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श.१: उ.५: सू.२१६-२२१
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भगवई
गोयमा ! असंखेज्जा ओगाहणाठाणा गौतम ! असंख्येयानि अवगाहनास्थानानि पण्णत्ता, तं जहाजहण्णिया ओगाहणा, प्रज्ञप्तानि, तद् यथा-जघन्यिका अवगाहना, पदेसाहिया जहणिया ओगाहणा, दुपदे- प्रदेशाधिका जघन्यिका अवगाहना, द्विप्रदेसाहिया जहणिया ओगाहणा जाव असं- शाधिका जघन्यिका अवगाहना यावद् खेजपएसाहिया जहणिया ओगाहणा। असंख्येयप्रदेशाधिका जघन्यिका अवगा- तप्पाउग्गुक्कोसिया ओगाहणा।।
हना। तत्प्रायोग्योत्कर्षिका अवगाहना।
गौतम ! उनके असंख्येय अवगाहना-स्थान प्रज्ञप्त हैं, जैसे-जघन्य अवगाहना, एक प्रदेश अधिक जघन्य अवगाहना, दो प्रदेश अधिक जघन्य अवगाहना यावत् असंख्येय प्रदेश अधिक जघन्य अवगाहना। विवक्षित नरकावास के प्रायोग्य उत्कृष्ट अवगाहना।
२२०. इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए अस्यां भदन्त ! रलप्रभायां पृथिव्यां त्रिंशत् २२०. भन्ते ! इस रलप्रभा पृथ्वी के तीस लाख तीसाए निरयावाससयसहस्सेसु एगमेगंसि निरयावासशतसहस्रेषु एकैकस्मिन् निरयावासे नरकावासों में से प्रयेक नरकावास की जघन्य निरयावासंसि जहणियाए ओगाहणाए जघन्यिकायाम् अवगाहनायां वर्तमानाः अवगाहना में वर्तमान नैरयिक क्या क्रोधोपयुक्त वट्टमाणा नेरइया किं कोहोवउत्ता? नैरयिकाः किं क्रोधोपयुक्ताः ?
होते हैं ? असीइभंगा भाणियवा जाव संखेज- अशीतिभङ्गाः भणितव्याः यावत् संख्येय- इनके अस्सी भंग वक्तव्य हैं यावत संख्येय प्रदेश पदेसाहिया जहणिया ओगाहणा। प्रदेशाधिका जघन्यिका अवगाहना । अधिक जघन्य अवगाहना में वर्तमान नैरयिकों के
भी अस्सी भंग वक्तव्य हैं। असंखेजपदेसाहियाए जहणियाए ओगा- असंख्येयप्रदेशाधिकायां जघन्यिकायाम् अव- असंख्येय प्रदेश अधिक जघन्य अवगाहना में हणाए वट्टमाणाणं, तप्पाउग्गुक्कोसियाए गाहनायां वर्तमानानां तत्प्रायोग्योत्कर्षि- वर्तमान और विवक्षित नरकावास के प्रायोग्य ओगाहणाए वट्टमाणाणं सत्तावीसं भंगा । कायाम् अवगाहनायां वर्तमानानां सप्तविंशतिः । उत्कृष्ट अवगाहना में वर्तमान नैरयिकों के सत्ताईस
भंग होते हैं।
भाष्य
१. सूत्र २१६,२२०
प्रस्तुत आलापक में जघन्य अवगाहना वाले नैरयिकों के अस्सी भंग निर्दिष्ट हैं। इस प्रसंग में वृत्तिकार ने एक विरोधाभास की चर्चा । और उसका समाधान प्रस्तुत किया है। जघन्य स्थिति और जघन्य अवगाहना वाले नैरयिकों के जघन्य स्थिति के कारण सत्ताईस और जघन्य अवगाहना के कारण अस्सी भंग प्राप्त होते हैं। यह अन्तर्विरोध है। इसके समाधान में वृत्तिकार ने लिखा है कि जघन्य अवगाहना-काल में जघन्य स्थिति वालों के भी अस्सी भंग प्राप्त होते हैं। जघन्य अवगाहना केवल उत्पत्ति-काल में ही होती है; इसलिए
जघन्य अवगाहना वाले नैरयिक कम होते हैं। जो नैरयिक जघन्य अवगाहना का अतिक्रमण कर जाते हैं, उन्हीं जघन्य स्थिति वाले नैरयिकों के सत्ताईस भंग होते हैं।' शब्द-विमर्श
अवगाहना शरीर अथवा उसका आधारभूत क्षेत्र । स्थान प्रदेश-वृद्धि से होने वाले विभाग।'
२२१. इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए अस्यां भदन्त ! रलप्रभायां पृथिव्यां त्रिंशत् २२१. भन्ते ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के तीस लाख
तीसाए निरयावाससयसहस्सेसु एगमेगंसि निरयावासशतसहस्रेषु एककैस्मिन् निरयावासे नरकावासों में से प्रयेक नरकावास मे रहने वाले निरयावासंसि नेरइयाणं कइ सरीरया नैरयिकाणां कति शरीरकाणि प्रज्ञप्तानि ? नैरयिकों के कितने शरीर प्रज्ञप्त हैं ? पण्णता? गोयमा ! तिण्णि सरीरया पण्णत्ता, तं गौतम ! त्रीणि शरीरकाणि प्रज्ञप्तानि, तद् गौतम ! उनके तीन शरीर प्रज्ञप्त हैं, जैसेजहा उब्बिए, तेयए, कम्मए ।। यथा—वैक्रियं, तैजसं, कर्मकम् ।
वैक्रिय, तैजस और कार्मण।
१. भ.वृ. ११२२०-ननु ये जघन्यस्थितयो, जघन्यावगाहनाश्च भवन्ति तेषां । नीयम् ।
जघन्यस्थितिकत्वेन सप्तविंशतिर्भड़काः प्रागुवन्ति जघन्यावगाहनत्वेन चाशी- द्रष्टव्य भ.जो.१।१६।६ का वार्तिक । तिरिति विरोधः ? अत्रोच्यते, जघन्यस्थितिकानामपि जघन्यावगाहनाकाले- २. भ.वृ.१।२१६–अवगाहन्ते-आसते यस्यां साऽवगाहना-तनुस्तदाधारऽशीतिरेव, उत्पत्तिकालभावित्वेन जघन्यावगाहनानामल्पत्वादिति, या च भूतं वा क्षेत्रम् । तस्याः स्थानानि–प्रदेशवृद्ध्या विभागाः अवगाहनाजधन्यस्थितिकानां सप्तविंशतिः सा जघन्यावगाहनत्वमतिक्रान्तानामिति भाव- स्थानानि ।
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