेणं,
कायजोगो ततिएणं पदेणं॥
मनोयोगः, वागयोगः चतुर्थकन पदेन, काय- ४१३. मनयोग और वचनयोग अगुरुलघु हैं, काययोगः तृतीयेन पदेन ।
योग गुरुलघु है।
४१४. सागारोवओगो, अणागारोवओगो चउत्थएणं पदेणं॥
साकारोपयोगः, अनाकारोपयोगः चतुर्थकन ४१४. साकार उपयोग और अनाकार उपयोग पदेन ।
अगुरुलघु हैं।
४१५. सबदबा, सब्बपएसा, सबपञ्जवा जहा पोग्गलत्थिकाओ॥
सर्वद्रव्याणि, सर्वप्रदेशाः, सर्वपर्यवाः यथा ४१५. सब द्रव्य, सब प्रदेश और सब पर्याय पुद्गलापुद्गलास्तिकायः।
स्तिकाय की भांति वक्तव्य हैं।
४१६. तीतद्धा, अणागतद्धा, सबद्धा चउत्थ
एणं पदेणं॥
अतीताध्वा, अनागताध्वा, सर्वाध्वा चतुर्थकन ४१६. अतीतकाल, अनागतकाल और सर्वकाल
अगुरुलघु हैं।
पदेन ।
भाष्य
१. सूत्र ३६२-४१६
पदार्थ दो प्रकार के होते हैं—भारयक्त और भारहीन। प्रस्तत आलापक में यह जिज्ञासा की गई है-कौन-सा पदार्थ भारयुक्त होता है और कौन-सा पदार्थ भारहीन है ? भार का संबंध स्पर्श से है। वह पुद्गल द्रव्य का एक गुण है। शेष सब द्रव्य भारहीन अगुरुलघु होते हैं। पुद्गल द्रव्य भारयुक्त और भारहीन दोनों प्रकार का होता है। जिनभद्रगणी के अनुसार गुरु, लघु, गुरुलघु और अगुरुलघुये चार विकल्प व्यवहार नय के अनुसार होते हैं। निश्चय नय के १. भ.वृ.१/३६३-इह चेयं गुरुलघुव्यवस्था
निच्छयओ सब्बगुरुं सव्वलहुं वा न विजए दव्वं । ववहारओ उ जुञ्जइ बायरखंधेसु नऽण्णेसु ॥
अनुसार सर्वथा गुरु और सर्वथा लघु कुछ भी नहीं होता। इसमें केवल दो ही विकल्प मान्य है-गुरुलघु और अगुरुलघु।
प्रस्तुत आगम से यह निश्चय का मत ही फलित होता है। प्रत्येक प्रश्न के उत्तर में गुरु और लघु का विकल्प मान्य नहीं है। अभयदेवसूरि ने दो गाथाएं उद्धृत कर जिनभद्रगणी के मत का ही अनुसरण किया है।'
अगुरुलहू चउफासो अरूविदव्वा य होति नायव्वा ।
सेसा उ अट्ठफासा गुरुलहुया निच्छयणयस्स ॥ 'चउफास'ति सूक्ष्मपरिणामानि, 'अट्ठफास'ति वादराणि। गुरुलघुद्रव्यं रूपि,
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