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भगवई
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श.१: उ.४ः सू.१८६-१६२
सूत्रकार ने इस विषय में एक नया तथ्य उद्घाटित किया पुरुषार्थवाद के बिना सम्भव नहीं है। प्रत्येक पर्याय अपने नियत समय है-अमुक कर्म आभ्युपगमिकी वेदना द्वारा भोगा जाएगा और अमुक __में प्रगट होता है। जो पर्याय द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव इस चतुष्टयी कर्म औपक्रमिकी वेदना द्वारा भोगा जाएगा, यह अर्हत् को ज्ञात होता के साथ नियत होता है, वह नियति है। अमुक द्रव्य में अमुक क्षेत्र और है। कर्म-विपाक की पृष्ठभूमि में दो नियम कार्य करते हैं-१. किस अमुक काल में अमुक निमित्त के द्वारा अमुक प्रकार से अमुक पर्याय अध्यवसाय-काल में कर्म का बन्ध हुआ है ? २. उसके साथ देश, काल प्रकट होगा—यह नियति है। जो कर्म अर्हत् ने जैसे-जैसे देखा है, वह आदि निश्चित कारणों से कर्म के विपाक का सम्बंध होता है। कर्म-विपाक वैसे-वैसे ही परिणत होगा, यह नियतिवाद का सूत्र है। की यह पृष्ठभूमि अर्हत् के द्वारा जैसे ज्ञात होती है, वैसे ही उसका विपाक
_ 'यथानिकरण' के द्वारा इस नियतिवाद के सिद्धान्त का प्रतिपादन होता है। इस सिद्धान्त के प्रतिपादन के आधार पर दो धारणाएं बनती
किया गया है। वृत्तिकार ने बतलाया है कि कर्म अपने देश, काल आदि
नियत करणों का अतिक्रमण नहीं करता; इसलिए अर्हत द्वारा जिस रूप १. तपस्या आदि के द्वारा कर्म के विपाक में परिवर्तन किया जा में दृष्ट है, उसी रूप में उसका विपरिणमन होता है। जिस रूप में कर्म सकता है।
का बन्ध हुआ, उसी रूप में कर्म का विपाक होगा—यह नियत नहीं यह धारणा पुरुषार्थवाद के अनुकूल है ।
है, किन्तु अमुक कर्म अमुक पुरुषार्थ के द्वारा अमुक रूप में बदला
जाएगा यह नियत होता है। अर्हत् के ज्ञान में होने वाला परिवर्तन' २. अर्हत् ने जैसा देखा, वैसे कर्म का विपाक होगा।
नियत होता है। परिवर्तन होना नियति है, किन्तु परिवर्तन करना नियति यह धारणा पुरुषार्थवाद के अनुकूल नहीं है।
का काम नहीं है। वह पुरुषार्थ का काम है। इस प्रकार नियति और इन दो धारणाओं के आधार पर एक प्रश्न उपस्थित होता पुरुषार्थ दोनों का समन्वय इस प्रकरण से फलित होता है। है-भगवान् महावीर पुरुषार्थवादी थे या नियतिवादी ? इसका उत्तर योग-दर्शन के भाष्य में 'एकभविक कर्माशय' के दो विकल्प स्पष्ट है-महावीर अनेकान्तवादी थे। पुरुषार्थवाद एकान्तवाद है। किए हैं—नियत विपाक और अनियत विपाक । भाष्यकार ने बतलाया नियतिवाद भी एकान्तवाद है। महावीर को कोई भी एकान्तवाद मान्य है कि विपाक के देश, काल और गति का अवधारण न होने के कारण नहीं था। उन्हें पुरुषार्थवाद और नियतिवाद का समन्वय मान्य था। कर्म-गति विचित्र और दुर्विज्ञेय होती है। इस सन्दर्भ में एवंभूत वेदना, प्रस्तत प्रकरण में वही समन्वय का स्वर मुखरित है। कर्म के वेदन का अनेवंभूत वेदना' का प्रकरण द्रष्टव्य है। विकल्प पुरुषार्थवाद का स्वयम्भू प्रमाण है। अनुभाग में परिवर्तन होना
पोग्गल-जीवाणं तेकालियत्त-पदं १६१. एस णं भंते ! पोग्गले तीतं अणंतं
सासयं समयं भुवीति वत्तवं सिया ? हंता गोयमा ! एस णं पोग्गले तीतं अणंतं सासयं समयं भुवीति वत्तव्वं सिया ॥
पुद्गल-जीवानां त्रैकालिकत्व-पदम् पुद्गल और जीव की त्रैकालिकता का पद एष भदन्त ! पुद्गलः अतीतम् अनन्तं शाश्वतं १६१. 'भन्ते ! यह परमाणु अनन्त अतीतकाल में समयम् अभूद् इति वक्तव्यं स्यात् ? शाश्वत था, क्या ऐसा कहा जा सकता है ? हन्त गौतम ! एष पुद्गलः अतीतम् अनन्तं हां, गौतम ! यह परमाणु अनन्त अतीतकाल में शाश्वतं समयम् अभूदु इति वक्तव्यं स्यात् । शाश्वत था, ऐसा कहा जा सकता है।
१६२. एस णं भंते ! पोग्गले पडुप्पण्णं सासयं एष भदन्त ! पुद्गलः प्रत्युत्पन्नं शाश्वतं समयं १६२. भन्ते ! यह परमाणु वर्तमान काल में शाश्वत समयं भवतीति वत्तवं सिया ? भवतीति वक्तव्यं स्यात् ?
रहता है, क्या ऐसा कहा जा सकता है ? हंता गोयमा ! एस णं पोग्गले पडुप्पण्णं __ हन्त गौतम ! एष पुद्गलः प्रत्युत्पन्नं शाश्वतं हां, गौतम ! यह परमाणु वर्तमान काल में शाश्वत सासयं समयं भवतीति वत्तवं सिया ॥ समयं भवतीति वक्तव्यं स्यात् ।
रहता है, ऐसा कहा जा सकता है।
१. भ.१.१।१६०-यथाकर्म-बद्धकर्मानतिक्रमेण 'अहानिगरणं'ति निकरणानां
—नियतानां देशकालादीनां करणानां विपरिणामहेतूनामनतिक्रमेण यथा-यथा तत्कर्म भगवता दृष्टं तथा तथा विपरिणस्यतीति । २. पा.यो.द.२।१३ भाष्य यस्त्वसावेकभविकः कर्माशयः स नियतविपाकश्चा- नियतविपाकश्च । तत्र दृष्टजन्मवेदनीयस्य नियतविपाकस्यैवायं नियमो, न त्व- दृष्टजन्मवेदनीयस्यानियतविपाकस्य; कस्मात्, यो ह्यदृष्टजन्मवेदनीयोऽनियतविपाकस्तस्य त्रयी गतिः कृतस्याविपक्वस्य नाशः, प्रधानकर्मण्यावापगमनं वा, नियतविपाकप्रधानकर्मणाऽभिभूतस्य वा चिरमवस्थानमिति । तत्र कृतस्याऽविपक्वस्य नाशो यथा शुक्लकर्मोदयादिहैव नाशः कृष्णस्य, यत्रेमुक्तम् ---"द्वे द्वे ह वै कर्मणी वेदितव्ये पापकस्यैको राशिः पुण्यकृतोऽपहन्ति । तदिच्छस्व कर्माणि सुकृतानि कर्तुमिहैव ते कर्म कवयो वेदयन्ते।"
प्रधानकर्मण्यावापगमनम् यत्रेदमुक्तम्- "स्यात्स्वल्परसंकरः सपरिहारस्सप्रत्यवमर्षः, कुशलस्य नापकर्षायालम्; कस्मात् ? कुशलं हि मे बह्वन्यदस्ति यत्रायमावापङ्गतस्स्वर्गेऽप्यपकर्षमल्पं करिष्यति" इति ।
नियतविपाकप्रधानकर्मणाभिभूतस्य वा चिरमवस्थानम्; कथमिति ? अदृष्टजन्मवेदनीयस्यैव नियतविपाकस्य कर्मणः समानं मरणमभिव्यक्तिकारणमुक्तम्, नत्वदृष्टजन्मवेदनीयस्यानियतविपाकस्य । यत्त्वदृष्टजन्मवेदनीयं कर्मानियतविपाकं तन्नश्येदावापं वा गच्छेदभिभूतं वा चिरमप्युपासीत यावत्समानं कर्माभिव्यञ्जक निमित्तमस्य न विपाकाभिमुखं करोतीति। तद्विपाकस्यैव देशकालनिमित्ता नवधारणादियं कर्मगतिविचित्रा दुर्विज्ञाना चेति । न चोत्सर्गस्यापवादान् निवृत्तिरिति एकभविकः कर्माशयोऽनुज्ञायत इति । ३. भ.५1११६-१२६॥
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