SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 141
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६८ भगवई श.१: उ.४. सू.१८६,१६० तत्थ णं जंणं पदेसकम्मं तं नियमा वेदेइ। तत्र यत् प्रदेशकर्म तत् नियमाद् वेदयति। तत्थ णंजणं अणुभागकम्मं तं अत्थेगइयं तत्र यद् अनुभागकर्म तद् अस्त्येककं वेदयति, वेदेइ, अत्थेगइयं णो वेदेइ । अस्त्येककं नो वेदयति। णायमेयं अरहया, सुयमेयं अरहया, विण्णा- ज्ञातमेतद् अर्हता, श्रुतमेतद् अर्हता, विज्ञात- यमेयं अरहया इमं कम्मं अयं जीवे मेतद् अर्हता-इदं कर्म अयं जीवः आभ्यु- अब्भोवगमियाए वेदणाए वेदेस्सइ, इमं पगमिक्या वेदनया वेदयिष्यति, इदं कर्म अयं कम्मं अयं जीवे उवक्कमियाए वेदणाए जीवः औपक्रमिक्या वेदनया वेदयिष्यति। वेदेस्सइ । अहाकम्म, अहानिकरणं जहा जहा तं यथाकर्म, यथानिकरणं यथा यथा तद् भगवया दिटुं तहा तहा तं विष्परिणमि- भगवता दृष्टं तथा तथा विपरिणंस्यति । तत् स्सतीति । से तेणटेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ तेनार्थेन गौतम ! एवमुच्यते नैरयिकस्य वा, -नेरइयस्स वा, तिरिक्खजोणियस्स वा, तिर्यग्योनिकस्य वा, मनुष्यस्य वा, देवस्य वा मणुस्सस्स वा, देवस्स वा जे कडे पावे कम्मे, यत् कृतं पापं कर्म, नास्ति तस्य अवेदयित्वा नत्थि णं तस्स अवेदइत्ता मोक्खो ॥ मोक्षः। जो प्रदेश-कर्म है, उसका नियमतः वेदन होता है। जो अनुभाग-कर्म है, उसमें से किसी का वेदन होता है, किसी का वेदन नहीं होता। यह अर्हत् के द्वारा ज्ञात है, श्रुत है और विज्ञात है-यह जीव इस कर्म का आभ्युपगमिकी (स्वीकृत) वेदना द्वारा वेदन करेगा और यह जीव इस कर्म का औपक्रमिकी (प्रयत्नकृत) वेदना द्वारा वेदन करेगा। यथाकर्म (बद्ध कर्मों के अनुसार) और यथानिकरण (विपरिणमन के नियत हेतु के अनुसार) जैसे-जैसे वह कर्म भगवान् ने देखा, वैसे-वैसे उसका विपरिणमन होगा। गौतम ! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है-नैरयिक, तिर्यगयोनिक, मनुष्य अथवा देव के जो किया हुआ पाप-कर्म है, उसका वेदन किए बिना मोक्ष नहीं होता। भाष्य १. सूत्र १८६,१६० प्रस्तुत आलापक में कर्मवाद के कुछ महत्त्वपूर्ण प्रश्नों का विमर्श उपलब्ध है। कर्मवाद का सामान्य नियम है-अपने किए हुए कर्मों को भोगे बिना छुटकारा नहीं होता।' यदि यह नियम सार्वभौम अथवा निरपेक्ष हो, तो धार्मिक पुरुषार्थ की सार्थकता कम हो जाती है। उसकी सार्थकता तभी फलित होती है कि मनुष्य अतीत के बन्धन को बदल डाले, पूर्वकृत कर्म को निर्वीर्य बना दे। भगवान् महावीर पुरुषार्थवाद के प्रवक्ता थे। उनका सिद्धान्त था कि मनुष्य अपने पुरुषार्थ के द्वारा कर्म का बन्ध करता है और पुरुषार्थ के द्वारा उसमें परिवर्तन भी कर सकता है। इस अवधारणा के सन्दर्भ में कर्मवाद का वह नियम सार्वभौम और निरपेक्ष नहीं है। सापेक्षता की व्याख्या के दो सूत्र हैं—प्रदेश कर्म और अनुभाग-कर्म। प्रदेश-कर्म का अर्थ है—जीव के प्रदेशों में ओत-प्रोत कर्म-पुद्गल । अनुभाग-कर्म । का अर्थ है-कर्म-पुद्गलों का रस जो जीव के द्वारा संवेद्यमान होता से उन कर्म-प्रदेशों का क्षपण या वियोजन नियमतः करता है। सामान्य स्थिति में अनुभाग-कर्म का वेदन होता है, किन्तु पुरुषार्थ के द्वारा तीव्र अनुभाव को मन्द अनुभाव में बदल देने अथवा अनुभाव या रस को निष्क्रिय बना देने पर उसका वेदन नहीं भी होता।' इस निरूपण के आधार पर दो सिद्धान्त फलित होते हैं—कृत कर्म भुगतना ही होता है यह सिद्धान्त प्रदेश-कर्म की अपेक्षा से संगत है। कृत कर्म को भोगे बिना निर्जीर्ण किया जा सकता है यह सिद्धान्त अनुभाग-कर्म की अपेक्षा से है। तपस्या के द्वारा कर्म की निर्जरा करो-इसका आधार अनुभाग-कर्म के वेदन का विकल्प ही है। वेदना दो प्रकार की होती है-आभ्युपगमिकी और औपक्रमिकी।' आभ्युपगमिकी वेदना का सम्बन्ध धार्मिक साधना या तपस्या से है। यह संकल्पपूर्वक स्वीकृत होती है। उपवास आदि के द्वारा जो वेदना होती है, वह आभ्युपगमिकी है। औपक्रमिकी वेदना कर्म के स्वयं उदय अथवा उदीरणाकरण के द्वारा होने वाले कर्म के उदय से होती है। औपक्रमिकी वेदना सभी प्राणियों के होती है। आभ्युपगमिकी वेदना पञ्चेन्द्रिय तिर्यगयोनिक और मनुष्य इन दो के ही होती है।' प्रदेश-कर्म का वेदन अवश्यंभावी है। जीव अपने आत्म-प्रदेशों १. उत्तर.४॥३ कडाण कम्माण न मोक्ख अस्थि ॥ २. भ.वृ.१1१६०-प्रदेशाः कर्मपुद्गला जीवप्रदेशेष्वोतप्रोतास्तद्रूपं कर्म प्रदेश कर्म। 'अणुभागकम्मे यति अनुभागः तेषामेव कर्मप्रदेशानां संवेद्यमानताविषयो रसस्तद्रूपं कर्म अनुभागकर्म । तत्र यप्रदेशकर्म तन्नियमाद्वेदयति, विपाकस्याननुभवनेऽपि कर्मप्रदेशानामवश्यं क्षपणात्, प्रदेशेभ्यः प्रदेशानियमाच्छातयतीत्यर्थः। अनुभागकर्म च तथाभावं वेदयति वा न वा, यथा मिथ्यात्वं तत्क्षयोपशमकालेऽनुभागकर्मतया न वेदयति प्रदेशकर्मतया तु वेदयत्येवेति। ३. (क)दसवे.पढमा चूलिया, सू.१५-पावाणं च खलु भो ! कडाणं कम्माणं पुब्बिं दुचिण्णाणं दुष्पडिक्कत्ताणं वेयइत्ता मोक्खो नत्थि अवेयइत्ता, तवसा वा झोसइत्ता । अट्ठारसमं पयं भवइ। (ख)आयारो,२ । १६३-धुणे कम्मसरीरंग। (ग) दसवे.६।६७ खति अप्पाणममोहदंसिणो, तवे रया संजम अञ्जवे गुणे । धुणंति पावाई पुरे कडाई, नवाइ पावाई न ते करेंति ॥ ४. पण्ण.३५।१२-गोयमा ! दुविहा वेदणा पण्णत्ता, तं जहा—अमोवगमिया य ओवक्कमिया य | ५. वही,३५।१३-१५॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003593
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages458
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy